संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ पिछले कुछ मुख्य न्यायाधीशों के मुकाबले अधिक मुखर हैं, और अपनी सोच को खुलकर सामने रखते हैं। उन्होंने अभी सार्वजनिक रूप से यह कहा कि अदालतों को सीलबंद लिफाफों का सिलसिला खत्म करना चाहिए। आमतौर पर जब सरकार किसी मुकदमे में एक हिस्सा होती है, तो वह कई किस्म की जानकारी संवेदनशील बताते हुए उसे सीलबंद लिफाफे में अदालत को पेश करती है। अभी ऐसा ताजा मामला अडानी के खिलाफ जांच को लेकर था, जिसमें सरकार ने अपनी तरफ से जांच टीम के लिए सदस्यों के नाम सुझाए थे लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने उस लिफाफे को खोलने से ही इंकार कर दिया था, और साफ किया था कि जनता के बीच पारदर्शिता के लिए यह जरूरी है कि सीलबंद लिफाफों का सिलसिला खत्म किया जाए। उन्होंने यह भी कहा था कि वे सरकार के सुझाए नाम देखना भी नहीं चाहते, क्योंकि उसके बाद वे अगर दूसरे लोगों को भी जांच कमेटी में रखेंगे, तो भी जनता के बीच उसकी विश्वसनीयता नहीं रहेगी। देश की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी गोपनीय जानकारी को लेकर भी कभी-कभी सरकार अदालत से बंद कमरे में सुनवाई की मांग करती है ताकि सुनवाई की जानकारी मीडिया के मार्फत जनता तक न पहुंचे।
मुख्य न्यायाधीश का यह रूख बड़ा पारदर्शी और लोकतांत्रिक है। लेकिन इसे एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ है कि एक ताजा मामले में अदालत का रूख बदला हुआ नजर आता है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज पर उनकी एक सहयोगी कर्मचारी ने यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया था। इस पर जब जज ने इसके खिलाफ मानहानि का केस किया, तो इस महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि केस को दिल्ली हाईकोर्ट के बजाय किसी और अदालत भेजा जाए क्योंकि दिल्ली हाईकोर्ट के अधिकतर जज इस सुप्रीम कोर्ट जज के साथ काम किए हुए हैं, और वहां उसे इंसाफ की उम्मीद नहीं है। खैर, इसके बाद हुआ यह कि इस जज (अब भूतपूर्व) और इस सहयोगी महिला के बीच किसी तरह का कोई समझौता हुआ, और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने मामले की पूरी कार्रवाई को सीलबंद करके रिकॉर्ड रूम में रखने का आदेश दिया, और केस को खत्म कर दिया। ऐसे में इस पूर्व जज के वकील ने मांग की कि जब समझौता हो गया है तो सोशल मीडिया को यह आदेश दिया जाए कि वे इस मामले का सारा रिकॉर्ड हटा दें। इस पर जजों ने हैरानी के साथ कहा कि ऐसा आदेश वे कैसे दे सकते हैं क्योंकि मीडिया ने तो वही लिखा है जो खुली अदालत में कहा गया था। हटाने का ऐसा आदेश करना जायज नहीं होगा।
अब यहां पर एक सवाल उठता है कि अगर यह मामला खुली अदालत में ही चल रहा था, और उसकी रिपोर्टिंग मीडिया में हो रही थी, उसमें दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का वक्त लग रहा था, तो क्या आज दोनों पक्षों के बीच अदालत के बाहर होने वाले किसी समझौते की वजह से केस को बंद करके रिकॉर्ड को सील कर देना ठीक है? यह मामला किसी घर के भीतर शोषण का नहीं है, यह मामला यह सुप्रीम कोर्ट के एक जज का अपनी एक इंटर्न के साथ किए गए बर्ताव का है जिस पर महिला इंटर्न ने यौन उत्पीडऩ की रिपोर्ट लिखाई थी। हम हिन्दुस्तानी कानून के मुताबिक यौन उत्पीडऩ की शिकार महिला की पहचान छुपाए रखने के हिमायती हैं। लेकिन जनता के पैसों से तनख्वाह पाने वाला सुप्रीम कोर्ट के जज सरीखे बड़े ओहदे पर बैठा हुआ आदमी अगर अपनी मातहत के यौन उत्पीडऩ का आरोपी है, तो क्या इस मामले में हुए समझौते की जानकारी उस महिला के नाम बिना जनता के सामने नहीं आनी चाहिए? यह बात हम इसलिए लिख रहे हैं कि यह सुप्रीम कोर्ट जज के अदालती कामकाज से जुड़ी हुई व्यवस्था का मामला है, और इस बारे में जब ऐसी शिकायत हुई थी, तो समझौते का बाद भी जनता को यह मालूम होना चाहिए कि समझौता हुआ क्या है? यह मामला एक आपराधिक बर्ताव का मामला है, और इसे निजी कहकर खत्म कर देना जायज नहीं होगा। इस मामले में अदालत को अगर यह लगता है कि एक समझौता हो गया है, और मामला आगे चलने की जरूरत नहीं है, तो भी जनता को सुप्रीम कोर्ट के अपने जज के खिलाफ दायर किए गए इस मामले में तथ्य जानने का हक है। हमारा ख्याल है कि यौन उत्पीडऩ के मामलों में महिला को तो अपनी शिनाख्त छुपाए रखने का हक है, और यह कानून और मीडिया की जिम्मेदारी भी है। लेकिन जिसके खिलाफ ऐसी शिकायत हुई है, उसे मामले के सीलबंद कर दिए जाने की रियायत क्यों मिलनी चाहिए? क्या सुप्रीम कोर्ट जज की जगह कोई आम आदमी होता, तो भी क्या उसे ऐसी रियायत मिली होती?
एक तरफ तो सीजेआई का रूख सीलबंद लिफाफों के खिलाफ दिखता है, दूसरी तरफ अपने आचरण के लिए संविधान और जनता दोनों के प्रति जवाबदेह, सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर लगी इतनी बड़ी तोहमत अदालत के बाहर के किसी रहस्यमय और गोपनीय सौदे या समझौते से अगर हट भी रही है, तो भी वह जनता के सामने आनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के जज को अपने आचरण के लिए संदेह से परे रहना चाहिए। दुनिया में बड़े लोगों को अपना आचरण संदेह से परे रखने के लिए कहा जाता है। लोकतंत्र के पहले भी राजाओं के लिए यह एक आदर्श गिनाया जाता था, और हिन्दुस्तान में राम की कहानियों में जगह-जगह इसकी मिसाल मिलती है। हम सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा या रिटायर्ड किसी भी तरह के जज के कामकाज से जुड़े, ओहदे और दफ्तर से जुड़े ऐसी किसी विवाद को निजी नहीं मानते जिसे लेकर अदालत में एक केस दायर किया जा चुका था। ऐसी अदालती लड़ाई किसी बाहरी, निजी, और गोपनीय समझौते के तहत जजों के सामने तो खत्म हो सकती है, लेकिन इससे जनता के प्रति अदालत और जजों की जवाबदेही खत्म नहीं हो जाती। उस महिला की पहचान गोपनीय बनाए रखने के साथ-साथ इस समझौते को उजागर करना चाहिए, इसे ठीक उसी तरह अदालती कागजात का हिस्सा बनाना चाहिए जिस तरह कोई भी दूसरे मामले रहते हैं, वरना यह अदालतों का अपने आपको पारदर्शिता से परे रखने का काम कहलाएगा जिससे उसकी साख खत्म होगी। यौन उत्पीडऩ का मामला ऐसा नहीं है कि जिसे दफन कर देना किसी जज का हक हो। यहां पर बात हक की नहीं जवाबदेही की है।
सुप्रीम कोर्ट वैसे भी अपनी साख पिछले एक मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर एक मातहत महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोपों में बुरी तरह खो चुका है, क्योंकि उसने बंगले पर यौन शोषण के खिलाफ शिकायत की थी, और उसकी सुनवाई करने के लिए खुद रंजन गोगोई जज बनकर बैठे थे। हमारा ख्याल है कि इस किस्म की इससे बुरी मिसाल और कुछ नहीं हो सकती थी। और बाद में यह आरोप भी सामने आए थे कि जिस महिला ने यह आरोप लगाया था, उसके मोबाइल फोन पर पेगासस से घुसपैठ की गई थी। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ को पारदर्शिता के अपने पैमाने पर खरा उतरना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)