संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भूख की खबर पर पत्रकार गिरफ्तार, देश पर धिक्कार
31-Mar-2023 3:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भूख की खबर पर पत्रकार  गिरफ्तार, देश पर धिक्कार

photo : SAZID HOSSAIN

बांग्लादेश में एक अखबार के रिपोर्टर को एक झूठी खबर प्रकाशित करने की तोहमत लगाकर सरकार ने जेल भेज दिया है। यह रिपोर्ट स्वतंत्रता दिवस पर 26 मार्च को प्रकाशित हुई थी जिसमें कई आम नागरिकों की जिंदगी के बारे में उनका कहा हुआ छापा गया था। एक मजदूर की यह बात इसमें छपी थी जिसका कहना था- इस आजादी का क्या मतलब है अगर हम चावल तक भी नहीं खरीद सकते। और इस मजदूर की बात बांग्लादेश में खाने-पीने के सामानों की महंगाई की एक सही तस्वीर थी। लेकिन यह अखबार एक विपक्षी दल का समर्थक है, और इसलिए सरकार ने इसे जनता के बीच असंतोष पैदा करने के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादे से तथ्यों को पेश करना बताया है। और यह कार्रवाई एक नागरिक की तरफ से दर्ज करवाई गई शिकायत पर की गई है। अखबार के संपादक और प्रकाशक के खिलाफ भी इस खबर को लेकर कार्रवाई करने की बात बांग्लादेश के कानून मंत्री ने कही है। 

सरकारों का अगर बस चले तो वे सबसे पहले अखबारों से छुटकारा पाएं। देश-प्रदेश में विपक्ष के अलावा मुद्दों को उठाने का काम अखबार करता है, और उससे छुटकारा पाने के कई अलग-अलग तरीके अलग-अलग सरकारें ईजाद कर लेती हैं। इनमें यह बांग्लादेशी तरीका सबसे ही रद्दी तरीका है। बेहतर तरीका तो यह होता है कि आलोचक या असहमत अखबार की किसी कमजोर नब्ज को जकडक़र रखा जाए, और उसकी बोलती बंद रखी जाए। हिन्दुस्तान में ऐसी कई मिसालें हैं जिनमें अधिक आक्रामक या कटुआलोचक ईमानदार अखबार के सामने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी गईं कि प्रकाशक को वह कारोबार बेचना पड़ा, और उसके बाद नए मालिकान सरकार के हिमायती आए। ऐसा सिर्फ देश में होता है यह जरूरी नहीं है, बहुत से प्रदेशों में ऐसा ही होता है। बांग्लादेश का यह ताजा मामला तो विपक्षी समर्थक अखबार में भी एक बड़ा मासूम मामला दिखता है। आज तो तकरीबन तमाम दुनिया में खाने-पीने की चीजों तक लोगों की पहुंच घटती जा रही है। महंगाई बढ़ रही है, लोग रोजगार खो रहे हैं, गुजारा मुश्किल से हो रहा है। ऐसे में अगर बांग्लादेश जैसे दिक्कत झेल रहे देश में किसी गरीब ने अपनी तकलीफ बताई है, और उस पर अखबार ने रिपोर्ट बनाई है, तो इस पर कार्रवाई शर्मनाक है। इससे बांग्लादेश की एक लोकतंत्र के रूप में इज्जत गिरती है, और आज दुनिया के बहुत से देश ऐसे हैं जो किसी देश के साथ कारोबारी या दूसरे किस्म के रिश्ते बनाते हुए यह भी देखते हैं कि वहां लोकतंत्र का क्या हाल है? लोगों को याद होगा कि भारत के कालीन उद्योग में बड़े पैमाने पर बाल मजदूर होने की वजह से बहुत से सभ्य और विकसित लोकतंत्रों ने हिन्दुस्तानी कालीन खरीदने से मना कर दिया था। आज बांग्लादेश में जितनी कम मजदूरी पर अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के कपड़े-जूते बनते हैं, उस मजदूरी को लेकर भी योरप के देशों में बड़ी फिक्र जाहिर की जा रही है, और ऐसे ब्रांड के बहिष्कार की बात भी उठती है। 

हम आज की दुनिया में किसी एक देश में अलोकतांत्रिक बातों को उसका घरेलू मामला नहीं मानते, हमारा मानना है कि बाकी दुनिया को भी उस पर बोलने का हक है, जिस तरह बांग्लादेश के इस घरेलू मामले पर बोल रहे हैं, या जिस तरह एक जर्मन मंत्री ने राहुल गांधी के लोकसभा से निष्कासन पर कुछ कहा है, या जिस तरह संयुक्त राष्ट्र और अमरीका भारत के कुछ दूसरे साम्प्रदायिक मामलों पर बोल चुके हैं। दुनिया के देश ऐसे स्वायत्तशासी टापू नहीं हैं कि उन्हें एक-दूसरे को देखने की मनाही हो। लोगों की आवाजाही से लेकर कारोबार तक, और आर्थिक मदद से लेकर कर्ज तक, अनगिनत ऐसे मामले हैं जिनमें तमाम देश एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। इसलिए कोई देश अपनी प्रेस पर, अपनी जनता पर जुल्म करते हुए बाकी दुनिया को आंखें बंद रखने को नहीं कह सकते। लोग एक-दूसरे के मामलों पर बोलेंगे, और यही एक विश्व समुदाय की पहचान है। जिस तरह एक वक्त गांवों में लोगों का एक-दूसरे पर सामाजिक दबाव होता था, और लोग दूसरों का लिहाज करते हुए, गलत काम करने से झिझकते थे कि लोग टोकेंगे। आज भी हालत वैसी ही है। आज हिन्दुस्तानी अखबारों के संगठनों को भारतीय मामलों के साथ-साथ बांग्लादेश के इस ताजा मामले पर भी बोलना चाहिए। हिन्दुस्तान की सरकार तो शायद ही मुंह खोलेगी, लेकिन हिन्दुस्तान सरकार से परे एक देश भी है, लोकतंत्र भी है, समाज भी है, और एक जुबान भी है। हिन्दुस्तानी लोगों को दूसरे देशों के घरेलू मामलों पर अपनी राय जाहिर करना बंद नहीं करना चाहिए। दुनिया में जहां बेइंसाफी होते दिखे, वहां उसका विरोध करना चाहिए। आज संचार के साधनों और सोशल मीडिया के चलते अमरीकी राष्ट्रपति की किसी घोषणा के अगले ही पल हिन्दुस्तान के गांव में बैठे लोग भी उस पर अपनी राय जाहिर कर सकते हैं, और उसे कोई रोकते भी नहीं हैं। लगातार अंतरराष्ट्रीय मामलों पर बोलने से हो सकता है कि हिन्दुस्तानियों के भीतर अपने ही देश के अखबार को बचाने का हौसला भी जुट जाए। आज तो ईमानदार और मुखर अखबार सरकारों के निशाने पर रहते हैं, और देश की सरकारों की आलोचना में आम जनता को भी खतरा दिखता है। इसलिए बाहर की सरकारों के जुल्म पर बोलने की आदत जारी रखना चाहिए, जिससे धीरे-धीरे अपनी सरकार पर कुछ बोलने की हिम्मत भी किसी दिन आ जाए। 

जिस देश-प्रदेश की सरकार जनता की बुनियादी दिक्कतों, और उसकी जायज नाराजगी को भी अखबारों से दूर रखना चाहती है, या अखबारों को उनसे दूर रखना चाहती है, वे उसी तरह चुनाव हार सकती हैं जिस तरह इमरजेंसी में अखबारों को चापलूस बनाकर, उनकी आवाज खत्म करके इंदिरा गांधी हकीकत से दूर रहीं, और चुनाव हार बैठीं। जनता अगर चावल खरीदने की हालत में नहीं हैं, और सरकार यह भी सुनना नहीं चाहती हैं, तो फिर ऐसी भूख को बगावत में बदलने में अधिक वक्त नहीं लगता। हर सरकार को अखबारों को कुचलते हुए ऐसे खतरों को याद रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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