संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लंबी राजनीतिक अस्थिरता ने पंजाब में फिर खड़ा किया खालिस्तान का दब चुका मुद्दा
01-Apr-2023 3:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लंबी राजनीतिक अस्थिरता ने  पंजाब में फिर खड़ा किया खालिस्तान का दब चुका मुद्दा

लोकतंत्र में राजनीतिक स्थिरता या राजनीतिक अस्थिरता अधिक होने के अपने-अपने खतरे होते हैं। जहां बहुत अधिक स्थिरता हो जाती है, वहां पर सरकार बददिमाग हो जाती है, और संसदीय बाहुबल से काम करने लगती हैं, उसे जनता की नाराजगी की भी अधिक परवाह नहीं रह जाती क्योंकि पांच बरस में वोट गिरेंगे तो कितने गिरेंगे? दूसरी तरफ राजनीतिक अस्थिरता के अपने नुकसान होते हैं। बाईस बरस पहले देश में तीन नए राज्य बने थे, और इनमें से दो राज्यों में खूब अस्थिरता रही, मुख्यमंत्री बार-बार बदले गए, सरकारें पलटने की नौबत रही, और उसका बड़ा नुकसान हुआ। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ इन तीनों में से अकेला ऐसा राज्य रहा जहां खूब स्थिरता रही, अब तक की तीनों सरकारों में से किसी को गिराने की नौबत नहीं रही, लेकिन ऐसी स्थिरता के नुकसान भी इस राज्य को देखने मिले, लेकिन आज इन तीनों राज्यों पर चर्चा का मौका नहीं है, एक अलग राज्य पर बात करनी है। 

पंजाब को देखें तो वह दो तरह के खतरों से घिरा दिखने लगा है। एक तरफ तो देश के भीतर इस प्रदेश में, और बाहर पश्चिम के कुछ देशों में लगातार खालिस्तानी हलचल शुरू हो गई दिख रही है। आज चाहे वह महज कैमरों के सामने दिखने के लिए कुछ सौ या कुछ हजार लोगों तक सीमित है, लेकिन ऐसे ही लोग हिन्दुस्तान के खालिस्तानी आंदोलन के लिए चंदा भी भेजते हैं। अब खुद पंजाब के भीतर खालिस्तान का मुद्दा उठाने वाले लोग फिर सिर उठाने लगे हैं, और उनकी आक्रामक भीड़ के सामने पंजाब की पुलिस और सरकार अभी बुरी तरह बेबस दिखी हैं। यह नौबत कम खतरनाक नहीं है क्योंकि अभी कुछ ही दशक हुए हैं कि पंजाब आतंक के बहुत लंबे और बहुत खूनी दौर से गुजरा था। अनगिनत जानें गई थीं, और उसी सिलसिले में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या भी हुई थी, और उसके बाद देश भर में जगह-जगह सिक्ख विरोधी दंगे हुए थे जिसमें भी बहुत सी मौतें हुई थीं। पंजाब में देश से अलग एक खालिस्तान बनाने की मांग की पुरानी और गहरी जड़ें हैं, अब अगर जमीन के ऊपर इसका अंकुर फूटते दिख रहा है, तो यह कम फिक्र की बात नहीं है। और इस बात को हम सीधे-सीधे पंजाब की एक अस्थिरता से जोडक़र देख रहे हैं।

लोगों को इस राज्य का ताजा इतिहास देखना चाहिए जब कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी ही पार्टी की नजरों की किरकिरी बन गए थे, और पार्टी के मौजूदा नेताओं के मुकाबले वे अपने को अधिक बड़ा भी समझते थे। नतीजा यह हुआ कि तनातनी के एक लंबे दौर के बाद कैप्टन ने कांग्रेस छोड़ी, और घरेलू कलह से जूझ रही पंजाब कांग्रेस बहुत मुश्किल से एक महत्वहीन सा मुख्यमंत्री बना पाई। कांग्रेस में पहले से नेतृत्व का झगड़ा इस प्रदेश को खा रहा था, और वह अगले विधानसभा चुनाव तक जारी रहा, और एक अलग किस्म की राजनीतिक अस्थिरता के ये बरस आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने का मौका दे गए। अब आम आदमी पार्टी के साथ एक दिक्कत यह है कि वह पंजाब के पहले सिर्फ एक शहर की पार्टी थी। एक म्युनिसिपल की तरह की दिल्ली में सरकार बनाने और चलाने का मामला किसी दूसरे और बड़े राज्य से बिल्कुल अलग रहता है, और पंजाब में आप के मुख्यमंत्री बिना किसी तजुर्बे के भी थे, खुद पार्टी की कोई राष्ट्रीय सोच नहीं है, और अगर अरविंद केजरीवाल के एक पुराने साथी कुमार विश्वास की बात पर भरोसा किया जाए, तो केजरीवाल पंजाब चुनाव के पहले भी खालिस्तान का जिक्र कर चुके थे कि अगर वहां आप नहीं आई, तो खालिस्तान आ जाएगा। ऐसी तमाम बातों के बीच जिस तरह दिल्ली में इस पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार के मामलों से घिरी हुई है, उसी तरह पंजाब में भी इसकी सरकार के मंत्री भ्रष्टाचार में गिरफ्तार हुए, मुख्यमंत्री देश-विदेश में कई मौकों पर बहकते और लडख़ड़ाते दर्ज हुए, और सरकार चलाने की गंभीरता नहीं दिखी। दूसरी तरफ पंजाब में सत्ता और भागीदार दोनों खोने के बाद अकाली दल और भाजपा अलग-अलग बेचैन हैं, और इन सबके बीच खालिस्तानी फिर सिर उठा रहे हैं। वे न सिर्फ सिर उठा रहे हैं, बल्कि हथियार भी उठा रहे हैं, और थाने पर एक किस्म से उनके हमले में पुलिस और सरकार शरणागत हुई दर्ज हुई है। 

पंजाब में पिछले तीन-चार बरसों की राजनीतिक स्थिरता के अलावा एक और बात वहां खालिस्तानी सोच को सिर उठाने का मौका दे रही है कि यह पहला मौका है कि पंजाब आम आदमी पार्टी जैसी राजनीतिक-समझविहीन  पार्टी की सरकार देख रहा है। वैसे तो अकाली दल भी एक प्रदेश वाला क्षेत्रीय दल है, लेकिन लंबे समय तक एनडीए का हिस्सा रहने से उसमें राष्ट्रीय समझ आई है, और वह खालिस्तान के मुद्दे पर भी आज की पंजाब सरकार जितना और जैसा ढुलमुल नहीं रहा है। आम आदमी पार्टी कभी किसी राष्ट्रीय गठबंधन में नहीं रही, और यह भी एक वजह है कि उसने एक शहर की सरकार चलाते हुए देश के जटिल राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को समझा भी नहीं है। यह अनुभवहीनता पंजाब को चलाने में आड़े आ रही है। एक दिक्कत यह भी है कि देश के भीतर ऐसी अशांति और आतंक की आशंका का बोझ अंत में केन्द्र सरकार पर भी पड़ता है, और आज की मोदी सरकार के साथ केजरीवाल के सांप-नेवले जैसे दिखते संबंध पंजाब के समाधान में रोड़ा भी रहेंगे। 

आज जब हिन्दुस्तान के पड़ोस का पाकिस्तान अभूतपूर्व घरेलू दिक्कतें और खतरे देख रहा है, तब वहां की किसी सरकार के लिए भारत में कुछ हरकतें करवाना एक आसान और पसंदीदा काम हो सकता है, और पंजाब ने पहले भी बड़ा लंबा दौर ऐसी ही सरहद पार की दखल का देखा हुआ है। इसलिए आज पंजाब को अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत है, और जिस काबिलीयत की जरूरत है, वह आम आदमी पार्टी के पास दिख नहीं रही है। यह एक अलग बात है कि उसे पांच बरस सरकार चलाने का हक वोटरों ने दिया है, लेकिन अगर वहां खालिस्तानी मुद्दे का ऐसा ही हाल रहा, तो अगले राज्य चुनाव तक नौबत बेकाबू भी हो सकती है। आखिर में एक और मुद्दे का जिक्र जरूरी है कि दिल्ली और पंजाब की जेलों में बंद हत्यारों के खूंखार गिरोह जेल के भीतर से, या देश के बाहर से जिस तरह कत्ल करवा रहे हैं, और देश के चर्चित और महत्वपूर्ण लोगों को कत्ल की धमकियां भेज रहे हैं, वह सिलसिला भी पंजाब ने पहले शायद ही कभी देखा हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news