संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पत्नी की लाश 33 किमी कंधे पर ढोता विश्वगुरू
11-Feb-2023 3:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पत्नी की लाश 33 किमी कंधे पर ढोता विश्वगुरू

आदिवासियों से जुड़े एक ट्विटर पेज पर एक गरीब की तस्वीर और खबर पोस्ट हुई है। ओडिशा के कोरापुट के रहने वाले सामुलु पांगी ने अपनी बीमार पत्नी को विशाखापत्तनम में एक अस्पताल में भर्ती कराया था। उसका गांव वहां से करीब सौ किलोमीटर दूर था। वापस ले जाते समय पत्नी की रास्ते में मौत हो गई तो ऑटो वाले ने शव को ले जाने से मना कर दिया। ऐसे में यह आदमी कंधे पर पत्नी के शव को लिए 33 किलोमीटर पैदल गया। ट्राइबल आर्मी नाम के इस ट्विटर पेज पर इस बात का खुलासा नहीं है कि यह आदमी आदिवासी था या नहीं, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, अगर वह गैरआदिवासी गरीब भी है, तो भी आदिवासियों की हमदर्दी उसके साथ होगी, क्योंकि आदिवासी दूसरे समुदायों के मुकाबले अधिक इंसानियत रखते हैं। वे कुदरत के करीब रहते हैं, और जाहिर है कि उनमें संवेदनशीलता अधिक होगी। एक दूसरी खबर यह कहती है कि पुलिस ने इस आदमी को अपनी पत्नी को कंधे पर ले जाते देखा तो आधे रास्ते से उसकी मदद की, और उसे गांव तक पहुंचाया। सच इन दो खबरों के बीच कहीं भी हो सकता है, और हो सकता है कि 33 किलोमीटर पैदल चलने के बाद बचा रास्ता पुलिस की मदद मिली हो। 

ट्विटर पर बहुत से लोगों ने इस खबर पर लिखा है। एक ने लिखा आखिर लोग कौन सी जाति, धर्म, संस्कृति, परंपरा, प्रथा की आस्था में डूबे हुए हैं जहां इंसान के लिए इंसान की कोई आस्था नहीं है, ज्ञान-विज्ञान संविधान का तर्क व वैज्ञानिक दृष्टिकोण मर गए हैं। कुछ लोगों ने याद दिलाया कि इसी ओडिशा की एक आदिवासी आज देश की राष्ट्रपति है। सैकड़ों लोगों ने इस नौबत को धिक्कारा है, और अलग-अलग सरकारों को अलग-अलग जिम्मेदार तबकों को कोसा है। लोगों ने यह भी हैरानी जाहिर की है कि 33 किलोमीटर के ऐसे पैदल सफर में कोई इंसान नहीं मिला। कुछ लोगों ने यह भी लिखा कि यही असली भारत है, जरूरतमंद को मदद नहीं मिलती, और अरबों-खरबों रूपये अडानी, मेहुल चौकसी जैसे लोग हड़प जाते हैं। एक ने लिखा कि मनुवादियों ने मानवता को खत्म कर दिया एक ऐसी मनुवादी व्यवस्था बनाकर जो लोगों में भेदभाव रखती है। किसी ने लिखा कि इंसान जानवरों से ज्यादा गिर गए हैं, एक ने लिखा हम ऐसे भारत में रहते हैं बिलियन और ट्रिलियन की बात के बीच कोई शव को कंधे पर 25-50 किलोमीटर ढो रहा है। एक ने लिखा है जब देश का मीडिया दलाली में व्यस्त हो तो इस भारत की बात कौन करेगा? किसी ने सही कहा है, दो भारत हैं, एक गरीबों का, दूसरा अमीरों का। एक ने लिखा कि जिस देश में लोग ऐसे मर रहे हैं उस देश में हम हिन्दू-मुस्लिम कर रहे हैं, शर्म आना चाहिए सरकार को। एक ने लिखा इस पर भी कुछ लोग कहते हैं कि यह अमृतकाल है। किसी ने आदिवासियों के संदर्भ में लिखा कि ये बेचारे वहीं के वहीं हैं क्योंकि इनका हक कोई और खा रहे हैं। एक का कहना है कि सरकारें तो सभी जगह मरी हुई हैं, पर लोगों की इंसानियत कहां मर गई है? 

ऐसी खबरें हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं से आती ही रहती हैं। कहीं सरकारी साधन-सुविधा रहने पर भी गरीबों की उन तक पहुंच नहीं रहती, तो कहीं रिश्वत दिए बिना सरकारी सुविधाओं का हक नहीं मिलता। बहुत सी खबरें ऐसी भी आती हैं कि रिश्वत देने से मना करने पर लाश चीरघर में पड़ी रहती है, और उसका पोस्टमार्टम भी तब तक नहीं होता, जब तक रिश्वत न दे दी जाए। सरकारी अस्पतालों में जान बचाने वाले इलाज के पहले भी रिश्वत मांगी जाती है, और कहीं कोई बीमार मुसाफिर रहे, तो भी उसे ट्रेन में बिना रिश्वत बैठने को जगह नहीं मिलती। इस तरह की और भी बहुत सी बातें हिन्दुस्तान में देखने मिलती हैं, और उनसे यही साबित होता है कि यहां लोगों की इंसानियत सच ही मर गई है, या कम से कम वह इंसानियत खत्म हो गई है जिसे लोग इंसानों की खूबी मानते हैं। इंसानों के भीतर की सारी नकारात्मक और हिंसक सोच को लोग इंसानों से परे की कोई बात साबित करना चाहते हैं, और उसके लिए हैवानियत जैसा एक शब्द गढ़ लिया गया है जो कि और कुछ नहीं है, इन्हीं इंसानों के भीतर की ही एक सोच है। हिन्दुस्तान इस कदर गैरजिम्मेदार और मतलबपरस्त देश हो गया है कि लोग गंदगी फैलाते यह नहीं सोचते कि उन्हीं की तरह के कुछ दूसरे इंसान अपनी जाति और गरीबी की वजह से पूरी जिंदगी इस गंदगी को साफ करते गुजार देंगे। लोग सार्वजनिक जगहों, सार्वजनिक चीजों को बर्बाद करते चलते हैं, और इस बात की तरफ से पूरी तरह बेपरवाह रहते हैं कि इसकी लागत उन्हीं पर आनी है। 

ऐसा लगता है कि इस देश में मंत्री, अफसर, जज, कारोबारी, और बाकी तमाम चर्चित लोगों के भ्रष्टाचार को देखकर लोगों के मन में अब लोकतांत्रिक मूल्यों, नियम-कायदों, इंसानियत, इन सबके लिए एक बड़ी हिकारत घर कर गई है। लोगों को लगता है कि जब बड़े-बड़े लोग बलात्कार करके घूम रहे हैं, तो उनके कहीं थूक देने को मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है? जब नेता, अफसर, ठेकेदार से सैकड़ों करोड़ रूपये का कालाधन बरामद हो रहा है, तो गरीबों से ईमानदारी से टैक्स पटाने की उम्मीद क्यों की जा रही है? जब हर सरकारी काम में परले दर्जे का भ्रष्टाचार दिख रहा है, तो फिर गरीब भी अपने-अपने स्तर पर कुछ बचाने की कोशिश क्यों न करें? ऐसा लगता है कि लोगों के सामने किसी किस्म की प्रेरणा नहीं रह गई है, नेक और अच्छा काम करने की जो बुनियादी इंसानियत लोगों में रहनी चाहिए थी, वह भी हिन्दू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित, औरत-मर्द के तनाव खड़े करके खत्म कर दी गई है। लोग अब किसी धर्म के हैं, किसी जाति के हैं, किसी प्रदेश के हैं, और किसी संगठन के हैं, लेकिन इंसान नहीं हैं। यह नौबत इस देश को एक घटिया देश बना चुकी है, और झूठे आत्मगौरव से परे यहां गौरव के लायक इंसानियत कम से कम गैरगरीबों में नहीं रह गई है। 

इस देश की पहचान एक बेरहम देश की हो गई है जो कि अपनी लड़कियों और औरतों को काट डाल रहा है। इस देश की पहचान एक हिंसक जाति व्यवस्था वाली जगह की हो गई है जहां पर दलित और आदिवासी कुचले जा रहे हैं। और चारों तरफ माहौल ऐसा बना दिया गया है कि लोगों के सामने इंसान बने रहना आखिरी प्राथमिकता रह गई है, या कि एक पूरी तरह से अवांछित बात बना दी गई है। इस देश में कहीं विश्वगुरू होने के दावे किए जा रहे हैं, कहीं इसका अमृतकाल आया हुआ बताया जा रहा है, कहीं गाय को गले लगाने का सरकारी फतवा जारी होता है, लेकिन दूसरे इंसानों से मोहब्बत करने का कोई सरकारी फतवा जारी नहीं होता, बल्कि नफरत को बढ़ावा देने की सरकारी कोशिशें जरूर दिखती हैं। एक फर्जी आत्मगौरव में जीते हुए इस आत्ममुग्ध देश को अपनी हिंसा का आत्मविश्लेषण करना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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