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कनक तिवारी लिखते हैं- राहुल कथा में पेंच दर पेंच
24-Mar-2023 4:27 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- राहुल कथा में पेंच दर पेंच

कनक तिवारी
राहुल का मामला बतंगड़ के लायक नहीं है, जबकि बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। मोदी उपनाम किसी व्यक्ति विशेष का नहीं होता और न वह किसी सामाजिक या वैधानिक जाति को संकेतित करता है। कई तरह के मोदी हैं। मारवाड़ी मोदी होते हैं। जैसे ललित मोदी का परिवार है। मुसलमानों में मोदी होते हैं, जैसे प्रसिद्ध बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी थे। पारसियों में मोदी होते हैं जैसे प्रसिद्ध सांसद पीलू मोदी थे। कई अन्य जातियों, उप जातियों में मोदी होते होंगे। तो जो कुछ राहुल ने कहा वह तो हंसी ठ_ा था, ठिठोली थी। मजाक के लिए था। चुनावी माहौल या अन्यथा जन सभाओं के माहौल में हल्की फुल्की बातें कह दी जाती हैं। उनके कहने के बाद निश्चित रूप से वहां भृकुटियां नहीं तनी होंगी। लोग हंसे होंगे। मुस्कुराए होंगे। तालियां भी बजी होंगी। तो इस तरह यह मामला अपने आप हवा में उड़ गया । पता नहीं मजिस्ट्रेट साहब को इसमें कितनी गंभीरता क्यों दिखाई पड़ गई?

चुनाव लोकतंत्र की आत्मा और मतदाता का मूल अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक चुनाव व्यवस्थाओं का वर्णन है। गवर्नमेन्ट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 और अन्य ब्रिटिश कानूनों में चुनाव का जिम्मा कार्यपालिका पर होने से केवल मजाक होता था। संविधान सभा में शुरू से ही आम राय उभरी कि वोट देना नागरिक का मूल अधिकार होना चाहिए और चुनाव के लिए स्वतंत्र मशीनरी की स्थापना करना होगा। विख्यात संविधानविद् जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर के अनुसार प्रजातंत्र का अर्थ चुनाव के प्रजातंत्र से है। इस प्रजातंत्र को धन शक्ति तथा चुनाव मशीनरी में उत्पन्न प्रदूषण आदि तबाह करते हैं। सरकार की ताकत और सत्ताधारी पार्टी को हासिल सुविधाएं चुनाव प्रक्रिया को दूषित करती हैं। सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव आयोग के सदस्यों को नियुक्त करती है। तब निष्पक्ष चुनाव की कल्पना नहीं की जा सकती। अधिकारी यदि मंत्रिपरिषद के कृपापात्र हों, तो जाने अनजाने पक्षपात की आशंका होती ही है। चंदा उगाही और पुलिस बल प्रयोग करने में सत्ताधारी पार्टी को फायदा होता ही है। 

लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (1) तथा (2) में ऐसे अपराध वर्णित हैं जिनमें कम या ज्यादा सजा होने पर भी तत्काल प्रभाव से सदन की सदस्यता से अयोग्यता लागू हो जाती है। इनमें भारतीय दंड संहिता के तहत समुदायों के बीच सामाजिक विद्वेष, चुनाव संबंधी अपराध, बलात्कार, स्त्री के प्रति क्रूरता आदि सहित नागरिक अधिकार अधिनियम, कस्टम अधिनियम, गैर कानूनी गतिविधि प्रतिरोध अधिनियम, फेरा, मादक द्रव्य संबंधी अपराध, आतंककारी गतिविधियां, पूजा स्थल संबंधित अधिनियम के अपराध, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों का अपमान, सती प्रतिषेध अधिनियम, भ्रष्टाचार अधिनियम, मुनाफाखोरी तथा जमाखोरी तथा मिलावटखोरी के अपराध और दहेज संबंधी अपराध षामिल हैं। अन्य किसी अपराध के लिए भी दो वर्ष या अधिक की सजा किसी नागरिक को मिले, तो वह चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य होता है। लेकिन ऐसी सजा मिलने के वक्त यदि वह सांसद या विधायक है तो उसे तब तक अपनी संसदीय आसंदी पर बैठे रहने का अधिकार होगा, जब तक कि उसके द्वारा की गई अपील या रिवीजन का अन्यथा कोई निर्णय नहीं हो जाए। 

अधिनियम की धारा 8 (3) में लिखा है.......‘‘कोई व्यक्ति जो उपधारा (1) या उपधारा (2) में निर्दिष्ट किसी अपराध से भिन्न किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया गया है और दो वर्ष से अन्यून के कारावास से दण्डित किया गया है, ऐसी दोषसिद्धि की तारीख से अयोग्य होगा और उसे छोड़े जाने से छह वर्ष की अतिरिक्त कालावधि के लिए अयोग्य बना रहेगा। ‘‘आशय यह है कि देश का कोई नागरिक यदि दो वर्ष या अधिक की सजा पाता है तो वह चुनाव लडऩे के लिए तत्काल प्रभाव से अयोग्य हो जाता है। अपराधिक फैसले के विरुद्ध नागरिक अपील करता रहे और भले छूट जाए। शुरुआती तौर पर तो कम से कम 6 वर्ष के लिए उसके चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लग जाता है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने से एक मजिस्ट्रटेट के विवेक से वंचित नागरिकों की सुप्रीम कोर्ट तक मदद नहीं कर सकता। 

इसके बरक्स अधिनियम की धारा 8 (4) कहती है......‘‘उपधारा (1), उपधारा (2) या उपधारा (3) में किसी बात के होते हुए भी दोनों उपधाराओं में से किसी के अधीन निरर्हता उस व्यक्ति की दषा में जो दोषसिद्धि की तारीख को संसद का या राज्य के विधान मण्डल का सदस्य है, तब तक प्रभावशील नहीं होगी जब तक उस तारीख से तीन मास न बीत गए हों, अथवा, यदि उस कालावधि के भीतर उस दोषसिद्धि या दण्डादेश की बाबत अपील या पुनरीक्षण के लिए आवेदन किया गया है तो जब तक न्यायालय द्वारा उस अपील या आवेदन का निपटारा न हो गया हो।‘‘सांसद या विधायक दो वर्ष या अधिक की सजा पाए तो उस फैसले के खिलाफ   बड़ी अदालत में अपील या रिवीजन पेश कर देने भर से वे तब तक के लिए अपने पदों पर काबिज रह सकते हैं, जब तक अपील या रिवीजन न्यायालयों का अंतिम फैसला नहीं आ जाए। यदि छूट गए तो शुरू से पौ बारह है। सजा मिली तो संसदीय जीवन से नौ दो ग्यारह हो गए। 1989 में प्रोफेसर शिब्बनलाल सक्सेना के संशोधन प्रस्ताव की भाषा का दोहराव करते हुए लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) को ऊपर लिखे अनुसार पहली बार गढ़ा गया। 

उक्त प्रावधान के मूल प्रारूप अनुच्छेद 83 के संविधान सभा की बहस में आने पर प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना ने दो आशंकाएं जाहिर की थीं। एक तो यह कि निर्वाचित सांसद या विधायक को दो वर्ष या अधिक की अदालती सजा पाने पर यदि संबंधित अपील के निराकरण होने तक सदन के सदस्य के रूप में यथावत कायम नहीं रखा गया तो विधायिका को असुविधाओं का सामना करना पड़ेगा। प्रो. सक्सेना ने भविष्य की संसदों द्वारा जनप्रतिनिधियों की अयोग्यता संबंधी कानून बनाने की निष्कपटता पर भी षक किया था। इसका कड़ा प्रतिवाद पंजाबराव देशमुख और अन्य सदस्यों ने किया, तथा सदन के लिए निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को किसी तरह की सुविधा देने का विरोध करते हुए भविष्य की संसदों द्वारा लोकतांत्रिक विधायन करने को लेकर विष्वास भी जाहिर किया। प्रो. सक्सेना ने अपना संषोधन प्रस्ताव वापस ले लिया। 

जो सुविधा संविधान सभा ने देने से इंकार किया था, उसे 1989 में (राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में) लगभग उन्हीं शब्दों में देने में संसद ने कोताही नहीं की। उसने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 (4) के अनुसार दो वर्ष या अधिक के लिए दोषसिद्ध होकर सजा प्राप्त सांसदों और विधायकों को तब तक के लिए अपनी कुर्सी पर बैठे रहने का अभयदान दे दिया, जब तक उनके अपराधिक प्रकरणों से संबंधित अपीलों का आखिरी निपटारा नहीं हो जाता। इस संशोधित प्रावधान के कोई सोलह वर्ष बाद लोक प्रहरी नामक संस्था की ओर से एस. एन. षुक्ला तथा अन्य याचिका द्वारा अधिवक्ता लिली थॉमस ने जनहित याचिकाओं के रूप में चुनौती दी। आठ वर्षों तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित इन याचिकाओं को 10 जुलाई 2013 को न्यायमूर्तिद्वय ए. के. पटनायक और एस. जे. मुखोपाध्याय की बेंच ने निराकृत करते हुए उपरोक्त धारा 8 (4) को असंवैधानिक करार दिया। 

भारत सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल सिद्धार्थ लूथरा तथा पारस कुहद ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि पहले ही के. प्रभाकरन वाले प्रकरण में यह माना गया है कि धारा 8 (4) के अनुसार दोषसिद्ध सांसद या विधायक को कोई लाभ नहीं मिलता है। उसका मकसद केवल सदन की संरचना की सुरक्षा है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रभाकरन के प्रकरण की कंडिका 58 में माना है कि सांसद या विधायक की दोषसिद्ध होने पर सदन से बर्खास्तगी से दो असुविधाएं होंगी:-एक तो यह कि सदन की सदस्य संख्या घट जाएगी तथा बराएनाम बहुमत वाली पार्टी को सरकार का संचालन करने में कठिनाई होगी। दूसरे यह कि उपचुनाव की स्थिति आ सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि दोषसिद्ध जनप्रतिनिधि को अपराध से मुक्ति देने का संसद का इरादा नहीं था। वह केवल सजा की तिथि को स्थगित करने से संबंधित है। इन अधिवक्ताओं का यह भी तर्क था कि अपराधिक अपीलीय न्यायालय केवल सजा को स्थगित कर सकते हैं, दोषसिद्धि के तर्क को नहीं। इसके बरक्स नरीमन ने जोर दिया कि     नवजोत सिंह सिद्धू बनाम पंजाब राज्य (2007), रमा नारंग बनाम रमेष नारंग (1995) तथा रविकांत एस. पाटिल बनाम सर्वभौम एस. बागली (2007) जैसे प्रकरणों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ -साफ  कहा कि मुनासिब प्रकरणों में दोषसिद्धि के प्रभाव को भी अपील न्यायालय तथा हाईकोर्ट द्वारा अपील के निराकरण तक स्थगित किया जा सकता है। कई प्रकरणों में ऐसे आदेश पारित भी हुए हैं।         

उक्त प्रावधान का उल्लेख करते सुप्रीम कोर्ट ने रमा बनाम रमेश नारंग वाले मुकदमे में 1995 में कह दिया था कि जिसे भी अपनी दोषसिद्धि को स्थगित कराना है, उसे निश्चित रूप से वैसा उल्लेख करना पड़ेगा और कारण बताने पड़ेंगे कि वह ऐसा क्यों कराना चाहता है। उसके बाद कोर्ट को इस बात की जानकारी देनी होगी और तब कोर्ट आदेश दे सकेगा कि सजा के अलावा और भी जो आदेश हैं जिनमें दोषसिद्धि का आदेश है, उसको भी स्थगित रखा जाता है। यदि विशेष रूप से उल्लेखित नहीं किया जाएगा तो दोषसिद्धि स्थगित हो गई नहीं माना जाएगा। सामान्य तौर पर मजिस्ट्रेट के दंडादेश या आदेश  के विरुद्ध दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 374 में अपील की जाती है । अपील पेश करने के बाद धारा 389 के अंतर्गत अपील लंबित रहने तक दंडादेश या अन्य आदेश का निलंबन और अपीलार्थी को जमानत पर छोड़े जाने के आवेदन किए जा सकते हैं। रमा नारंग के प्रकरण में फैसले के पैरा 19 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि अपील न्यायालय को धारा 389 के तहत दंडादेश को स्थगित करने का जो अधिकार है उससे दोष सिद्धि को स्थगित करने का अधिकार भी मिल जाता है। अपील न्यायालय को धारा 389 में बहुत सीमित अधिकार नहीं मिलते। उसकी संकीर्ण व्याख्या नहीं होनी चाहिए। हालांकि इसके अतिरिक्त रिवीजन न्यायालय को और हाईकोर्ट को धारा 482 के तहत पूरे अधिकार हैं कि वह दंडादेश और दोष सिद्धि के दंड को स्थगित कर दें।

नवजोत सिंह सिद्धू का मुकदमा बहुत दिलचस्प है। 27 दिसंबर 1988 को नवजोत सिंह सिद्धू ने किसी से मारपीट की थी। उस प्रकरण के बाद बात अखबारों में छपी तो यह हुआ कि सिद्धू ने सांसद रहते हुए इस तरह का अपराध किया। सिद्धू ने नैतिकता के आधार पर संसद से इस्तीफा दे दिया और कहा कि एक सांसद रहते हुए वह इस तरह के मामले को अपने खिलाफ  प्रचारित होने देना पसंद नहीं करेंगे कि मैं किसी तरह का फायदा ले रहा हूं। बाद में सुप्रीम कोर्ट गए इस बात को लेकर कि उन्हें अगला चुनाव लडऩे से उपरोक्त अधिनियम के तहत 6 वर्षों के लिए अगर प्रतिबंधित कर दिया जाना उनके साथ अन्याय है। उन्होंने तो अपनी सांसदी पहले ही छोड़ दी है। मामले का फैसला जो भी हो। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सांसद सिद्धू के लिए संसद से इस्तीफा देना आवश्यक नहीं था लेकिन उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया। तो ऐसी हालत में उससे प्रभावित होकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें चुनाव लडऩे की पात्रता मिलनी चाहिए। सिद्धू को हालांकि बाद में फौजदारी मामले में सुप्रीम कोर्ट से  एक साल की सजा हो गई और अभी भी वह जेल में हैं। चुनाव लडऩे की घटना का उससे कोई संबंध नहीं था। राहुल ने भी तो नैतिकता का पक्ष लेते अपनी पार्टी की ही सरकार का संशोधन अध्यादेष फाडक़र फेंक दिया था, राहुल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान ही तो खुलकर कर रहे थे। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 कहती है कि अपील न्यायालय ऐसे कारणों से जो उसके द्वारा अभिलिखित किए जाएंगे, आदेश दे सकता है कि उसे दंडादेश या आदेश का निष्पादन जिसके विरुद्ध अपील की गई है, दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा की गई अपील के लंबित रहने तक निलंबित किया जाए और यदि वह व्यक्ति परिरोध में है, तो यह भी आदेश दे सकता है कि उसे जमानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया जाए।

न्यायमूर्ति पटनायक ने पाया कि विचित्र विरोधाभास है कि दोषसिद्धि तथा सजा के जिन कारणों से कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, तब ऐसी ही अयोग्यताएं धारण करते हुए विधायिका का सदस्य बने रहने की संवैधानिक सहूलियत प्रदान की जा सकती है। उपरोक्त धारा 8 (4) का संषोधन कर सांसदों ने खुद को सुरक्षित कर लिया है। यह भी विचित्र है कि अपराधिक न्यायालय द्वारा दिए गए दंडादेष के कायम रहते और संभवत: स्थगन आदेष मिले बिना भी सांसद और विधायक मात्र अपील पेष करने की औपचारिकता का निर्वाह करके सुरक्षित रूप से विधायिका के सदस्य बने रह सकते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के मसले में अलबत्ता मौजूदा सांसदों और विधायकों को छूट देते कहा कि चूंकि उन्हें भविष्य में होने वाले ऐसे किसी फैसले की उम्मीद नहीं रही होगी। इसलिए वे अपील या रिवीजन प्रस्तुत करके निष्चिंत बैठे होंगे। भविष्य में संबंधित अपीलों और रिवीजऩ का कोई परिणाममूलक फैसला आएगा तो स्वाभाविक ही उसका असर उनकी सदस्यता संबंधी स्थिति पर पड़ सकता है। यह फैसला राजनीतिक दलों को रुचा नहीं। अधिकांष राजनीतिक पार्टियों में एक तिहाई से लेकर आधे सदस्य तक सिद्ध अपराधी होते हैं। संविधान के अंतर्गत संसद एक सर्वशक्तिमान संस्था है। वह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से बचने के लिए आत्मरक्षा का विधायन करती रहती है। प्रकरणों को संविधान पीठों की ड्योढ़ी तक पहुंचा देने में सिद्धहस्त है। न्यायिक निर्णयों के पुनर्विलोकन का शोशा भी छोड़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे तिलिस्म से अप्रभावित रहकर सांसदों और विधायकों को नागरिक-जमीन पर खड़ा किया।          

सांसद संविधान को अजीबो-गरीब बीजक, रहस्य-पुस्तिका या बौद्धिक तंत्रशास्त्र भी बनाते रहे हैं। यह पोथी ईमानदार, देशभक्त लेकिन ज्यादातर पारंपरिक ब्रिटिश-बुद्धि का समर्थन करने वाले हस्ताक्षरों ने लिखी थी। उन्हें अन्दाज नहीं था कि अंगरेजी सल्तनत से लोहा लेने वाली पीढ़ी के वंशज लोकतंत्र और आईन के सामने इतनी पेचीदगियां पेश करेंगे कि संविधान को ही पसीना आ जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला और उस पर संसद द्वारा लगभग संवैधानिक आक्रमण की कोषिष नागरिकों के लिए खतरनाक संकेत-पर्व लाई थी। तह में जाने पर दिखता है कि सिद्धांतों को विधायिका के बहुमत के जरिए ठेंगा दिखाया जा सकता है।                                   
बुद्धिजीवी वर्ग उम्मीद कर रहा था कि केन्द्र सरकार के पास दो ही विकल्प हैं। एक तो यह कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करे कि उसके फैसले से लोकतंत्र के संचालन में अनपेक्षित दिक्कतें आएंगी। स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने वाली सरकारों के दौर में संसद या विधानमंडलों को चलाना वैसे ही मुश्किल है। दूसरा विकल्प था कि संसद धारा 8 (4) को संशोधित कर दे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दंश का सांप मर जाए और जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा की लाठी भी नहीं टूटे। सरकार ने एक के बाद एक दोनों काम किए। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की पुनर्विचार याचिका यह कहते ठुकरा दी कि उसके पहले के फैसले में कानून की दृष्टि से कोई तात्विक गलती नहीं है। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट ने माना कि वह उस फैसले पर पुनर्विचार करेगा जिसमें कहा गया था कि जनप्रतिनिधि जेल में रहते हुए चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। पुनर्विचार याचिका खारिज होने के बाद केन्द्र सरकार ने संसद को विश्वास में लेकर धारा 8 (4) को बदलकर अध्यादेश के अनुसार संशोधित करना चाहा। सरकार ने तमाम राजनैतिक दलों को विश्वास में लेकर यह पास किया कि दो वर्ष या अधिक की सजा पाने के तत्काल बाद अपील या रिवीजन दायर करने की स्थिति में अपील न्यायालय से स्थगन पाने के बाद सजा का फैसला प्रभावशील नहीं होगा,

जब तक अपील या रिवीजऩ का अंतिम फैसला नहीं आता। तब तक संबंधित सांसद या विधायक वेतन तथा भत्ते अलबत्ता नहीं ले सकेंगे तथा विधायिका की कार्यवाही में वोट भी नहीं दे सकेंगे। 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण सज़ायाफ्ता जनप्रतिनिधियों की मुश्कें तो बंधीं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का मूल आषय यह था कि जो संवैधानिक अधिकार या सुविधाएं जनप्रतिनिधियों को उपलब्ध कराई गई हैं, वे सुविधाएं भारत के आम नागरिकों को भी मिलें। 
राहुल गांधी के कथित लोकतंत्रीय साहस के कारण अध्यादेष को सबके सामने फाडक़र फेंक देने की घटना को कांग्रेस मतदाताओं को यह कैसे समझा पाएगी कि अधिनियम 1951 की धारा 8 (4) में सांसदों और विधायकों को महामानव बनाने का संषोधन कांग्रेस षासन काल में क्यों रचा गया। इस प्रावधान के कारण कितने दागी सांसदों और विधायकों को संवैधानिक लाभ मिल गया होगा। इस मामले में कांग्रेस की बगलगीर बनी भारतीय जनता पार्टी के नरेन्द्र मोदी भी क्या देष की जनता को बताएंगे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में धारा 33 (ख) 2 मई 2002 से क्यों जोड़ी? उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने दूसरे फैसले में नोचकर फेंक दिया। इस धारा के अनुसार भाजपाई सरकार का इरादा था कि देष की किसी भी अदालत या चुनाव आयोग को राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के चरित्र के संबंध में सवाल करने का अधिकार नहीं है। ऐसा अधिकार केवल संसद को है। दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे को कोसती रही हैं कि मेरी कमीज़ तेरी कमीज़ से ज़्यादा उजली है। बाकी पार्टियां सहायक भूमिका में तालियां बजाती रही हैं। बेचारा लोकतंत्र गफलत, सांसत और हैरानी में है। क्या कांग्रेस और भाजपा की चुनावी भ्रष्टाचार में पार्टनरषिप रही है?   1999 में एसोसिएषन फॉर डेम्रोक्रेटिक रिफॉम्र्स नामक स्वैच्छिक संस्था ने दिल्ली उच्च न्यायालय से यह परमादेष मांगा कि केन्द्र षासन को आदेष दिया जाए कि वह चुनाव कानूनों में उचित संषोधन के ज़रिए केन्द्रीय विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट में सुझाए गए सुधारों को लागू करने के लिए मुनासिब कदम उठाए। केन्द्र षासन के गृह मंत्रालय द्वारा बनाई गई वोहरा कमेटी की रिपोर्ट भी चुनाव सुधारों को लेकर विचारण ली जाए। दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्द्र षासन को निर्देष तो नहीं लेकिन केन्द्रीय चुनाव आयोग को अलबत्ता निर्देष दिए कि उम्मीदवारों की अपराधिक पृष्ठभूमि, आर्थिक स्थिति, षैक्षणिक तथा अन्य प्रतिनिधिक योग्यताओं आदि के बारे में जानकारी दिया जाना सुनिष्चित करे।  पी. यू. सी. एल. ने सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर समानान्तर मांगें कीं तथा कोर्ट से संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत उसे कानूनी ज़ामा पहनाने की पहल की। दिलचस्प है कि वाजपेयी सरकार ने जनहित याचिकाओं का विरोध किया। कांग्रेस ने भी हस्तक्षेप करते कहा कि संविधान सभा ने ही उम्मीदवारों की आर्थिक हालत और षैक्षणिक योग्यता को जरूरी नहीं माना तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा विचारण में कैसे लिया जाए। निर्वाचन आयोग ने अलबत्ता याचिकाओं को समर्थन दिया। लंबी चौड़ी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने केन्द्र षासन को निर्देषित तो नहीं किया, लेकिन      चुनाव आयोग को उसकी संवैधानिक षक्तियों के तहत कार्रवाई करने निर्देष दिए। इनमें उम्मीदवारों का अपराधिक रिकॉर्ड, आर्थिक स्थिति और षैक्षणिक योग्यता से संबंधित निर्देष षामिल थे। 

(14) उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध 2001 में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। 2001 में केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. की सरकार थी, कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. की सरकार नहीं। सॉलिसिटर जनरल हरीष साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट से कहा जब तक केन्द्र सरकार सभी कानूनों में संषोधन करना ज़रूरी नहीं समझती, हाईकोर्ट को किसी भी तरह के निर्देष देने का अधिकार नहीं है क्योंकि लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम तथा नियमों में पर्याप्त प्रावधान हैं। राजनीतिक दलों को सोचना है कि चुनाव कानूनों में संषोधन किए जाएं अथवा नहीं। उम्मीदवारों द्वारा आर्थिक स्थिति तथा अपराधिक वृत्ति की सूचना नहीं देने पर प्रचलित कानूनों के चलते अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता। आष्चर्यजनक तो हुआ कि कांग्रेस ने भी सरकारी तर्क से गलबहियां करते हुए अपने वकील अष्विनी कुमार के ज़रिए मौसेरे भाई की कथा का पाठ किया कि आर्थिक और षैक्षणिक स्थिति आदि के आधारों पर संविधान सभा ने भी विचार किया था। उन्हें चुनाव कानून में षामिल करना ज़रूरी नहीं समझा। उन्होंने जोर देकर कहा ऐसा निर्णय केवल संसद के अधिनियम बनाकर ही लागू किया जा सकता है। हाईकोर्ट को अधिकार नहीं कि चुनाव आयोग को निर्देष दे। (15) मैं जब भोपाल में मध्य प्रदेश गृह निर्माण मंडल का अध्यक्ष था । तब एक बार मेरे घर पूर्व विधायक शिव कुमार श्रीवास्तव और रामचंद्र वाजपेई आए। अक्सर मेरे पास आते थे। बातों बातों में रामचंद बाजपेई ने शिव कुमार श्रीवास्तव से कहा तुम जानते हो मैं किस जिले का रहने वाला हूं! मेरे विंध्य प्रदेश के बड़े नेता हैं यमुना प्रसाद शास्त्री और अर्जुन सिंह। तुम्हारे सागर मं  क्या है ? शिव कुमार श्रीवास्तव ने मुस्कुरा कर कहा कि यह तो ठीक है लेकिन एक बात समझ नहीं आई कि आपके इलाके के सब नेता अंधे क्यों होते हैं? जाहिर है शास्त्री जी नेत्रहीन थे और यह बात अर्जुन सिंह को सुना कर उन्होंने कही थी! इस तरह की हंसी ठिठोली तो राजनीति के जीवन में चलती है। अब यह किस्सा तो भारत के सामाजिक जीवन में फैला दिया गया है ।अक्सर लोग कहते हैं हम मानते हैं कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान तो होता है। अब क्या इसको लेकर भी मुसलमान कोई मुकदमा करें? बचपन में हम लोग कुछ दोस्तों को यूं चिढ़ाते थे ‘सड़ी मछली, गीला भात, उसको खाए बंगाली जात।‘ तो क्या बंगाली भाई मुकदमा कर सकते थे? जीवन में हास्य विनोद भी तो हो। 

(16) भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में है कि अभिव्यक्ति की आजा़दी पर प्रतिबंध लग सकता है। यदि वहां लिखे हुए कुछ आधारों के खिलाफ हो। उसमें एक आधार मानहानि का भी है कि यदि उसके लिए अगर सरकार कोई अधिनियम बनाए। सरकार ने कोई अधिनियम नहीं बनाया है लेकिन भारतीय दंड संहिता इस संबंध में लागू है। भारतीय दंड संहिता की धारा 499 में मानहानि की परिभाषा दी गई है विस्तार से और उसके अपवाद भी दिए गए हैं। धारा 500 में 2 वर्ष की सजा या जुर्माने का प्रावधान है, केवल जुर्माने का भी है। पहली बार में तो अमूूमन सजा दी नहीं जाती। थोड़ा सा जुर्माना लगा दिया जाता है। लेकिन राहुल गांधी के प्रकरण में मजिस्ट्रेट बहुत उत्साह में पाए गए हैं। एक वाक्य के ऊपर 2 बरस की सजा दे दी। जो भारत के इतिहास में शायद अनोखी है। फिर भी मानहानि का मुकदमा पुलिस के हस्तक्षेप के लिए नहीं बनाया गया अर्थात उसमें वारंट ट्रायल नहीं होगा। जहां 3 वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान होता है, वहां पुलिस हस्तक्षेप कर सकती है । इसीलिए जानबूझकर भारतीय दंड संहिता में 1860 से अभी तक अधिकतम 2 वर्ष की सजा का प्रावधान है और विकल्प में जुर्माना भी है। इससे प्रकरण की गंभीरता समझ में आती है कि कानून बनाने वालों ने उसको बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना है। गुजरात की अदालत में तो सब कुछ महत्वपूर्ण होता है क्योंकि गुजरात सारी दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण है। धारा 504 का प्रकरण बनाना तो रबर के बदले केंचुए को खींचकर बढ़ाने जैसा है। 

राहुल प्रकरण से एक चिंताजनक वैधानिक स्थिति पैदा हो रही है। मजिस्ट्रेट की क्या हालत होती है पूरे देश में। हम सब जानते हैं। इन अदालतों से कैसे भी आदेश किसी के खिलाफ भी हो जाते हैं या ले लिए जाते हैं। यदि किसी मजिस्ट्रेट को कोई अपने प्रभाव में ले ले और किसी निर्वाचित विधायक या सांसद के खिलाफ 2 बरस की सजा दिला दे। तो उसके बाद तो उस मजिस्ट्रेट के फैसले के कारण बवंडर मचेगा। राजनीति में उथल-पुथल होगी। किसी का भाग्य या उसका भविष्य खराब भी हो सकता है। अंग्रेज ने जब कानून बनाया था तब चुनाव कहां होते थे। तब मजिस्ट्रेट को केवल सजा देनी होती थी या छोडऩा होता था। अब उस सजा से चुनाव के अधिनियम को जोड़ दिया गया। तब तो हंगामा होना स्वभाविक है। ऐसे कई फैसले जानबूझकर कराए जा सकते हैं। जब देश के नेताओं के और बड़े अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय उर्फ ईडी, इन्कम टैक्स, सीबीआई सब का हंगामा है। अब तो किसी को भी 2 वर्ष की सजा दिलाना कठिन नहीं होगा। कई मुकदमों में हो चुका है। लालू यादव का मुकदमा सबको याद रखना चाहिए। ऐसी हालत में संशोधन लोक प्रतिनिधित्व कानून में होना बहुत ज़रूरी है। जब तक कोई विशेष न्यायाधिकरण किसी वरिष्ठ जज का नहीं बने तब तक उनके भाग्य को भारतीय दंड संहिता के तरह तरह के अपराधों के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए। इसी तरह अश्लीलता को लेकर भारतीय दंड संहिता में धारा 292 294 आदि हैं। वहां किसी भी लेखक की कृति को, पुस्तक को, कविता को, उपन्यास को, चित्रकला को, नाटक को लेकर कोई भी रिपोर्ट कर सकता है पुलिस में कि यह रचना अश्लील है और पुलिस उसमें हस्तक्षेप कर सकती है। एक थानेदार कविता में अश्लीलता कैसे ढूंढ लेगा? लेकिन ढूंढ लेता है। मुकदमे हो जाते हैं और अगर सजा हो गई तो वह निर्वाचित प्रतिनिधि हुआ तो एक थानेदार के विवेक पर किसी जन नेता या निर्वाचित प्रतिनिधि का पूरा भविष्य सलीब पर हो सकता है। यह अनुमति कैसे भारतीय संविधान देता है? भारतीय अपराध व्यवस्था में बहुत झोल है। सबकुछ बहुत गंभीरता से सोचा जाना चाहिए और अब तो राजनेता इस तरह के हो गए हैं कि दूसरे की गर्दन मरोडऩे में,  गड्ढे में डालने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। उनके अंदर ईमान और परस्पर सहानुभूति का तो दौर खत्म हो गया है। आगे और बुरा दौर आने वाला है। तैयार रहिए। गुजरात के ही एक मजिस्ट्रेट ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ जमानती वारंट षायद निकाल दिया था न?                                                    
 

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