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'मैं अपनी दादी का शरीर क्यों नहीं छू सकती थी?'
24-Mar-2023 9:55 PM
'मैं अपनी दादी का शरीर क्यों नहीं छू सकती थी?'

हर्षिता अपनी दादी के साथ.इमेज स्रोत,HARSHITA

अपनी दादी की मौत से पहले हर्षिता ने कभी भी उस लैंगिक भेदभाव का सामना नहीं किया था. लेकिन उस तज़ुर्बे ने हर्षिता को उस लैंगिक भेदभाव पर सवाल उठाने को मजबूर किया जिसे औरतें संस्कार और रीति-रिवाज के नाम पर झेलती रहती हैं.

बीबीसी और वीमेन्स वेब के लिए हर्षिता शारदा:-

मेरी दादी के देहांत ने मुझे हिला दिया था. हम रिश्ते की एक ख़ास डोर से बंधे थे. वो मुझे ये एहसास कराती थीं कि मैं इस दुनिया में सबसे अच्छी हूं. हर मामले में संपूर्ण.

अपनी दादी की मौत से मैंने सिर्फ़ वो इंसान ही नहीं खोया जिससे मैं बहुत प्यार करती थी, उनकी मौत ने मुझे उस भेदभाव का हिला देने वाला तज़ुर्बा भी कराया जिसकी शिकार महिलाएं उस वक़्त होती हैं, जब बात उनके प्रिय लोगों के अंतिम संस्कार की आती है.

इस साल 23 जनवरी को मैंने अपनी दादी निर्मला देवी को हमेशा के लिए खो दिया. 95 बरस की उम्र में दिल के दौरे से उनका निधन हो गया. वो इकलौती इंसान थीं जो दिल खोलकर मेरी तारीफ़ करती थीं.

जिस दिन उनका देहांत हुआ उससे एक शाम पहले ही उन्होंने मेरी बनाई हुई चाय की तारीफ़ की थी, और कहा था कि मैं अपने भाई से अच्छी चाय बना लेती हूं (भाई और मेरे बीच हमेशा इस बात की होड़ लगी रहती है कि कौन सबसे अच्छी चाय बनाता है).

हर्षिता की दादी स्कूल में प्रिंसिपल थीं

वैसे तो मेरी दादी पूरे कुनबे को बहुत प्यार करती थीं. मगर मेरे लिए तो उनके दिल में ख़ास जगह थी. वो मेरी बनाई टेढ़ी-मेढ़ी रोटियों की भी तारीफ़ करती थीं और दाल में नमक ज़्यादा हो जाए तो भी उसके क़सीदे पढ़ती थीं. यहां तक कि अगर मैं उन्हें एक गिलास पानी भी दे दूं, तो भी वो मेरे सदक़े लेने लगती थीं.

उनको दिल का दौरा पड़ा और फिर एक हफ़्ते के लिए उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. अस्पताल से ठीक होकर वो घर लौटीं. मगर चार दिन बाद ही उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली.

मैं दिल्ली में पढ़ती हूं. लेकिन अपनी दादी की सेहत ख़राब होने की ख़बर सुनकर मैं अपने घर जालंधर पहुंच गई थी. जब मेरी दादी अपनी ज़िंदगी के आख़िरी पलों में थीं, तो उनकी एक आख़िरी ख़्वाहिश थी. वो ज़मीन पर लेटे-लेटे दम तोड़ना चाहती थीं. उनकी ये इच्छा पूरी करने के लिए मेरे पिता ने उन्हें ज़मीन पर लिटाने का फ़ैसला किया.

जब वो उन्हें बिस्तर से उठा रहे थे तो उन्होंने मदद के लिए हाथ लगाने को कहा. जैसे ही मैं अपने पिता की मदद के लिए आगे बढ़ी तो मेरी दादी की देख-रेख के लिए नियुक्त की गई महिला ने ये कहते हुए मेरा हाथ हटा दिया कि मुझे मेरी दादी को नहीं छूना चाहिए, वरना मेरे छूने से उन्हें श्राप लगेगा.

उस महिला की बात पर मैं भड़क उठी और चिल्लाते हुए कहा कि अगर मैं अपनी दादी को छूती हूं तो इससे उन्हें ख़ुशी होगी क्योंकि वो मुझसे बहुत प्यार करती हैं. ये कहने के बाद मैं रोते हुए कमरे से बाहर चली गई क्योंकि मेरे लिए वो मौक़ा ऐसा नहीं था कि मैं उस मर्दवादी उसूल के ख़िलाफ़ जंग छेड़ती.

मेरे माता-पिता ने भी उस महिला की बात पर एतराज़ जताया और मुझे कमरे में वापस बुलाया. लेकिन उस औरत की बात का मेरे दिल पर ऐसा बुरा असर हुआ था कि मैं उस कमरे में नहीं जा सकी.

हालांकि, बात इतने पर ही नहीं ख़त्म हुई. जब लोगों ने मेरी दादी को बिस्तर से उठाकर ज़मीन पर लिटाया तो जिस चादर पर वो लेटी थीं, वो फट गई. तब दादी की देखभाल कर रही वो महिला मेरे पास आई और बोली, ''तुमने उन्हें छू लिया था, बस इससे ही उन्हें उठाने में एक आदमी लड़खड़ा गया.''

मुझे तो यक़ीन ही नहीं हुआ कि ये मैं क्या सुन रही हूं. वो मुझे बता रही थी कि मेरे छूने भर से मेरी दादी को अगले जन्म में श्राप लग जाएगा. मेरे मुंह से एक भी लफ़्ज़ नहीं फूटा. जो कुछ हो रहा था उसे देखकर मैं इस क़दर जज़्बाती हो रही थी कि मैं उस महिला को ये भी नहीं कह सकी कि वो ग़लत है. या उसे पता नहीं कि मेरी दादी से मेरा कितना जुड़ाव था. हम दोनों का रिश्ता कैसा था.

मैं ऐसे परिवार में पली बढ़ी हूं, जहां बेटे और बेटी को बराबर का दर्जा दिया जाता है. मैंने और मेरे भाई ने ज़िंदगी में जो कुछ भी करना चाहा, मेरे मां-बाप ने हमेशा हमारा हौसला ही बढ़ाया. मेरी दादी ने भी हम दोनों के बीच कभी फ़र्क़ नहीं किया.

ऐसे में एक अजनबी की ज़ुबान से ये सुनकर मेरे दिल को बहुत ठेस पहुंची थी कि मुझे अपनी दादी को नहीं छूना चाहिए, वरना उन्हें श्राप लग जाएगा. ये तो दोहरी मार पड़ने जैसा था. मुझे न केवल मेरी प्यारी दादी से बिछड़ने का ग़म बर्दाश्त करना था, बल्कि इस मर्दवादी समाज के तय किए गए भेदभाव भरे नियम से भी दो-चार होना पड़ा था.

'मज़बूत इरादों वाली महिला थीं दादी'
मैं बचपन से ही मज़बूत इरादों वाली औरतों के साये में रही हूं. मैं अपनी मां और दादी, नानी को अपने लिए प्रेरणा मानती हूं.

मेरी दादी ने बहुत कम उम्र में अपने पति को खो दिया था. लोग उन्हें बार-बार दोबारा शादी करने के लिए कहते रहे. लेकिन, दादी ने दोबारा शादी नहीं करने का फ़ैसला किया. वो अपने फ़ैसले पर अड़ी रहीं. वो पढ़ना चाहती थीं. इसीलिए उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी. उनकी कड़ी मेहनत रंग लाई और वो एक स्कूल में प्रिंसिपल बन गईं.

मेरी दादी को कभी बच्चे नहीं हुए. लेकिन वो मेरे पिता को अपने बेटे की तरह बहुत चाहती थीं. जबकि वो उनकी बहन के बेटे थे. हम उन्हें बड़ी दादी कहा करते थे. वो मज़बूत इरादों वाली महिला थीं, जिनकी ख़ुशी किसी मर्द के साथ की मोहताज नहीं थी.

उन्होंने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जिया और वो उस दौर में एक कामकाजी महिला की मिसाल थीं, जब औरतों को घर से बाहर पैर निकालने तक की इजाज़त नहीं मिलती थी.

उनकी मौत ने मुझे बहुत से सवाल उठाने को मजबूर कर दिया. अंतिम संस्कार करते वक़्त मर्दों को अहमियत दी जाती है. पर एक महिलावादी होने के नाते, क्या मेरी दादी इस बात पर रज़ामंद हुई होतीं? अगर मैं मौत से पहले उनके क़रीब होती, और उनके आख़िरी सांस लेने से पहले अगर मैं उन्हें छू लेती तो इसमें क्या ग़लत होता?

बेटों को ही क्यों अंतिम संस्कार की इजाज़त?

जब मैं अस्पताल में उनकी देख-रेख कर रही थी, तब तो मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि मैं बेटा हूं या बेटी. तो फिर उनकी मौत के बाद अचानक सब कुछ बदल क्यों गया? मुझे याद है कि उनके आख़िरी सांस लेने से पहले मैंने अपने माता-पिता के साथ उनके मुंह में गंगाजल डाला था. मेरे माता-पिता को पता था कि मैं उनसे जज़्बाती तौर पर कितनी जुड़ी हूं. इसीलिए उन्होंने कभी भी मुझे कुछ भी करने से नहीं रोका. लेकिन जैसे ही हमारे इर्द-गिर्द दूसरे लोग जमा हुए तो हालात अचानक बदल गए.

इससे मुझे वो वक़्त भी याद आया जब मेरी नानी गुज़र गई थीं. तब पास में ही रहने वाली एक औरत ने मुझे और मेरी ममेरी बहनों को श्मशान घाट जाने से मना करते हुए कहा था कि हम घर में ही रहें और घर की साफ़ सफ़ाई करें. लेकिन मेरी मां और मेरी मामी ने हम तीनों को श्मशान घाट जाने दिया था. अगर हमारा परिवार हमारे साथ नहीं खड़ा होता तो हम सब अपनी नानी का अंतिम संस्कार नहीं देख पाते.

जब मैंने पूछा कि सिर्फ़ बेटों को ही अपने मां-बाप के अंतिम संस्कार की इजाज़त क्यों दी जाती है, तो मुझे अलग अलग जवाब मिले. इनमें से कोई भी जवाब तसल्लीबख़्श नहीं था. कई जगहों पर तो महिलाओं को अंतिम संस्कार की इजाज़त देना तो दूर, उन्हें श्मशान घाट में दाख़िल तक नहीं होने दिया जाता.

क्या लोग इसीलिए लड़कों को लड़कियों पर तरजीह देते हैं कि मरने के बाद उनका अंतिम संस्कार करने के लिए कोई बेटा होगा? क्या इसी से उन्हें मौत के बाद शांति मिलती है? क्या ऊपरवाला औरतों और मर्दों में फ़र्क़ करता है जिन्हें ख़ुद उसी ने बनाया है?

जब किसी के प्रिय इंसान की मौत होती है, तो आप बस उसके कमरे के बारे में सोच पाते हो जो अब खाली रहेगा. आप सोचते हैं कि आपको अब उनकी आवाज़ कभी भी नहीं सुनाई देगी, और न ही फिर कभी उनके प्यार भरे स्पर्श का एहसास होगा. शायद अपनी दादी को आख़िरी बार छू लेने और उनके अंतिम संस्कार का हिस्सा बनने से मुझे उन्हें हमेशा के लिए अलविदा कह पाने की ताक़त मिलती.

मुझे सिर्फ़ एक बात का यक़ीन है कि अगर उस वक़्त मेरी दादी होश में होतीं, तो मुझे छूने से रोकने पर वो सबको फटकार ज़रूर लगातीं. (bbc.com/hindi)

(प्रोड्यूसर- ख़ुशबू संधू; सिरीज़ प्रोड्यूसर- दिव्या आर्य)

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