संपादकीय
PHOTO : SANJAY DAS/BBC
बंगाल में सीबीआई शिक्षक भर्ती घोटाले की जांच कर रही है। इसमें आज सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के एक विधायक को गिरफ्तार किया गया। इसके पहले भी इस पार्टी के दो और विधायक इसी मामले में गिरफ्तार हो चुके हैं, और जांच अभी जारी ही है। शिक्षकों की भर्ती के लिए रिश्वत लेने का यह करीब तीन सौ करोड़ रूपये का घोटाला बताया जाता है। बंगाल की स्कूलों के लिए शिक्षक भर्ती की सीबीआई जांच का आदेश कलकत्ता हाईकोर्ट ने दिया था। ऐसे आरोप लगे थे कि पश्चिम बंगाल प्राथमिक शिक्षा बोर्ड ने 2020 में साढ़े 16 हजार शिक्षकों की भर्ती शुरू की थी, और इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुआ। हाईकोर्ट ने पहली नजर में भ्रष्टाचार के संकेत दिखने पर सीबीआई जांच का आदेश दिया जिसके बिना सीबीआई इस राज्य में कोई जांच नहीं कर सकती क्योंकि ममता सरकार ने सीबीआई से जांच के अधिकार वापिस ले लिए हैं। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार के दौरान वहां भी व्यापमं नाम का बहुत बड़ा भर्ती घोटाला हुआ था जिसमें लिए गए इम्तिहानों से छांटे गए लोगों को पढ़ाई और सरकारी नौकरी सभी के लिए मौका मिलता है। इसमें 2009 में एफआईआर दर्ज हुई थी, और पुलिस दो हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है, ढेर सारे गवाह और आरोपी रहस्यमय तरीके से मारे जा चुके हैं। गिरफ्तार लोगों में राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री के अलावा सौ से अधिक नेता गिरफ्तार किए गए थे, और एक राज्यपाल चूंकि गुजर गए, इसलिए वे कार्यकाल के बाद गिरफ्तारी से बच गए। इस घोटाले में मेडिकल कॉलेजों में दाखिले का भ्रष्टाचार भी शामिल था।
यह बात समझने की जरूरत है कि जब कभी किसी पढ़ाई या किसी नौकरी के गिने-चुने मौकों को लेकर भ्रष्टाचार होता है तो वह समाज में समानता के मौके खत्म करता है, सबसे काबिल लोगों के आगे बढऩे की संभावना खत्म कर देता है, और लोगों का सरकार और लोकतंत्र पर से भरोसा पूरी तरह खत्म भी हो जाता है। इसके बाद इससे निराश हुए लोग न तो सरकारी संपत्ति को अपना मान पाते, और न ही उन्हें कोई अच्छी सरकार चुनने में दिलचस्पी रह जाती। उनकी नजरों में पूरी सरकार भ्रष्ट रहती है, लोकतंत्र सिर्फ ताकतवर लोगों के हाथ का औजार रहता है, और हर सफल या चुने हुए उम्मीदवार के पीछे वे भ्रष्टाचार देखते हैं। विश्वास का ऐसा संकट छोटा नहीं होता है, और यह लोकतंत्र को खोखला करते रहता है। इसके बाद लोगों को जब जहां मौका मिलता है वे वहां टैक्स चोरी को जायज मानते हैं, सरकारी सहूलियतों को नाजायज तरीके से लेने को भी सही मानते हैं। इसलिए पढ़ाई या नौकरी, किसी भी तरह के मुकाबलों का भ्रष्ट होना देश को कम काबिल लोग दे जाता है, जिससे सरकार और समाज दोनों की उत्पादकता बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। ऐसा भी नहीं कि इन्हीं दो राज्यों में ऐसा हो रहा है। राजस्थान तो बार-बार पर्चे फूट जाने और सामूहिक नकल से ऐसा घिरा हुआ है कि वहां परीक्षा के दौरान पूरे शहर का इंटरनेट बंद कर दिया जाता है ताकि नकल न हो सके। वहां पर लगातार पर्चे फूटते रहते हैं, इम्तिहान टलते रहती हैं।
कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि वामपंथी पार्टियों ने अपने राज के प्रदेशों में पार्टी के कार्यकर्ताओं के परिवार से किसी एक को सरकारी नौकरी देने की तरह-तरह की तरकीबें निकाली हुई थीं, और बंगाल, त्रिपुरा, केरल में इनका इस्तेमाल होता था। कुछ इसी तरह की बात भाजपा से जुड़े हुए आरएसएस के बारे में होती है कि जब कभी भाजपा की सरकार रहती है, दाखिलों और नौकरियों में अपने लोगों को घुसाने की तरकीबें संघ निकाल लेता है। इन बातों का कोई ठोस सुबूत तो हो नहीं सकता, लेकिन ये व्यापक चर्चा में रहती आई हैं। ऊंची पढ़ाई और छोटी नौकरियों से परे विश्वविद्यालयों में शिक्षक बनाने जैसे मौकों पर सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी विचारधारा के लोगों को लादती ही रहती हैं। और शायद इसीलिए पहली कुलपति अपनी विचारधारा के बनाए जाते हैं, उसके बाद बनने वाली किसी भी चयन समिति में अपनी सोच के लोगों को लाया जाता है, और बाद में पूरा चयन इससे प्रभावित होता है। जब कुछ बरस ऐसा सिलसिला चल निकलता है, तो फिर आगे चीजें आसान भी होने लगती हैं क्योंकि अधिक कुर्सियों पर हमख्याल लोग काबिज रहते हैं।
सीबीआई की जांच, चाहे वह मध्यप्रदेश में हो, या पश्चिम बंगाल में, वह जब तक एक मिसाल बनकर, कड़ी सजा दिलवाकर सामने नहीं आएगी, तब तक किसी का हौसला पस्त नहीं होगा। उसके बाद भी असर कितना होगा यह नहीं पता क्योंकि लोगों को लगता है कि सजा पाने वाले लोगों ने लापरवाही की होगी, और वे सावधानी से काम करेंगे। भर्तियों के समय अधिकतर प्रदेशों में खुला भ्रष्टाचार दिखाई पड़ता है, और ऐसा लगता है कि किसी भी लंबी-चौड़ी भर्ती के वक्त उस प्रदेश के हाईकोर्ट को पहले से सीबीआई जांच का आदेश दे देना चाहिए, जो कि जांच के पहले से ही निगरानी रखना शुरू कर दे। हिन्दुस्तान में इस एक चीज की कमी लगती है कि भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराध हो जाने तक उसकी कोई निगरानी नहीं होती, जहां व्यापक भ्रष्टाचार का खुला खतरा दिखता है, वहां पर भी निगरानी रखने की कोई एजेंसी नहीं है। दाखिला और भर्ती से परे भी चिटफंड या दूसरे किस्म के आर्थिक अपराधों की खबरें छपती रहती हैं, और बरसों बाद जाकर कोई जांच शुरू होती है। यह पूरा दौर रकम को गायब करने में इस्तेमाल हो जाता है, और बाद में खोखले हो चुके लोगों की गिरफ्तारी के अलावा कुछ नहीं हो पाता। यह सिलसिला पलटना चाहिए। संसद और विधानसभाएं अपने राजनीतिक चरित्र की वजह से, और वहां पर काबिज लोगों की वजह से किसी निगरानी एजेंसी को नहीं चाहेंगी, लेकिन लोगों को इसे एक मुद्दा बनाना चाहिए, तभी इस देश में समानता बच सकेगी, और लोगों के हक के पैसे बच सकेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)