संपादकीय
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हिन्दुस्तान में एक बार फिर कोरोना की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। एक दिन में देश में 5 सौ से अधिक कोरोना पॉजिटिव मिलने से सरकारें चौकन्नी हो गई हैं। सडक़ों पर कुछ लोग, चाहे वे गिनती के ही क्यों न हों, मास्क लगाए दिखने लगे हैं। लेकिन ऐसी कोई वजह नहीं दिखती है कि देश में इसे लेकर किसी दहशत या हड़बड़ी की नौबत हो। कोरोना के पिछले दो अलग-अलग दौर में जिस तरह लाखों लोग मारे गए, और विश्व स्वास्थ्य संगठन का अंदाज दसियों लाख का है, उसके बाद कोरोना के तीसरे दौर में तकरीबन कुछ भी नहीं हुआ। इसकी दो वजहें बताई गईं, एक तो यह कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा टीके ले चुका है, और दूसरी वजह यह कि आबादी के एक बड़े हिस्से को कोरोना हो चुका था, और उसकी वजह से इस वायरस के खिलाफ शरीर में प्रतिरोधक शक्ति विकसित हो चुकी थी, और इस वजह से वायरस का नया हमला उस पर असर नहीं कर रहा था। अब अगर नौबत जरा भी फिक्र की नहीं है, तो फिर इस मुद्दे पर आज लिखा क्यों जा रहा है? आज कोरोना पर लिखने की जरा भी नीयत नहीं है, लेकिन कोरोना के सबक से जिंदगी के दूसरे दायरों में भी कुछ-कुछ सीखा जा सकता है।
हिन्दुस्तान में आज धार्मिक कट्टरता, और साम्प्रदायिकता के वायरस ने तकरीबन तमाम आबादी को संक्रमित कर दिया है। इस तरह से प्रभावित हो चुकी आबादी पर अब और अधिक भडक़ाऊ बातों का असर होते ही नहीं दिखता है। साम्प्रदायिक नफरत लोगों को ध्यान भी नहीं खींचती, वह हिन्दुस्तानी जिंदगी में एक नवसामान्य बात हो गई दिखती है। जब लोग ऐसे चिकने घड़े सरीखे हो जाएं जिन पर साम्प्रदायिक नफरत की फिक्र की बूंद भी न टिक पाए, तो वह एक अलग किस्म की, बड़ी फिक्र की बात रहती है, और आज हिन्दुस्तान उसी से गुजर रहा है। फिर दूसरी बात यह भी है कि जब लोगों की सोच जिंदगी के किसी एक दायरे में तर्कहीन, कुतर्क पर आधारित, अवैज्ञानिक होने लगती है, तो फिर वे जिंदगी के बाकी दायरों में भी उसी दर्जे की सोच रखने लगते हैं। अगर कोई अंधविश्वासी बिना महूरत देखे घर से नहीं निकलते हैं, तो फिर वे किसी ताबीज के झांसे में भी जल्दी आ जाते हैं, वे घर-दुकान का वास्तु सुधरवाने लगते हैं, किसी मंत्र का जाप करना उन्हें ठीक लगने लगता है, और वे निर्मल बाबा सरीखे किसी इंसान के बताए शुक्रवार को काले कुत्ते को पीली रोटी खिलाने के लिए भी घूमते रहते हैं। अंधविश्वास अकेले नहीं आता, वह दोस्तों और सहेलियों के साथ आता है। उसी तरह जिस देश की सोच झूठ पर जिंदा रहने लगती है, वह देश कई किस्म के झूठों पर भरोसा करने लगता है, और उसका कोई अंत नहीं होता। वह पीलिया उतारने के लिए थाली के पानी में खड़ा करके किसी से मंत्र भी पढ़वाने पर भरोसा करने लगता है। वह किसी दरगाह या मंदिर पर होने वाली आत्मा आने की नौटंकी पर भी भरोसा करने लगता है। और इस किस्म के अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी संक्रमण की मार से लोगों पर वैज्ञानिकता का असर खत्म हो जाता है। जिन लोगों ने एक पूरी पीढ़ी की जिंदगी विज्ञान पर भरोसा करके एक वैज्ञानिक सोच पाई थी, उन्हें अंधविश्वासी सोच साल भर में अंधविश्वासी बना सकती है। हिन्दुस्तान में आज यही हो रहा है, जिस तरह कोरोना के संक्रमण के बाद अब कोरोना का खतरा ऐसे लोगों पर घट गया है, उसी तरह अंधविश्वास के संक्रमण के बाद अब लोगों पर वैज्ञानिकता का ‘खतरा’ घट चुका है, और लोग तेजी से धार्मिक, जातीय, या सामुदायिक नफरत में घिरने लगे हैं, उन्हें यह समझ ही नहीं पड़ रहा है कि भीड़ की मानसिकता से परे देश की बेहतरी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में है।
देश की जनता वैज्ञानिक सोच के खिलाफ, लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ एक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुकी है। ऐसे में उसे सार्वजनिक और व्यापक हित की बातें समझाना मुश्किल हो गया है। पहले वह एक धर्म को एक ईकाई मानकर, उसके भीतर के लोगों के भले की ही बात सोच रही है, फिर इस धर्म के भीतर भी अलग-अलग किस्म की आस्था पद्धतियों के भीतर उसकी सोच सिमट रही है। और यह सिलसिला धीरे-धीरे करके एक बहुत ही छोटे और बहुत ही कट्टर दायरे में लोगों को कैद करते जा रहा है। लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक सोच कतरों में नहीं आ पाती, उसके लिए लोगों को निर्विवाद रूप से अपनी तमाम सोच को विकसित करना होता है। जिस तरह सडक़ पर चलते किसी इंसान के सिर से लेकर पैर तक, तमाम धड़ को ही एक साथ आगे या पीछे ले जाया जा सकता है, टुकड़ों में नहीं ले जाया जा सकता, उसी तरह लोगों की सोच है, या तो वह पूरी तरह वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक होगी, न्यायसंगत और सरोकारी होगी, या फिर वह अंधविश्वासी और अलोकतांत्रिक होगी, उसे सामाजिक समानता से कुछ भी लेना-देना नहीं होगा।
यह तमाम बात लोगों को कुछ अमूर्त लग सकती है, क्योंकि इसे एक चेहरा देना मुश्किल है, इसे महज समझा जा सकता है। और आज इस बात को समझने की जरूरत जितनी अधिक है, उसके खिलाफ उतनी ही अधिक संगठित साजिश चल रही है कि लोग कहीं वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक सोच की ओर लौट तो नहीं जाएंगे? यह वक्त हिन्दुस्तान में एक बहुत खतरनाक दौर है, और इससे भी अधिक खतरनाक यह है कि लोगों को इस खतरे का अहसास होना खत्म हो चुका है। यह सिलसिला पता नहीं कब थमेगा, थमेगा भी या नहीं, या फिर यह बढ़ते ही चलेगा, दुनिया के उन कुछ देशों की तरह जहां पर कि धर्मान्धता ने लोकतंत्र को भी खत्म कर दिया है। इस हिन्दुस्तान को आज हिन्दू राष्ट्र बनाने के नारे बढ़ते चल रहे हैं, वे फतवों की शक्ल ले रहे हैं, और इससे भी बड़ा खतरा यह है कि बहुत से लोगों को यह बात स्वाभाविक और सही लग रही है, और इसमें उनकी बची-खुची लोकतांत्रिक सोच आड़े भी नहीं आ रही है। सोच का इस हद तक खत्म हो जाना एक बड़ा खतरा है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)