संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राईस मिलर अफवाहबाजों जितने बेवकूफ नहीं कि कई गुना महंगा प्लास्टिक मिलाएं
17-Mar-2023 5:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राईस मिलर अफवाहबाजों  जितने बेवकूफ नहीं कि कई  गुना महंगा प्लास्टिक मिलाएं

यह दौर सूचना की सुनामी का दौर है। जिस तरह कई बरस पहले आई समुद्री सुनामी में बहुत से देशों के किनारे तबाह हो गए थे, और अनगिनत मौतें हुई थीं, उसी तरह आज खबरों, सूचनाओं, अफवाहों, और साजिशों की सुनामी आई हुई है, और उस अस्थाई समुद्री सुनामी के मुकाबले यह सुनामी तो स्थाई हो गई है। लोग तरह-तरह के मेडिकल दावे वॉट्सऐप पर पाते हैं, और उसे अंधाधुंध आगे बढ़ाना इस जिम्मेदारी से शुरू कर देते हैं कि मानो वे दुनिया के अकेले डॉक्टर हैं, और पूरी दुनिया को ठीक करके रख देंगे। नतीजा यह होता है कि इनके झांसे में आकर बहुत से लोग डायबिटीज, या किडनी जैसी गंभीर बीमारियों की दवाएं लेना भी बंद करके प्राकृतिक चिकित्सा शुरू कर देते हैं, या घरेलू नुस्खों को आजमाने लगते हैं, जड़ी-बूटियों या आयुर्वेदिक दवाईयों के किसी बेवकूफ के भेजे गए दावों पर अमल करने लगते हैं। बहुत से डॉक्टर इस बात को जानते हैं कि उनके कई मरीज ऐसे झांसों में आकर बुरी हालत में पहुंचकर उनके पास दुबारा आते हैं, और तब तक बहुत सा नुकसान हो चुका रहता है। यह तो बात मेडिकल दावों की हुई, हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में हजार किस्म के दूसरे धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के, राजनीतिक कटुता के, संविधान की बात करने वालों के विरोध के अभियान चलते रहते हैं, और अब अंधभक्तों और अंधविश्वासियों की हालत यह हो गई है कि वे इस तथाकथित सोशल मीडिया को भी मीडिया में आई खबर बताकर आगे बढ़ाते रहते हैं। चूंकि टेक्नालॉजी ने समाचारों और सूचनाओं को आंधी-तूफान की रफ्तार से फैलाना सबको मुहैया करा दिया है, तो अब कहीं किसी के नग्न या अश्लील वीडियो को किसी और का बताकर फैलाना इतना आसान हो गया है, और लोगों में यह काम करने की ‘जिम्मेदारी’ की भावना इतनी बढ़ गई है कि वे देश को बचाने के अंदाज में अफवाहों को फैलाते रहते हैं। और सोशल मीडिया, और सोशल मीडिया के नाम पर पनप चुकी मैसेंजर सर्विसों का मानसिक दबाव मीडिया पर इतना अधिक रहता है कि टीवी चैनल और यहां तक कि अखबार भी ऐसी अफवाहों को आगे बढ़ाने में लग जाते हैं कि सनसनी के गलाकाट मुकाबले में कहीं पीछे न रह जाएं। 

अब छत्तीसगढ़ में एक ऐसी अफवाह सोशल मीडिया और मैसेंजर सेवाओं से होते हुए मीडिया कहे जाने वाले टीवी-अखबार में पहुंची हुई है जिससे कि लोगों का अपार नुकसान हो रहा है। आए दिन खबरें आती हैं कि राशन के चावल में प्लास्टिक का चावल खपाया जा रहा है। छोटी-छोटी जगहों से आने वाली ऐसी खबरों पर विधायक भी बयान देने लगे हैं, सरकार से जांच की मांग करने लगे हैं, और बड़े-बड़े शहरों में बैठे बड़े-बड़े संपादक भी प्लास्टिक के चावल की खबरों को छाप रहे हैं। इस बारे में एक नगरपालिका अध्यक्ष रहे, और राईस मिल मालिक विजय गोयल ने गलतफहमी दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने यह साफ किया है कि केन्द्र सरकार की एक योजना के तहत कुपोषण और एनीमिया को दूर करने के लिए सरकारी राशन के चावल को फोर्टिफाइड किया गया है। इसके लिए अलग से मिलें बनाई गई हैं जो कि चावल को फोर्टिफाइड करती हैं, उनमें सूक्ष्म पोषक तत्वों को मिलाया जाता है, आयरन विटामिन-20, फोलिक एसिड जैसे तत्व डाले जाते हैं। फिर सरकारी योजना और नियम के तहत तमाम राईस मिलों के लिए यह जरूरी है कि वे अपने मिल किए गए चावल में एक फीसदी ऐसा फोर्टिफाइड चावल मिलाएं ताकि हर घर में पहुंचने वाले चावल में ऐसे दाने मिले हुए रहें। 

अब सोशल मीडिया और गैरजिम्मेदार वॉट्सऐप-संदेशों की मेहरबानी से  कुछ अलग रंग के हो जाने वाले ऐसे दानों को प्लास्टिक का चावल करार दिया जा रहा है, और बहुत सी महिलाएं इस झांसे में आकर चावल साफ करते हुए ऐसे दानों को निकालकर फेंक देती हैं। सरकार का यह महंगा कार्यक्रम कचरे में चले जा रहा है, और आम लोगों की सेहत को इससे जो फायदा होना था, वह धरा रह जा रहा है। लोगों को यह याद दिलाना जरूरी है कि जिस तरह नमक में आयोडीन मिलाकर लोगों को घेंघारोग से बचाया गया है, उसी तरह ऐसे चावल से लोगों को एनीमिया से लेकर कुपोषण तक से बचाया जा रहा है। अब एक सनसनीखेज खबर बनाने के फेर में लोग और अखबार दोनों ही इस बात को अनदेखा कर दे रहे हैं कि 20-25 रूपये किलो के राशन के चावल में सौ-पचास रूपये किलो वाले प्लास्टिक से दाने बनाकर मिलाने की बेवकूफी कौन करेगा? मिलावट करने वाले लोग अफवाहबाज लोगों जितने बेवकूफ नहीं रहते कि कई गुना अधिक दाम की मिलावट करें। 

सरकार को यह चाहिए कि ऐसी अफवाह फैलाने वाले कुछ लोगों पर एक प्रतीकात्मक कार्रवाई करके उसका प्रचार करे ताकि बाकी लोगों की अफवाहबाजी पर रोक लग सके। फिर यह तो जनता में जागरूकता पैदा करने का एक काम है कि वह अफवाहें फैलाने से दूर रहे, और इस काम को कौन करेगा यह जनता के बीच के लोगों को ही तय करना होगा क्योंकि सामाजिक संगठन जिस जागरूकता को मुफ्त में फैला सकते हैं, उस जागरूकता का कोई भी सरकारी अभियान करोड़ों के भ्रष्टाचार की एक संभावना भी बन जाएगा। इस बीच जिसके पास जो मेडिकल दावे आते हैं, उन्हें अपने ही पास खत्म करना शुरू करें, आगे न बढ़ाएं। इसके साथ-साथ अगर वे यह साबित कर सकते हैं कि ये मेडिकल दावे झूठे हैं, तो इस झूठ का भांडाफोड़ जरूर करना चाहिए जैसा कि भारत में इंटरनेट पर कुछ वेबसाइटें लगातार करती हैं। मीडिया और सोशल मीडिया में लगातार झूठ फैलाया जाता है, साजिशन फैलाया जाता है, और उसका खंडन करना जरूरी है, ठीक उसी तरह प्लास्टिक के चावल की अफवाह को खत्म करना भी जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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