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यहां बिकती हैं जानलेवा दवायें
13-Mar-2023 11:57 AM
यहां बिकती हैं जानलेवा दवायें

-जेके कर

दर्द निवारक तथा बुखार की दवा निमेसुलाइड बंग्लादेश से लेकर श्रीलंका तक में प्रतिबंधित है परन्तु भारत में धड़ल्ले से बिकती हैं. इसके अलावा विकसित देश अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड में प्रतिबंधित है लेकिन भारत के हर गली मुहल्ले की दवा दुकान से आप इसे खरीद सकते हैं. जाहिर है कि दवा कंपनियां मुनाफे के लिये इसे बेच रही है वह भी नियामक संस्था को गलत तरह से सूचनायें देकर. इस दवा से एक्यूट हेपेटाइटिस होता है तथा लीवर पर इसका खराब असर पड़ता है. उल्लेखनीय है कि बुखार तथा सामान्य दर्द के लिये इससे बेहतर दवा पैरासिटामाल 500 मिलीग्राम उपलब्ध है जिसका मूल्य भी प्रति गोली ₹ 1 है.

भारत में इसे बच्चों के लिये प्रतिबंधित किया गया था लेकिन बाद में यह फिर से बिकने लगा है. गौरतलब है कि 12 फरवरी 2011 को केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिये इसे प्रतिबंधित कर दिया था परन्तु माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से फिर से यह बिकने लगा है.

हां, इससे दवा कंपनियों को भरपूर मुनाफा होता है. अब इसकी भी जरा तहकीकात कर लें. निमेसुलाइड का एपीआई के 1 किलोग्राम का कुछ दिनों पहले तक का बाज़ार भाव था ₹ 1,300. इस 1 किलो से निमेसुलाइड की 100 मिलीग्राम की 10,000 गोलिया बन सकती है. इस तरह से हर निमेसुलाइड की गोली में मात्र 13 पैसे का ही एपीआई लगता है. जबकि खुले बाज़ार में गोली बिकती है तकरीबन ₹ 9 में. भारत में यह दवा हर साल कई सौ करोड़ रुपये की बिकती है.

आजकल तो ई-फार्मेसी के माध्यम से भी इस दवा को बेचा जा रहा है. जहां पर इसका मूल्य ₹92.15 प्रति 10 गोली की कीमत है. इसी के साथ जो सूचना दी गई है उसमें कहा गया है कि इससे उल्टी तथा दस्त हो सकता है. साथ में इसके प्रतिकूल प्रभाव के बारे में कहा गया है कि "Most side effects do not require any medical attention and disappear as your body adjusts to the medicine. Consult your doctor if they persist or if you’re worried about them." जाहिर है कि लीवर को होने वाले नुकसान के बारें में नहीं बताया जा रहा है. एक कहावत है कि 'जहां से बाज़ार की उत्पत्ति हुई वहीं पर मानवता ने दम तोड़ दिया' कोई गलत कहावत नहीं है.

निमेसुलाइड का ईज़ाद अमरीकी दवा कंपनी थ्रीएम ने किया था परन्तु इसके दुष्प्रभाव को देखते हुये इसे वहां बेचने की अनुमति नहीं दी गई. जब अमरीका में इस दवा को अनुमति नहीं मिली तो इसे स्विटजरलैंड की दवा कंपनी Helsinn को बेच दिया गया. यह जानना दिलचस्प है कि इस दवा कंपनी को भी स्विटजरलैंड में इस दवा को बेचने/उपयोग करने की अनुमति नहीं मिली. फिर इसे Boehringer नामक कंपनी को बेच दिया गया, जिसने 1985 में इटली में इससे संबंधित प्रयोग किये. किसी तरह इस दवा को स्विटजरलैंड में अनुमति इस शर्त के साथ मिली कि यह दवा किसी भी परिस्थिति में बच्चों के लिये उपयोग में नहीं लाई जायेगी.

भारत में किसी भी नई दवा को बेचने के लिये ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया से अनुमति लेनी पड़ती है. अनुमति के लिये भारत में पशुओं और मनुष्यों पर किये गये प्रयोग और उन पर होने वाले प्रभाव की रिपोर्ट देनी पड़ती है. लेकिन निमेसुलाइड के मामले में न्यूजीलैंड की एक कंपनी Adis International Ltd. द्वारा किये गये परीक्षण रिपोर्ट को जमा करा दिया गया और उसे स्वीकार भी कर लिया गया. चौंकाने वाली बात ये है कि निमेसुलाइड न्यूजीलैंड में ही प्रतिबंधित है.

लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि आखिर जब देश में पहले से ही बुखार के लिये पैरासिटामाल जैसी दवाइयों के विकल्प उपलब्ध थे तो फिर किन कारणों से इस प्रतिबंधित दवा को भारत में प्रवेश की अनुमति मिली ? इसका जवाब बहुत सीधा है कि निमेसुलाइड, दवा कंपनियों के लिये मुनाफेदार उत्पाद है और भारतीय कानून के चोर दरवाजे ऐसे मुनाफे के लिये ही तो बने हैं !

कई बार निमेसुलाइड के पक्षधर यह सवाल उठाते हैं कि अगर निमेसुलाइड इतनी खतरनाक है तो इसके दुष्प्रभाव तो अब तक भारत में नजर आने चाहिये थे. लेकिन बहुत भोलेपन से इस तरह के सवाल उठाने वाले यह बात बेहतर तरीके से जानते हैं कि भारत में अधिकांश मामलों में मरीजों के मर्ज और इलाज का कोई ब्यौरा नहीं रखा जाता. कोई मरीज बुखार आने पर एक चिकित्सक के पास जाता है तो खांसी की शिकायत होने पर किसी दूसरे चिकित्सक के पास. भारतीय मरीज आमतौर पर अपने इलाज की पर्चियों को भी संभाल कर नहीं रखता. ऐसे में अगर किसी मरीज का यकृत काम करना बंद कर दे तो उसे निमेसुलाइड से जोड़ कर, उसके अध्ययन का कोई तरीका हमारे पास नहीं है. ऐसे में भला निमेसुलाइड की गड़बड़ियों की जांच ही कहां संभव है ?

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