संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फैलते झूठ को रोकने फैक्ट-चेक से अधिक कार्रवाई की जरूरत..
20-Apr-2023 4:41 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फैलते झूठ को रोकने  फैक्ट-चेक से अधिक कार्रवाई की जरूरत..

हिन्दुस्तान और बाकी बहुत से देशों में भी जिस तरह समाचार-विचार की वेबसाइटें होती हैं, ठीक उसी तरह कई वेबसाइटें मीडिया में तैरते झूठ पकडऩे का काम करती हैं। होता यह है कि झूठ हमेशा सच से अधिक दिलचस्प होता है, और एक झूठ किसी ने पोस्ट किया, तो वह अधिक रफ्तार से आगे बढ़ाया जाता है। आज के मीडिया की अलग-अलग कई किस्में एक-दूसरे से मुकाबला करती रहती हैं, और इनके बीच झूठ के लिए चाह बड़ी अधिक रहती है। कुछ किस्म के झूठ तो गढ़े हुए होते हैं, यानी जो बयान किसी ने दिया नहीं, उसकी कतरन गढक़र फैला देना, और कुछ झूठ गलत लेबल लगाकर आगे बढ़ाए जाते हैं कि किसी नेता के साथ किसी की तस्वीर को किसी और खबर के साथ जोडक़र फैला देना। ऐसा किसी एक पार्टी के लोग ही करते हों ऐसा नहीं है, और ऐसा सोच-समझकर ही करते हों, ऐसा भी नहीं है। सोशल मीडिया पर आज बहुत से लोग अनजाने में भी किसी बात को आगे बढ़ा देते हैं, यह मानते हुए कि वह सच है। हर किसी को यह हड़बड़ी दिखती है कि वे अपने जान-पहचान के लोगों के सामने कुछ ऐसा पेश करें कि लोग उसे पसंद करें। लोगों की वाहवाही पाने की यह चाह भी बहुत से नावाकिफ लोगों को झूठ फैलाने में उलझा देती है। 

अब धीरे-धीरे बड़े समाचार संस्थानों ने भी फैक्ट-चेक नाम से समाचारों की जांच करना शुरू किया है, जो कि बहुत मुश्किल काम भी नहीं था। लेकिन सनसनी फैलाने पर आमादा तथाकथित मीडिया संस्थान सोच-समझकर अनजान बनकर झूठ फैलाते आए हैं, लेकिन अब वह धीरे-धीरे उजागर होने लगा है। आज भी हिन्दुस्तान में बहुत कड़ा आईटी कानून होने के बावजूद गढ़े हुए, और गलती से फैलाए गए झूठ पर कार्रवाई नहीं के बराबर हो रही है। फिर यह भी है कि किसी धार्मिक या राजनीतिक सोच से जुड़े हुए लोग अपने लोगों को अधिक जिम्मेदार बनाना भी नहीं चाहते। अगर तमाम लोग जागरूक और जिम्मेदार हो गए, तो फिर सडक़ों पर साम्प्रदायिक नारे लगाते हुए जुलूस निकालने के लिए भीड़ कहां से आएगी। इसलिए लोगों को मंदबुद्धि और बंदबुद्धि बनाए रखने में ही नेतागीरी चलाने की सहूलियत रहती है। यह भी एक वजह है कि कोई संगठन या कोई नेता अपने मातहत काम करने वाले लोगों को झूठ फैलाने से रोकते नहीं हैं। होता यह भी है कि जो सबसे कट्टर धर्मान्ध होते हैं, साम्प्रदायिक या हिंसक होते हैं, या जिनके मन में महिलाओं के प्रति भारी हिकारत रहती है, वैसे तमाम लोग सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय होते हैं, और बाकी किस्म के मीडिया में आए हुए झूठ को बड़ी रफ्तार से आगे बढ़ाते हैं। 

अब वक्त आ गया है कि प्रेस कौंसिल जैसे मीडिया संस्थान, या भारत में टीवी के लिए बनाए गए निगरानी-संगठन, या एडिटर्स गिल्ड जैसी पेशेवर संस्था को मीडिया और सोशल मीडिया पर तैरते झूठ के खिलाफ एक अधिक संगठित कार्रवाई करनी चाहिए। आज हालत यह है कि किसी बेकसूर को पूरी तरह से बदनाम कर दिया जाता है, लेकिन उनकी यह ताकत नहीं रहती कि वे अदालत तक जा सकें जो कि खर्चीला और तकलीफदेह दोनों ही होता है। दूसरी तरफ मीडिया संस्थानों के झूठ के खिलाफ देश में बने हुए संगठनों और संस्थाओं को काम करना चाहिए, और निजी स्तर पर जो झूठ फैलाया जा रहा है, उस पर सरकार या पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए। ऐसा न होने पर सबसे सनसनीखेज झूठ इतना अधिक फेरा लगाते रहता है कि वह सच सरीखा दिखने लगता है। इस सिलसिले को रोकने की जरूरत है, और जब तक हर दिन ऐसे किसी बदनीयत झूठे को सजा नहीं मिलेगी, तब तक बाकी लोगों को सबक नहीं मिलेगा। 

हिन्दुस्तान में यह भी देखने में आता है कि धर्म और राजनीति से जुड़े हुए संगठनों के बड़े-बड़े पदाधिकारी नफरत और हिंसा को फैलाने के लिए भी कई किस्म का झूठ इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोग चाहे किसी भी पार्टी के हों, उनके खिलाफ केस दर्ज होने चाहिए, और ऐसे मामलों को फैसलों तक तेजी से पहुंचाना चाहिए। आज हालत यह है कि इंटरनेट और कम्प्यूटरों की मेहरबानी से, मोबाइल फोन की वजह से झूठ तो पल भर में दुनिया भर में फैल जाता है, लेकिन उस पर कार्रवाई बरसों तक नहीं होती है। इसलिए आज साइबर अदालतों की जरूरत है ताकि आईटी एक्ट, और इस तरह के दूसरे मामलों की सुनवाई बेहतर तरीके से हो सके, और अधिक रफ्तार से हो सके। आज हालत यह है कि न तो पुलिस इन मामलों को ठीक से तैयार कर पाती है, न ठीक से सुबूत जब्त कर पाती क्योंकि उनकी ट्रेनिंग ही अब तक नहीं हो पाई है, और फिर सुबूत जब्ती में, किसी कम्प्यूटर-प्रयोगशाला की रिपोर्ट में जरा सी भी कमी रह जाने से मुजरिमों के वकील उन्हें बचा ले जाते हैं। आज सरकारों में अधिक जागरूकता की जरूरत है, दिक्कत यह है कि जो पीढ़ी सरकार चला रही है, उसका खुद का अपना कम्प्यूटर और इससे जुड़े हुए मामलों का ज्ञान और तजुर्बा कम है। कुल मिलाकर एक नई पीढ़ी की नई सोच की जरूरत इन नए किस्म के जुर्मों से निपटने के लिए है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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