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राजाओं के छत्तीसगढ़ में दर्ज एक राईस-किंग के उदय की कहानी
06-Mar-2023 3:38 PM
राजाओं के छत्तीसगढ़ में दर्ज एक  राईस-किंग के उदय की कहानी

डॉ. परिवेश मिश्रा
लम्बे समय तक चले अकाल ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में राजस्थान और गुजरात जैसे हिस्सों से अनेक लोगों को पलायन के लिए मजबूर किया। देश की पश्चिमी सीमा पर जोधपुर के पास भोजासर गांव के श्वेतांबर जैन धर्मावलम्बी वणिक सेठ श्री आसकरण श्रीश्रीमाल के तीन बेटे भी इनमें शामिल थे। आसपास के बीकानेर, चुरू, सीकर जैसे इलाकों से कलकत्ता पहुंचे कुछ लोग तब तक नयी शुरू हुई हावड़ा-बम्बई रेल लाईन के जरिये भारत के मध्य की ओर आकर बसने लगे थे। श्री आसकरण के बेटे भी रायपुर होते हुए पहले चालीस किलोमीटर दूर महानदी के किनारे राजिम, और कुछ ही सालों के बाद वहां से पचास किलोमीटर आगे जंगल मे खल्लारी नामक स्थान पर पहुंचे। तीनों भाईयों ने शुरुआत कपड़ों के व्यापार से की।

1877 में नागपुर में टाटा की एम्प्रेस मिल की शुरुआत के बाद 1892 में राजनांदगांव के राजा के प्रयासों से कलकत्ता की एक मैक्बेथ ब्रदर्स नामक ब्रिटिश कम्पनी ने वहां कपड़ा मिल स्थापित कर दी थी। उन दिनों राजनांदगांव छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा शहर था। श्रीमती इलीना सेन (‘इनसाइड छत्तीसगढ़’ में) के अनुसार ‘सीपी मिल’ नामक इस मिल को श्री जगन्नाथ शुक्ल ने खरीद लिया और मिल का नाम रखा ‘बंगाल-नागपुर-कॉटन (बीएनसी) मिल’। श्री जगन्नाथ शुक्ल श्री रविशंकर शुक्ल के पिता थे। रेल के कारण मिलों में उत्पादित कपड़ा रायपुर पहुंचने लगा था। और वहां से बैलगाडिय़ों पर कई दिन और घण्टों की यात्रा कर यह माल खल्लारी जैसे छत्तीसगढ़ के अंदरूनी इलाकों तक पहुंचता था।

यह क्षेत्र सडक़ों और आवागमन के आज के प्रचलित साधनों से विहीन, घने जंगलों वाला इलाका था। वन्य-जीवों के मामले में अति समृद्ध। रास्ते में रातें भी बितानी पड़ती थीं जहां चोर-लुटेरों से कहीं अधिक बाघ, भालू जैसे हिंसक वन्य प्राणियों से चौकसी प्राथमिकता होती थी। यह संयोग नहीं है कि अनेक दशकों तक सारंगढ़ समेत बाकी छत्तीसगढ़ में भी बीएनसी मिल की बनी और बहुत लोकप्रिय रही सफेद धोती ‘बाघ-छाप’ ही कहलाती थी।

गांव-गांव घूमकर साप्ताहिक बाजारों में कपड़े बेचने का काम चल रहा था कि भाईयों के बीच अनबन हो गयी। एक भाई धनराज जी एक दिन पत्नी और पांच बेटों वाले अपने परिवार को लेकर घर छोड़ पैदल निकल गये और उसी जंगल से घिरे कोई 15-20 किलोमीटर दूर खोपली गांव पहुंच गये। यहां बसकर वही कपड़े का काम फिर जमाया।

जब सेठ आसकरण जोधपुर के भोजासर गांव से अपने बेटों को छत्तीसगढ़ रवाना कर रहे थे तब उन्हें मालूम नहीं था कि भारत के पूर्वी तट पर हो रही एक महत्वपूर्ण घटना छत्तीसगढ़ की आर्थिक सामाजिक दशा को हमेशा के लिए बदल देने की तैयारी कर रही थी।
उन्नीसवीं सदी का अंत होने से पहले अंग्रेज़ों ने कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में बंदरगाहों को रेल मार्ग से आपस में जोड़ दिया था। लेकिन भारत के मध्य क्षेत्रों को समुद्र तट से जोडऩा बाकी था। इन क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ प्रमुख था जहां का मैंगनीज़ अयस्क इंगलैंड भी पहुंचाना था और अमेरिका भी। तिलहन, जूट, नील जैसे अन्य अनेक माल का निर्यात भी सुगम करना था।

समाधान के रूप में मौज़ूद था विशाखापत्तनम बंदरगाह। इसका इस्तेमाल तो सैकड़ों सालों से हो रहा था लेकिन यह बंदरगाह छोटा था। बंगाल-नागपुर रेल कम्पनी तब तक वहां वाल्टेयर नाम से रेलवे-स्टेशन बना चुकी थी। उसी कम्पनी ने विशाखापत्तनम बंदरगाह को बड़े जहाजों के लायक बनाने का काम शुरू किया। साथ ही तत्काल रायपुर को वाल्टेयर से जोडऩे के लिए एक नयी रेल लाईन बिछाने का काम भी शुरू कर दिया गया। जिन दिनों सेठ आसकरण के बेटे धनराज जी अपना कारोबार खपोली में बढ़ा रहे थे, यह नयी रेल लाईन रायपुर से बिछना शुरू होकर और महानदी पार कर कोई अस्सी किलोमीटर दूर इनके खपोली गांव से कोई तीन किलोमीटर दूरी तक पहुंच गयी। पता चला जंगल में उस स्थान पर एक स्टेशन भी बन रहा है। स्टेशन के पास कोई आबादी तो थी नहीं सो उसका नामकरण करने के लिए कम्पनी के अधिकारियों ने अपनी बुद्धि और कल्पनाशीलता का उपयोग किया। जिस भौगोलिक स्थान पर स्टेशन बन रहा था वह ऐसा स्थान था जो निचले लेवल पर था। पानी का बहाव ऐसी भूमि की दिशा में होता है और छत्तीसगढ़ में ऐसे स्थान को ‘बहरा’ जमीन कहा जाता था। इलाके में बाघ इफरात में हैं यह तो वहां काम करने वालों ने स्वयं जान ही लिया था सो स्टेशन का नामकरण हो गया ‘बाघबहरा’।

इलाके में धान की प्रचुरता हमेशा से रही है। तब भी थी। लेकिन चावल बाजार में नहीं बेचा जाता था। जिस को जब जितनी जरूरत हो घर में कूट लिया जाता था। रेल लाईन और स्टेशन बनाने बनाने वाले ठेकेदार अपने साथ बड़ी संख्या में मजदूरों और मिस्त्रियों के गैंग लेकर चलते थे। उनके साथ पटरियों पर आगे बढ़ते जाने वाली एक पोर्टेबल राइस मिलिंग मशीन भी होती जिसे एक अलग मोटर से चलाया जाता था। इस तरह धान से चावल प्राप्त करने की मशीन को इलाके में पहली बार देखा गया।

सेठ धनराज जी के बड़े बेटे श्री खेमराज ने अपने व्यावसायिक बुद्धि और उद्यमशीलता के बल पर इस मशीन के साथ अपने और अपने इलाके के भविष्य को जोडक़र अपार संभावनाओं को आंका और ठेकेदार के पीछे पडक़र वैसी ही एक मशीन अपने लिए मंगवा ली।
यह मशीन दरअसल वह नींव का पत्थर साबित हुई जिस पर आगे चलकर छत्तीसगढ़ में राइस मिलों का साम्राज्य खड़ा हुआ।

नये बने स्टेशन के आसपास की ज़मीन खरीदकर सेठ खेमराज ने अपना घर बनाया। मिल की स्थापना की, काम करने वालों के लिए घर बनाए, अस्पताल और पुलिस स्टेशन बने, दुकानें बनीं, और इस तरह बागबहरा नाम की एक बस्ती पैदा हुई जिसे आज कोई 25-30 हजार आबादी वाली नगर पंचायत का दजऱ्ा प्राप्त है।

सेठ खेमराज ने अपने भाईयों - विशेषकर सेठ नेमीचंद के साथ मिलकर रायपुर से वाल्टेयर की रेल लाइन के साथ साथ चावल और तेल मिलों की कतार खड़ा करने का सपना देखा और उसे पूरा करने में लग गये। कुछ मिलें स्वयं खड़ी कीं किन्तु अधिकांश में राजस्थान से आये अन्य परिवारों के साथ जानकारी, अनुभव और संसाधन साझा कर भागीदारी की। देखते देखते खरियार रोड, केसिंगा, भीमखोज (खल्लारी का स्टेशन), नवापारा-राजिम, महासमुंद, बसना जैसे अनेक स्थानों में मिलें शुरू होने लगीं। विशाखापत्तनम में 1933 में लॉर्ड विलिंगडन के हाथों बंगाल नागपुर रेल्वे द्वारा बनाए गए बंदरगाह का उद्घाटन हो चुका था। वहां भी सेठ नेमीचंद ने एक तेल मिल स्थापित कर दी।

और फिर आया 1940 का साल जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होते ही ब्रिटेन में अनाज की कमी पडऩा शुरू हो गयी थी। कुछ ही समय में युद्ध क्षेत्र का विस्तार बर्मा में हो गया। भारत पर दबाव बना कि जहाजों से अधिक से अधिक अनाज भेजा जाए। यह अपने किस्म का पहला मौका था। सन 1940-41 में मध्य छत्तीसगढ़ में भी अवर्षा के कारण सूखे की विकराल स्थिति बनी थी।

उस जमाने में आज की तरह की फूड कार्पोरेशन जैसी कोई एजेंसी नहीं थी। अंग्रेजों के लिए श्रीश्रीमाल भाईयों की मदद अपरिहार्य हो गई। सेठ खेमराज और छोटे भाई सेठ नेमीचंद ऐसे कॉमन सूत्र थे जो इलाके की सारी राईस मिलों को आपस में बांधते थे। अंग्रेजों ने इन्हें अपना ऐजेन्ट नियुक्त किया। इनके जिम्मे था रायपुर जिले के धमतरी, भाटापारा, नावापारा, राजिम, तिल्दा, नेवरा, बागबहरा, महासमुंद, आरंग, बसना और रायपुर जैसे स्थानों में फैली लगभग पचास राईस मिलों से हर रोज आवश्यक मात्रा में चावल एकत्र करना, परिवहन कर विभिन्न स्टेशनों पर पहुंचाकर गंतव्य के लिए डिस्पैच करना, सरकार से रायपुर स्थित इम्पीरियल बैंक (जयस्तंभ के किनारे स्थित अब का स्टेट बैंक) से भुगतान कलेक्ट करना और मिलों तक पैसों का वितरण सुनिश्चित करना। 

यही वह समय था जब सेठ नेमीचंद श्रीश्रीमाल को ‘राइस-किंग’ की अनौपचारिक उपाधि मिली। आजादी के बाद छत्तीसगढ़ समेत मध्यप्रदेश में राइस मिलों की संख्या में इजाफा होता गया और साथ ही राइस मिल मालिकों के प्रवक्ता और प्रतिनिधि के रूप में सेठ नेमीचंद के नाम के साथ ‘राईस-किंग’ का तमगा मजबूत होता चला गया।  

छत्तीसगढ़ में इस परिवार को आये लगभग सवा सौ साल बीत चुके हैं। सेठ आसकरण श्रीश्रीमाल की चौथी पीढ़ी के सदस्य श्री स्वरूपचंद जैन ने अपने परिवार के सफर को हाल ही में एक पुस्तक ‘द जॉय ऑफ गिविंग’ में लिपिबद्ध किया है। इस लेख में पुस्तक से संदर्भ लिए गये हैं।

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