संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जानवरों के हक के पैसों से राष्ट्रपति की मेजबानी
29-Mar-2023 2:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जानवरों के हक के पैसों से राष्ट्रपति की मेजबानी

आरटीआई ने हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को कुछ हद तक तो झकझोर कर रख दिया है। सरकारें जिस सामंती अंदाज में चला करती थीं, उनके वे अंदाज अब उनकी लाख कोशिशों के बावजूद उजागर होने लगे हैं। सरकारों के भ्रष्टाचार, सरकारों की मनमानी के बारे में आरटीआई से जो जानकारी निकलती है उसे पहले नौकरशाह अपनी जागीर के स्टाम्प पेपर की तरह कुर्सी की गद्दी के नीचे दबाकर उस पर सवार बैठते थे। लेकिन अब कम से कम कुछ मामलों में आरटीआई काम आने लगी है, और कई मामलों में सरकारें सुप्रीम कोर्ट तक चली जाती हैं कि वे आरटीआई में जानकारी नहीं देंगी। ऐसी ही एक जानकारी असम के वन्यप्राणी विभाग से एक सामाजिक कार्यकर्ता ने निकलवाने में कामयाबी पाई है जिससे पता लगता है कि पिछले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के काजीरंगा नेशनल पार्क जाने पर उनके इंतजाम में शेर-संरक्षण के मद से एक करोड़ दस लाख रूपये खर्च किए गए थे। यह रकम खर्च करके राष्ट्रपति के लिए रंगरोगन करवाया गया, तम्बू लगाए गए, हवा साफ करने वाले एयर-प्यूरीफायर खरीदे गए, और राष्ट्रपति के लावलश्कर के खाने-पीने का इंतजाम किया गया। यह बात सरकार के अपने रिकॉर्ड से साबित हुई कि टाइगर फाउंडेशन से खर्च इस एक करोड़ दस लाख के अलावा 51 लाख रूपये वन्यप्राणी फंड से भी खर्च किए गए। अब देश में कौन शेर है कौन नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन राष्ट्रपति की खातिरदारी असम सरकार ने शेरों और दूसरे जानवरों को बचाने के फंड से की। असम के शेर-संरक्षण के नियम कहते हैं कि इस फंड का 90 फीसदी हिस्सा पर्यावरण को शेर के अनुकूल रखने, और इस इलाके की ग्रामीण स्तर की कमेटियों को मजबूत करने पर खर्च किया जाएगा ताकि इंसानों का जानवरों से टकराव कम हो। इसके अलावा बचा 10 फीसदी पैसा सोसायटी के एफडी में रखा जाना चाहिए।

अब सवाल यह उठता है कि क्या देश के सबसे बड़े ओहदे पर बैठे हुए मेहमान के लिए असम सरकार के पास खातिरदारी को और कोई पैसा नहीं था? पूरे देश में जगह-जगह नेताओं और अफसरों पर होने वाला खर्च किसी न किसी दूसरे के हक का होता है। कहीं वृक्षारोपण के पैसे से मंत्री और अफसरों, और उनके कुनबों की खातिरदारी का इंतजाम होता है, तो कहीं सुप्रीम कोर्ट की निगरानी वाले कैम्पा मद के सैकड़ों करोड़ रूपये नेताओं और अफसरों की मनमानी के कामों पर खर्च होते हैं। कुछ ऐसा ही जिला खनिज निधि के सैकड़ों करोड़ का होता है, और कलेक्टर अपनी मर्जी से ऐसे काम मंजूर करते हैं जिसमें सबसे मोटी रिश्वत मिल सके। अगर संवैधानिक कुर्सियों पर बैठे हुए बड़े-बड़े लोग देश के किसी हिस्से में जाते हुए महज एक चि_ी लिख दें कि उनके प्रवास के इंतजाम में सौ फीसदी सादगी बरती जाए, कोई रंगरोगन न किया जाए, कोई सडक़ न बनाई जाए, सोफा-पलंग, पर्दे कुछ भी न बदले जाएं, और उन पर किए गए खर्च किस मद से हुए, इसका हिसाब उन्हें दिया जाए, तो ही देश में हर दिन दस-बीस करोड़ रूपये बचने लगेंगे क्योंकि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक, और सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट के जजों तक, सबके इंतजाम में अंधाधुंध, और गैरजरूरी खर्च किया जाता है। यह सिलसिला पूरी तरह अलोकतांत्रिक है, और खत्म होना चाहिए। लोगों को याद होगा कि अभी जब गुजरात के मोरवी में एक झूलता हुआ पूल टूटा और बहुत से लोगों की मौतें हुईं, तो वहां प्रधानमंत्री के पहुंचने के पहले पूरे अस्पताल का रंगरोगन हुआ, रातोंरात सडक़ें बनाई गईं। अगर कोई खर्च होना था तो वह अस्पताल पर होना था, और वह खर्च प्रधानमंत्री प्रवास पर हुआ। यह सिलसिला सामंती भी है, और अमानवीय भी है। देश में गरीबी बहुत है, और आधी आबादी शायद इसलिए जिंदा है कि उसे मुफ्त या लगभग मुफ्त सरकारी राशन मिलता है। स्कूलों में जाने वाले बच्चे इसलिए कुपोषण में गहरे डूबने से बचे हैं कि उन्हें स्कूलों में दोपहर का भोजन मिलता है। मिड-डे-मील की वजह से देश कुपोषण से कुछ हद तक उबर पाया है। ऐसे देश में रेलवे के बड़े अफसरों के दौरे के लिए अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे, सैलून कहे जाने वाले खास डिब्बे जोड़े जाते हैं, जिनका और कोई इस्तेमाल नहीं होता। राष्ट्रपति भवन से लेकर प्रधानमंत्री के नए बन रहे आवास तक, और सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट की इमारतों से लेकर भीतर के ढांचों तक हिन्दुस्तान में अलोकतांत्रिक सामंती सिलसिला दिखता है। राज्यों के राजभवनों में पुलिस बैंड और पुलिस की सलामी गारद तैनात रहते हैं, जिनमें दर्जनों पुलिसवाले बर्बाद होते हैं। यह बैंड राज्यपाल के किसी भी कार्यक्रम में पहले और बाद में राष्ट्रगान बजाने के लिए बस में सवार होकर आता-जाता है, और यह मान लिया जाता है कि देश की जनता खुद तो राष्ट्रगान गा ही नहीं सकती। राष्ट्रगान की याद दिलाने के लिए ऐसे सामंती इंतजाम की क्या जरूरत है? और झंडा फहराने और उतारने के लिए एक पूरी सलामी गारद क्यों तैनात की जाती है? राष्ट्रपति के अंगरक्षकों के नाम पर घुड़सवार लोगों का एक पूरा दस्ता क्यों चले आ रहा है? इन पर लाखों रूपये रोज का खर्च होता है, और क्या आज हिन्दुस्तान के राष्ट्रपति इस हिफाजत पर जिंदा हैं? 

यह पूरा सिलसिला खत्म करवाने के लिए किसी अदालत जाने का भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि बड़ी अदालतों के जज खुद भी एक सामंती जिंदगी जीना पसंद करते हैं। हाईकोर्ट के जज सडक़ से सफर करते हैं, तो उनके सामने सायरन बजाती पुलिस पायलट गाड़ी चलती है, और उनके पीछे भी सुरक्षा गाड़ी या दूसरी गाडिय़ां रहती हैं। अब अपने ही देश-प्रदेश की जनता को सडक़ों पर से धकियाकर अलग करके जो जज सायरन के साये में रफ्तार से कहीं पहुंच जाते हैं, क्या वे किसी की मौत की सजा रोकने की हड़बड़ी में रहते हैं? अगर उनके वक्त की इतनी कीमत है, तो फिर सडक़ों पर से गुजर रहे किसी मजदूर या कारीगर का वक्त भी उनसे अधिक कीमती है क्योंकि उससे उसकी रोज की जिंदा रहने की ताकत जुड़ी हुई है। दूसरों को किनारे धकियाकर मंत्री-मुख्यमंत्री, या कई मामलों में बड़े अफसर भी चलते हैं, और रास्ता देने को मजबूर हुए लोग उन्हें गालियां देते हुए लोकतंत्र पर भरोसा खोते जाते हैं। 

असम में राष्ट्रपति की खातिरदारी के इस हिसाब-किताब को देखकर यह समझ पड़ता है कि हर प्रदेश के आरटीआई कार्यकर्ताओं को तैयार रहना चाहिए कि कब किस खास व्यक्ति के आने पर क्या-क्या खर्च किया गया, वह किस मद से आया। सार्वजनिक जगहों पर होने वाले दूसरे किस्म के खर्च का हिसाब-किताब भी निकलवाते रहना चाहिए, और यह भांडा फोड़ते रहना चाहिए कि कितने बरस के भीतर ही फुटपाथ दुबारा बन रहे हैं, दीवारें नई खड़ी हो रही हैं, या सडक़ों को बार-बार बनाया जा रहा है। सत्ता के सामंती मिजाज के साथ जनता के हकों की यह लड़ाई चलती ही रहेगी, और इसमें जनता को थकना नहीं चाहिए, सत्ता को छेकना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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