संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कांग्रेस के सामने चुनौती मोदी नहीं, बाकी विपक्ष से तालमेल बैठाना है...
26-Feb-2023 4:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   कांग्रेस के सामने चुनौती मोदी नहीं, बाकी विपक्ष  से तालमेल बैठाना है...

कांग्रेस का रायपुर का यह महाधिवेशन कई मायनों में ऐतिहासिक है। यह गांधी परिवार की सोनिया गांधी का लीडरशिप से संन्यास का मौका भी है, और यह मोटेतौर पर राजनीति से उनकी बाहर रवानगी की शुरुआत भी है। फिर यह इसी परिवार के राहुल गांधी के एक नए व्यक्तित्व के उभरने का मौका भी है। उन्होंने राजनीति में पिछले करीब दो दशक में जो कुछ हासिल किया था, उससे कहीं अधिक उन्होंने डेढ़ सौ दिनों की एक पदयात्रा में हासिल कर लिया है, और अब उन्हें लेकर वंशवाद या नासमझी की कोई बातें प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। एक पदयात्रा किस तरह किसी को परिवार के वंशज से उठाकर एक बड़ा नेता, और एक शानदार इंसान बना सकती है, इसकी मिसाल भारत जोड़ो यात्रा से सामने आई है। इसलिए कांग्रेस का यह महाधिवेशन राहुल गांधी के इस नए अवतार के साथ भी हो रहा है। फिर यह इस रौशनी में भी हो रहा है कि एक खुले चुनाव से कांग्रेस अध्यक्ष बनकर आए मल्लिकार्जुन खडग़े आज एक अभूतपूर्व स्वायत्तता से पार्टी चलाते दिख रहे हैं, और पार्टी की सबसे बड़ी कमेटी के चुनाव से गांधी परिवार ने अपने को अलग रखा है। सोनिया गांधी की रवानगी, एक नए अवतार में राहुल गांधी का आगमन, और परिवार के बाहर के एक अध्यक्ष के बीच कांग्रेस पार्टी तीन दिनों तक अपने वर्तमान और भविष्य पर चर्चा कर रही है। तीन राज्यों में ही सत्ता में सिमट गई कांग्रेस के लिए आज का यह इतना बड़ा आयोजन छोटा नहीं है, लेकिन इसमें जिन मुद्दों पर चर्चा हो रही है, क्या सचमुच वही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहेगी? 

एक वक्त था जब दस बरस से अधिक वक्त था सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए यूपीए की मुखिया भी थीं, और यूपीए की तमाम पार्टियां उनके साथ आराम से चलती थीं। लेकिन पिछले आठ बरस के मोदी राज ने यूपीए को खत्म कर दिया है, और अब 2024 के लोकसभा चुनाव तक कौन सा गठबंधन मोदी का मुकाबला करने के लिए खड़ा किया जा सकता है, यह सवाल देश के तमाम गैर-एनडीए दलों के सामने खड़ा हुआ है, और खासकर कांग्रेस के सामने, जिसका यह मानना है कि उसके बिना देश में कोई कामयाब विकल्प नहीं बन सकता, और ऐसे विकल्प का मुखिया कांग्रेस से परे किसी और पार्टी का नहीं हो सकता। आज कांग्रेस के सामने अपना घर सम्हालने की चुनौती बहुत बड़ी नहीं है, क्योंकि पार्टी छोडक़र कौन लोग भाजपा में जाएंगे, इसे कांग्रेस तय नहीं कर रही, भाजपा तय कर रही है। लेकिन एक बात जो कांग्रेस के तय करने की है, वह बाकी पार्टियों के साथ तालमेल करने, और अगले प्रधानमंत्री के लिए चेहरा तय करने की है। यह एक ऐसा जटिल मुद्दा है जिस पर आज कांग्रेस पर देश की ऐतिहासिक जिम्मेदारी एक अलग मांग करती है, और कांग्रेस का अपना स्वार्थ, या उसका अपना भविष्य एक अलग रास्ता सुझाता है। 

सोनिया गांधी और राहुल गांधी में यह एक बड़ा फर्क है कि सोनिया के मातहत चले यूपीए में तमाम गठबंधन और समर्थक दलों को सहूलियत लगती थी, लेकिन आज राहुल गांधी के साथ कई वजहों से वैसी बात नहीं दिखती है। यह कल्पना करें कि भारत जोड़ो यात्रा अगर सोनिया गांधी ने की होती, तो क्या उन्हें राहुल की भारत जोड़ो यात्रा से बाकी पार्टियों का बहुत अधिक समर्थन नहीं मिला होता? गैरभाजपाई पार्टियों के बीच एक अधिक मान्यता पाना आज कांग्रेस और राहुल गांधी, दोनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। आज सैद्धांतिक रूप से मोदी सरकार से लडऩे की बात कांग्रेस सरीखी किसी भी पार्टी का एक बड़ा मुद्दा होना स्वाभाविक है, लेकिन इस लड़ाई के लिए एक गठबंधन तैयार करना, कांग्रेस के लिए आज आसान नहीं दिख रहा है। इस एक मुद्दे पर हो सकता है कि कांग्रेस अधिवेशन जैसे मंच से कुछ अधिक तय न कर पाए, लेकिन आज इस अधिवेशन के मौके पर कांग्रेस के बारे में लिखते हुए हमें यही बात सबसे अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण लग रही है कि बाकी पार्टियों के साथ कांग्रेस का एक चुनावी तालमेल, गठबंधन, सहमति किस तरह हासिल किए जा सकते हैं। यह चुनौती बड़ी इसलिए भी है कि केन्द्र और राज्यों में, संसद और विधानसभाओं में कांग्रेस की ताकत के मुकाबले क्षेत्रीय पार्टियां इस तरह जगह बना चुकी हैं, कि उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को नाजायज कहना ठीक नहीं है। आज केन्द्र पर सत्तारूढ़ एनडीए के घटक दलों को छोड़ दें, तो बाकी पार्टियों में एनडीए का मुकाबला करने के लिए लीडरशिप का मुद्दा सबसे बड़ा दिख रहा है, राहुल गांधी, नीतीश कुमार, केसीआर, इनमें से कौन ऐसे गठबंधन के मुखिया हो सकते हैं, इस पर तमाम विपक्षी एकता टिकी रहेगी। आज देश में मोदी का मुकाबला करने के लिए महज अपनी पार्टी के लोगों को एक रखना जरूरी नहीं है, बल्कि मोदीविरोधी तमाम पार्टियों के लोगों को एक रखना जरूरी है, और रखने के पहले भी उन्हें एक करना जरूरी है। अब यही देखना होगा कि बाकी पार्टियों में राहुल के प्रति सहमति की जो कमी है, उसे दूर कैसे किया जा सकता है? क्या इसमें कांग्रेसाध्यक्ष खड़ग़े, और सोनिया गांधी भी सहयोग कर सकते हैं? क्या राहुल गांधी बहुत से मुद्दों पर एक कड़ा रूख लेने के बजाय विपक्ष के अधिक मान्यता प्राप्त नेता की तरह एक न्यूनतम आम सहमति वाला रूख भी रख सकते हैं, ऐसे बहुत से सवाल आज देश की राजनीति में खड़े हुए हैं। कांग्रेस अपना यह अधिवेशन को कई तरह की सैद्धांतिक बातों पर, और संगठन के कुछ मुद्दों पर निपटा ही लेगी, लेकिन इसके बाद एक असली संघर्ष सामने खड़े रहेगा कि 2024 के लिए बाकी पार्टियों के साथ एक बेहतर सहमति कैसे तैयार की जाए? और इस बात की कामयाबी से कांग्रेस और राहुल दोनों का भविष्य तय होगा।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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