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हिंदू बच्चों को पालने वाली मुसलमान मां जिन पर बनी फिल्म
21-Mar-2023 4:06 PM
हिंदू बच्चों को पालने वाली  मुसलमान मां जिन पर बनी फिल्म

SHREEDHARAN

 इमरान कुरैशी

जफर खान कहते हैं कि जब उन्होंने अपनी मां के बारे में फिल्म देखी तो उनकी आंखों में आंसू आ रहे थे, लेकिन उनके पास बैठे श्रीधरन लगातार रो रहे थे।

ये फिल्म एक धार्मिक मुसलमान महिला थेननदन सुबैदा के बारे में है जिन्होंने श्रीधरन और उसकी दो बहनों रमानी और लीला को अपने तीन सगे बच्चों की तरह पाल कर बड़ा किया। लेकिन इस दौरान सुबैदा ने कभी भी उनसे इस्लाम अपनाने के लिए नहीं कहा।

मलयालम फि़ल्म ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ या हिंदी में कहें तो ‘मेरा अपना श्रीधरन’ पर काम तब शुरू हुआ जब ओमान में काम कर रहे श्रीधरन ने 17 जून 2019 को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखी।

सरल शब्दों में इस पोस्ट में कहा गया था, ‘मेरी उम्मा को अल्लाह ने बुला लिया है। कृपया उनके लिए दुआ करें ताकि जन्नत में उनका शानदार स्वागत हो।’ केरल में मुसलमान मं के लिए अम्मा या उम्मा शब्द का प्रयोग करते हैं।

इस पोस्ट से एक मूल सवाल उठा था कि ‘तुम श्रीधरन हो, तुम अपनी मां को उम्मा क्यों कह रहे हो?’

कोझीकोड से कऱीब 70 किलोमीटर दूर कालीकावू में बीबीसी से बात करते हुए श्रीधरन कहते हैं, ‘लोग पूछ रहे थे कि तुम कौन हो, वो शायद इसलिए पूछ रहे थे क्योंकि मेरा नाम श्रीधरन है, इसलिए ही लोगों के मन में शक़ था और ये सामान्य बात है।’

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‘धर्म परिवर्तन के लिए कभी नहीं कहा’

श्रीधरन ने बताया कि उम्मा ने उन्हें कैसे पाला।

‘मेरी मां, उम्मा और उप्पा (पिता) के घर में काम करती थी। मेरी मां (चक्की) और उम्मा के संबंध बहुत अच्छे थे। गर्भावस्था के दौरान मेरी मां गुजऱ गई।’

अपनी पोस्ट के अंत में श्रीधरन ने लिखा कि उन्हें अपनाने वाले उम्मा और उप्पा ने कभी भी उनसे धर्म बदलने के लिए नहीं कहा।

वो कहते हैं, ‘ये मेरे लिए दर्दनाक था क्योंकि मुझे पालने वाली मेरी मां और पिता ने हमें कभी धर्म जाति के बारे में नहीं बताया था। उन्होंने बताया था कि हमें अच्छाई की जरूरत है।’

अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले श्रीधरन सवाल करते हैं, ‘मैंने उम्मा से पूछा था कि उन्होंने हमें इस्लाम में धर्म परिवर्तन क्यों नहीं कराया। उन्होंने जवाब दिया था कि चाहे इस्लाम हो, ईसाई धर्म हो या फिर हिंदू धर्म, सभी एक ही बात सिखाते हैं। वो ये कि सभी से प्यार करो और सबका सम्मान करो।’

उनकी बहन लीला कहती हैं, ‘मेरी उम्मा मुझे मंदिर जाने देती थीं और भगवान की पूजा करने देती थीं। जब भी हमारा मन करता हम मंदिर जाते। हमें मंदिर जाने तो दिया जाता था, लेकिन उस समय यातायात की सुविधाएं बहुत खराब थीं, इसलिए हमें अकेले नहीं जाने दिया जाता था। ऐसे में हम सिफऱ् त्योहारों या ख़ास मौकों पर ही मंदिर जाते थे और वो हमें लेकर जाती थीं।’

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जब वो सुबैदा के घर आए तो क्या हुआ?

अब्दुल अजीज हाजी और सुबैदा के सबसे बड़े बेटे शाहनवाज कहते हैं, ‘मैं तब सात साल का था। मुझे पता था कि उम्मा उनके घर गई हैं क्योंकि सुबह उनकी मौत हो गई थी। वो शाम को घर लौटीं तो श्रीधरन उनकी बाहों में था।

वो कऱीब दो साल का था। लीला मेरी उम्र की थी और रमानी 12 साल की थी। लीला और रमानी उनके पीछे-पीछे आ रही थीं। उन्होंने बस इतना कहा था कि अब इन बच्चों का कोई नहीं है, ये हमारे घर में रहेंगे।’

शाहनवाज कहते हैं, ‘जब उम्मा घर के भीतर आ गईं तो लीला भी पीछे आ गई, लेकिन रमानी बाहर खड़ी रही। वो हम सबसे थोड़ी बड़ी थी, ऐसे में वो झिझक रही थी। मेरी दादी ने मुझसे कहा कि जाओ उसे घर के अंदर ले आओ।

मैं बाहर गया और हाथ पकडक़र उसे घर में ले लाया। उसके बाद से हम साथ ही पले-बढ़े। हम सब नीचे फर्श पर सोते थे। सिर्फ जफर खान और श्रीधरन को छोडक़र, वे दोनों बहुत छोटे थे और वे उम्मा और उप्पा के साथ ही सोते थे। दादी मां बिस्तर पर सोती थीं और हम तीनों नीचे सोते थे। हमारी छोटी बहन जोशीना का जन्म इसके चार साल बाद हुआ था।’

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जब बच्चे बड़े हो रहे थे तो श्रीधरन और जफर खान जुड़वा लगते थे। दोनों की उम्र अब 49 साल है। वो साथ में स्कूल जाते और घर पर भी साथ में ही खेलते थे। जफर नहीं चाहते थे कि स्कूल में उनकी शैतानियों के बारे में श्रीधरन घर पर आकर उम्मा को बताए तो उन्होंने स्कूल में अलग भाषा की पढ़ाई की और दोनों की क्लास अलग हो गई।

जफर खान कहते हैं, ‘उम्मा श्रीधरन की हर बात पर यकीन करतीं, वो उनके बहुत कऱीब था। मां उससे जो भी कहतीं वो मानता और मैं काम करने से बचता रहता।’

‘जब हम स्कूल जाते थे तो रमानी हमें छोडक़र अपने स्कूल चली जाती थी जो कुछ और दूर था। जब उम्मा बाहर होतीं और हम स्कूल से आते तो लीला हमें खाना देती।’

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क्या शाहनवाज और जफर को जलन होती थी?

शाहनवाज और जफर दोनों ही ये बात मानते हैं कि श्रीधरन मां के सबसे पसंदीदा बेटे थे।

क्या शाहनवाज को कभी जलन हुई?

‘नहीं’ बस एक बात मुझे याद आती है कि उम्मा जब उन्हें लेकर घर आई थीं तो मैंने अपनी नानी से पूछा था कि मां गोरे रंग के बच्चों को घर लेकर क्यों नहीं आई हैं। मेरी नानी ने अपनी उंगली होठों पर रखते हुए कहा था कि तुम्हें कभी भी ऐसी बात नहीं करनी है। रंग हमें अल्लाह देता है। मैं खाड़ी के देशों में काम करने के बाद जब घर वापस लौटता था तो मेरी नानी कहती थीं कि मैं विदेश में रहकर गोरा हो गया हूं और वो घर में रहकर काली रह गई हैं।’

जफर खान याद करते हैं कि जुमे की नमाज़ के बाद जब वो कब्रिस्तान में अपने मां-बाप और दादी की कब्र के पास जाते हैं तो जगह हमेशा साफ मिलती है। वो कहते हैं, श्रीधरन हमेशा उसे साफ कर देते हैं।

तो श्रीधरन आपके लिए क्या हैं? जफऱ ख़ान कहते हैं, ‘ऐसे तो वो भाई है, लेकिन हमारे लिए वो उससे भी ज़्यादा है। वो हमेशा मेरे साथ रहा है। वो मेरा साथी है।’

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‘श्रीधरन को सबसे ज़्यादा पसंद करती थीं’

परिवार के मित्र अशरफ़ कहते हैं, ‘उम्मा को श्रीधरन सभी बच्चों में सबसे ज़्यादा पसंद था। इसलिए वो जानता था कि इस बात का फायदा कैसे उठाना है। मैंने एक बार अपनी आंखों से ये देखा था। उम्मा स्कूल जाने से पहले बच्चों को दस-दस रुपये देती थीं, जफऱ दस रुपए लेकर बाहर चला गया और श्रीधरन वापस उम्मा के पास आया और बोला कि उसे दस रुपये और चाहिए और उम्मा उसे हर बार दे देतीं।’

लीला उम्मा को कैसे याद करती हैं?

अपने आंसू पोंछते हुए लीला कहती हैं, ‘उन्होंने हमें बिना किसी परेशानी के बढ़ा किया। मैं यहीं इसी घर में उन्हें माता-पिता मान कर बढ़ी हुई हूं। मेरे पास उम्मा के बारे में बात करने के लिए सिफऱ् अच्छी यादें ही हैं और ये अनगिनत हैं। मैं आपको बता नहीं सकती कि उनके जाने के बाद मैंने कैसा महसूस किया। जब भी उम्मा की याद आती है मैं बहुत उदास हो जाती हूं।’

श्रीधरन भी उम्मा को याद करते हुए रोने लगते हैं और कहते हैं, ‘हर किसी के पास अपनी मां के बारे में बताने के लिए अच्छी यादें ही होती हैं, मेरे पास भी सिर्फ अच्छी यादें ही हैं।’

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शाहनवाज ने बताई एक अलग बात

शाहनवाज के पास अपनी उम्मा के बारे में बताने के लिए एक अलग अनुभव भी है।

वो बताते हैं, ‘उनकी मौत के बाद ही हमें पता चला कि उन्होंने कितने लोगों की मदद की थी और किस हद तक की थी। मैं शुरुआत में काम करने खाड़ी गया था और बाद में वहां अपना कारोबार शुरू किया। मुझे पता चला था कि उम्मा ने अपनी 12 एकड़ ज़मीन में से कुछ बेचनी शुरू कर दी है। ये जम़ीन उम्मा को उनके पिता से मिली थी। वो देनदारों का कर्ज चुकाने के लिए ज़मीन बेच रही थीं।’

कोई भी सुबैदा के पास आकर शिक्षा, शादी या इलाज के लिए पैसे मांग लेता था। वो जान-पहचान वाले कारोबारियों को फोन करतीं और मदद करने के लिए कह देतीं। कारोबारी भी इस मदद में अपना हिस्सा जोड़ देते थे और सुबैदा बाद में पैसे चुका देती थीं। वो उधार लेकर भी मदद करती थीं और बाद में उधार चुकाने के लिए ज़मीन का हिस्सा बेच देती थीं।

एक समय ऐसा आया जब स्थानीय मंदिर समिति ने अब्दुल अजीज से कहा कि वो अपनी पत्नी से कहें कि एक साल तक चंदा देने के बारे में चिंता ना करें क्योंकि उन्हें पता है कि अब सुबैदा के पास पैसे नहीं हैं।

शाहनवाज़ कहते हैं, ‘वो मंदिर, मस्जिद और चर्च को बराबर चंदा देती थीं।

 घर के पास भी ज़मीन का एक हिस्सा था जिसे वो बेचना चाहती थीं। मैंने उनसे पूछा कि कितनी क़ीमत है तो उन्होंने कहा 12 लाख। मैंने कहा मुझसे पंद्रह लाख रुपए ले लो और मुझे दे दो। लेकिन उन्होंने मना कर दिया क्योंकि वो खरीदार से 12 लाख रुपए में जमीन देने का वादा कर चुकी थीं।’

शाहनवाज कहते हैं, ‘हमारी मां ने हम भाई बहनों में से किसी को जमीन में कोई हिस्सा नहीं दिया। जिस जमीन पर हमारा ये घर बना है वो हमारे पिता की है।’

शाहनवाज़ साल 2018 में खाड़ी से वापस लौटे तब सुबैदा बीमार पड़ गई थीं। जल्द ही शाहनवाज़ ने जफर खान से भी वापस लौटने के लिए कहा क्योंकि वो अकेले मां की देखभाल नहीं कर पा रहे थे। सुबैदा ने अपने बेटों से कहा था कि श्रीधरन को मेरी बीमारी के बारे में मत बताना वरना वो ओमान में अपनी नौकरी छोडक़र घर आ जाएगा।

‘हमने ये सुनिश्चित किया कि वो अपनी पत्नी के साथ पास ही रहे, लेकिन उम्मा से दूर।’

फिर शाहनवाज कहते हैं, ‘जब उम्मा का इंतेकाल हो गया और हमने श्री का फ़ेसबुक पर रिऐक्शन देखा तो हमें एहसास हुआ कि लोग हममें फर्क देखते हैं, लेकिन वास्तव में हम अब भी एक ही हैं।’

फिल्म कैसे बनी?

इस फिल्म को सिद्दीक परवूर ने बनाया है जिनकी पिछली फिल्म ‘थाहीरा’ गोवा में भारत के 51वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित हुई थी।

सिद्दीक को श्रीधरन की पोस्ट के बारे में पता चला और उन्होंने उसी वक्त ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ बनाने का फैसला किया।

बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने बताया, ‘इस कहानी में मानवता को दर्शाने की कोशिश की गई है। हमारे समाज को इसके बारे में जानने की बहुत ज़रूरत है।’

उन्होंने कहा कि कोई देश तभी विकसित हो सकता है जब वहां मानवता को महत्व दिया जाए।

सिद्दीक को इस फिल्म का निर्माता ढूंढने में काफी समय लगा। लेकिन अब जब फिल्म की काफी तारीफ हो रही है, तो उन्हें ऐसे व्यक्ति का इंतजार है जो फिल्म को थियेटर तक पहुंचा सके। (bbc.com)

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