विचार / लेख

कनक तिवारी
दिनांक 2 मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अनुच्छेद 324 की व्याख्या और पुनरर्चना करते फैसला किया। अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सीधे केन्द्र सरकार अर्थात प्रधानमंत्री के नियंत्रण से बाहर होकर तीन सदस्यों की सिफारिश के आधार पर की जाएगी। सिफारिश समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के चीफ जस्टिस होंगे। बेंच में न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ, अजय रस्तोगी, हृषिकेश राय और सी. टी. रविकुमार थे। जानना जरूरी है चुनाव आयोग संबंधी संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुसार निर्वाचन आयोग, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उतने अन्य निर्वाचन आयुक्तों से यदि, कोई हों, जितने राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे, मिलकर बनेगा। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
आजाद भारत में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके जरिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुुनावों का संचालन करना लोकतंत्र की स्थापना और मजबूती के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। संविधान के निर्देश के बावजूद पिछले 70 वर्षों में संसद में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके कर्तव्य पालन के कानून बनाने की जहमत नहीं उठाई गई। दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र में चुनाव केन्द्र सरकार के मुखिया के हुक्मशाही के तहत लगभग प्रतिबद्ध चुनाव आयोग द्वारा कराए जाने का प्रावधान राजनेताओं ने जीवित रखा। प्रधानमंत्री नेहरू पर चुनावों को प्रदूषित करने का आरोप नहीं लगा क्योंकि नेहरू की जम्हूरियत में आस्था किसी बाहरी व्यक्ति की तरह नहीं थी। वे ही संविधान की मूल भावना के प्रारूपकार थे। धीरे धीरे चुनाव आयोग की निष्पक्षता धूमिल होती गई। अब तो नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में पक्षपात का आसमान सिर पर उठा लिया गया है। मौजूदा प्रमुख चुनाव आयुक्त अरुण गोयल केन्द्रीय सचिव रहे हैं। उनका इस्तीफा कराकर उन्हें आनन फानन में लगभग चौबीस घंटे में ही प्रमुख चुनाव आयुक्त बना दिया गया। उसका भरपूर डिविडेंड भाजपा के सिद्धांत पुरुष को मिल रहा है। हालिया जितने चुनाव हुए, वे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के पक्ष में चुनाव आयोग की भूमिका को पक्षपात से रंगते नजऱ आ रहे हैं।
भारत को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत संविधान बनाने की प्रेरणा मिली। उस अंगरेजी अधिनियम में तथाकथित चुनाव आयोगों की नियुक्ति का अधिकार केन्द्र सरकार को ही रहा। भारत की संविधान सभा यदि चाहती तो तय कर सकती थी कि चुनाव आयोग किस अधिनियम या कानून के तहत स्थापित हो और निष्पक्ष कार्यसंचालन किस तरह सुनिश्चित किया जाए। संवैधानिक पुरखों के प्रति सम्मान रखने भी कहना पड़ेगा कि उनसे कई तरह की भूल चूक हुई। भले ही सद्भावनाजन्य हुई होगी। उसका खमियाजा लोकतंत्र को भुगतना पड़ा है।
संविधान सभा की कार्यवाही में 15 जून और 16 जून 1949 को चुनाव आयोग की स्थापना को लेकर गंभीर बहस हुई। मजा यह कि बहस के ठीक पहले भारसाधक सदस्य डॉ. अंबेडकर ने पहले के प्रस्तावित प्रारूप को काफी बदल दिया। इस पर सदस्यों को कई तरह की आपत्तियां हुईं। तेज-तर्रार सदस्य शिब्बनलाल सक्सेना ने दो टूक कहा चुनाव आयोग को कार्यपालिका अर्थात केन्द्र सरकार से बिल्कुल अलग रखा जाना चाहिए। राष्ट्रपति को चुनाव आयोग की नियुक्ति करने का अधिकार दिया जाता है। तो साफ क्यों नहीं कहते कि प्रधानमंत्री ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेगा। जो प्रधानमंत्री खुद चुनाव लडक़र अपने पद पर आता है। उसकी यह इच्छा क्यों नहीं होगी कि उसकी सल्तनत कायम रहे, और उसके लिए ऐसा चुनाव आयोग हो जो उसकी मर्जी से चले। फिर वे स्वतंत्र होकर कैसे काम कर सकते हैं। सक्सेना ने दो टूक कहा आज वैसी स्थिति नहीं है। मुमकिन है अगला कोई सत्ताधारी दल अपने चुनाव में सुलभ होने के लिए अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वाले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करे। सक्सेना ने यहां तक कहा कि उसे चुनाव आयुक्त बनाएं जो राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों को मिलाकर दो तिहाई सदस्यों का समर्थन हासिल कर सके। ऐसी स्थिति में एक से अधिक राजनैतिक पार्टियों का उसे समर्थन लेना पड़ेगा। एच. वी. पाटस्कर को आपत्ति थी कि राज्यों के चुनाव के लिए भी यदि सारी ताकत केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री की मु_ी में बंद की जा रही है तो भारत राज्यों का संघ कहां हुआ?
लगता है कि अब सब कुछ केन्द्र को ही करना होगा। राष्ट्रपति प्रदेशों के लिए अलग निर्वाचन आयुक्त क्यों नहीं नियुक्त कर सकते? हालांकि इसके उलट कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और नज़ीरुद्दीन अहमद वगैरह ने अंबेडकर की सिफारिशों के पक्ष में अपनी राय जाहिर की।
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और अधिकार का मामला कई उपसमितियों में भी आया था। अल्पसंख्यक उपसमिति में 17 अप्रैल 1947 को स्वीकृत सिफारिशों में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सुझाव भी था कि ऐसे चुनाव आयोगों में अल्पसंख्यकों को कम से कम आबादी के अनुपात में आरक्षण नियुक्ति में मिलना चाहिए। अंबेडकर चुनाव के अधिकार को मूल अधिकारों में शामिल करने के पक्ष में रहे हैं। फिर भी भारत की संसद ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार आखिरकार केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया। उसका खमियाजा देश को भुगतना तो पड़ रहा है।
ऐसे हालात में कुछ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं और काफी बहस मुबाहिसा हुआ। कई पुराने मुकदमों का हवाला दिया गया और संविधान पीठ ने प्रजातांत्रिक मूल्यों की महत्ता और उनके अमल में लाए जाने को लेकर सार्थक विचार विमर्श किया। अब सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले से असहमत और असहज केन्द्र सरकार को क्या करना होगा? बंद मु_ी लाख की होती है लेकिन खुल गई तो? अरुण गोयल जैसे चुनाव आयुक्त और अरुण मिश्रा जैसे सुप्रीम कोर्ट जज संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करने के कारण ही तो पुष्पित, पल्लवित और प्रोन्नत हुए हैं। प्रधानमंत्री की मुस्कान में यह फसल कभी कभी लहलहाती रहती है। भारत और न्यायिक और अर्ध न्यायिक संस्थाओं ने अपने यश और अपने सम्मान से बेरुख रहकर कई गुल गपाड़े किए हैं। गनीमत है भारत के सुप्रीम कोर्ट को लगातार सोने की आदत नहीं है। वैसे जागना भी तो चाहिए। फिलवक्त फिसल पड़ेे तो हर गंगा कहने में जनता को सुप्रीम कोर्ट का साथ तो देना चाहिए।