संपादकीय

आरएसएस से जुड़ी एक संस्था ने गर्भ संस्कार नाम का एक कार्यक्रम शुरू किया है जिसके तहत महिला चिकित्सकों को यह ट्रेनिंग दी जा रही है कि वे किस तरह गर्भवती महिलाओं को भगवान राम, हनुमान, शिवाजी, और स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पढऩे को कहें ताकि बच्चे को गर्भ में ही संस्कार मिल सके। संवर्धिनी न्यास नाम की यह संस्था आरएसएस की महिला ईकाई राष्ट्र सेविका समिति से जुड़ी हुई है, और इसका कहना है कि होने वाले बच्चों में हिन्दू शासकों के गुण आ सकें, इसलिए यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इसमें दिल्ली के एम्स की एक डॉक्टर भी शामिल थी जिसका कहना है कि जैसे ही कोई जोड़ा बच्चे के बारे में सोचे, वैसे ही गर्भ संस्कार शुरू कर देना चाहिए। इस कार्यक्रम में शामिल लोगों का दावा है कि गर्भ संस्कार ठीक से किया जाए तो होने वाले बच्चे का डीएनए भी बदला जा सकता है। कार्यक्रम में शामिल डॉक्टरों ने एक से बढक़र एक अवैज्ञानिक बातें कहीं, जो कि जाहिर है उनके डॉक्टर होने से बहुत से लोगों के बीच विश्वसनीय मान ली जाएगी। दिलचस्प बात यह भी है कि अभी दो दिन पहले यह कार्यक्रम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किया गया, जहां जेएनयू की विसी शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित इसकी अतिथि बनाई गई थीं, जो कि कार्यक्रम में नहीं पहुंचीं। यह संस्था हर बरस ऐसे एक हजार गर्भ संस्कारी बच्चों का लक्ष्य लेकर चल रही है, और इसका मानना है कि इससे हिन्दुस्तान की पुरानी शान फिर से कायम हो सकेगी।
किसी नस्ल को दूसरी नस्लों से बेहतर बताने का एक सिलसिला हिटलर के समय से दुनिया का इतिहास गढ़ चुका है। अब हिन्दुस्तान के हिन्दुत्व जैसे तबके में जातियों के आधार पर शुद्धता, और श्रेष्ठता की जिद भी आक्रामक होते चल रही है, जो कि नई नहीं है, और मनुवादी जाति व्यवस्था के समय से यह रक्तशुद्धता का काम करती आ रही है। अब इसमें छोटी सी दिक्कत यह है कि अपनी कट्टर धार्मिक सोच, जातिवाद, राष्ट्रवाद, और साम्प्रदायिक नफरत के चलते विज्ञान से जुड़े हुए डॉक्टर भी ऐसी मुहिम में शामिल हो रहे हैं जो कि नफरत को एक अलग विश्वसनीयता देती है। इन संगठनों की सोच को देखें, इनके पूजनीय चरित्रों को देखें, तो यह साफ हो जाता है कि यह किस तरह एक धर्म की श्रेष्ठता, और उस धर्म के भीतर भी सत्ता की ताकत रखने वाली कुछ जातियों की श्रेष्ठता का अभियान है। आज देश में वैज्ञानिक सोच को मार-मारकर खत्म करने का जो सिलसिला पिछले कुछ बरसों से चल रहा है, और सत्ता की राजनीति की मेहरबानी से बहुत हद तक कामयाब भी हो चुका है, उसकी वजह से अब लोग धर्म, पुराण, आध्यात्म, और पुरानी भारतीय तथाकथित संस्कृति के नाम पर किसी भी अवैज्ञानिक बात पर भरोसा करने के लिए एक पैर पर खड़े हैं। यह नौबत एक झूठे आत्मगौरव से संतुष्ट समाज की रचना भी कर रही है, और ऐसी संतुष्टि की वजह से लोगों के लिए अब कोई असल कामयाबी हासिल करना जरूरी भी नहीं रह गया है।
अभी कुछ ही दिन पहले भारतीय मूल के नोबल विजेता वेंकटरमन रामाकृष्णन ने सलाह दी थी कि भारत को मांस पर बहस छोडक़र शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा था कि कौन कैसा मांस खाते हैं इस पर साम्प्रदायिक दुश्मनी पालने के बजाय विज्ञान और तकनीक की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। उनकी सलाह थी कि अगर भारत इनोवेशन, विज्ञान, और तकनीक में निवेश नहीं करेगा तो वह दुनिया की दौड़ में चीन से पीछे छूट जाएगा। विदेश में बसे हुए रामाकृष्णन को 2009 में नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने अभी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कहा था कि भारत चीन से पहले ही काफी पिछड़ गया है, 50 साल पहले इन दोनों देशों को देखें तो दोनों की तुलना हो सकती थी, तब भारत चीन से थोड़ा बेहतर ही कहा जा सकता था, लेकिन अब नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि आजादी के पहले हिन्दुस्तान में विश्वस्तरीय वैज्ञानिक हुए, और यह सिलसिला आजादी के बाद भी कुछ समय तक नेहरू की वजह से चला जो कि विज्ञान में दिलचस्पी रखते थे, और जिन्होंने उत्कृष्ट संस्थान खड़े किए। अब आज के वैज्ञानिकों की सोच से परे अगर भारत के इतिहास के, और हिन्दुत्ववादियों के सबसे पसंदीदा राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर को देखें, तो उन्होंने खुलकर लिखा था कि गाय पूजनीय नहीं है, गाय सिर्फ एक उपयोगी जानवर है। उन्होंने लिखा था गाय एक ऐसा पशु है जिसके पास मूर्ख से मूर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती, गाय को दैवीय कहते हुए मनुष्य से इसे ऊपर मानना मनुष्य का अपमान है। उनका कहना था कि मनुष्य के लिए गाय जब तक उपयोगी है उसकी हत्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब वह उपयुक्त न रह जाए तब वह हानिकारक हो जाएगी, और उस स्थिति में गोहत्या भी आवश्यक है। आज के भाजपा और संघ परिवार के एक सबसे बड़े राष्ट्रवादी प्रतीक सावरकर का कहना था कि गाय के गले में घंटी बांधना है तो उसी भावना से बांधनी चाहिए जैसे कि कुत्ते के गले में पट्टा बांधा जाता है, भगवान के गले में हार डालने की भावना से यह घंटी नहीं बांधनी चाहिए। उन्होंने कुत्ते के अलावा गधे से भी गाय की तुलना की थी।
अब सवाल यह उठता है कि हिन्दुत्ववादियों में भी एक वैज्ञानिक सोच रखने वाले सावरकर की अच्छी तरह दर्ज लिखी हुई इन बातों की चर्चा पर भी उनके आज के प्रशंसक भडक़ने लगते हैं। और विज्ञान के बैनरतले वे एक ऐसा अंधविश्वास फैला रहे हैं, जिसके बारे में उनका कहना है कि उससे डीएनए भी बदल सकता है। आज जो लोग धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिक नफरत के आधार पर भारत के एक नामौजूद इतिहास पर गर्व करते हुए इस तरह के अभियान को अपनी डॉक्टरी की विश्वसनीयता भी दे रहे हैं, उन्हें कम से कम उस विज्ञान के बारे में भी सोचना चाहिए जिससे वे रोजी-रोटी कमाते हैं, समाज में इज्जत पाते हैं। आज हिन्दुस्तान के लोगों के सामने असल जिंदगी की जो दिक्कतें हैं, उनकी तरफ से ध्यान हटाने के लिए रात-दिन कई तरह के शिगूफे खड़े किए जा रहे हैं। लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि आज के मुकाबले की दुनिया में वही देश टिक पाएंगे जो कि एक वैज्ञानिक और उदारवादी सोच से आगे बढ़ेंगे। कट्टर और धर्मान्ध सोच लोगों को उनकी अपनी संभावनाओं से कोसों पीछे रखेगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)