संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में सेम सेक्स मैरिज नाम से चर्चित मुकदमे की सुनवाई के बीच में कल वकीलों के देश के सबसे बड़े संगठन, बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने एक प्रस्ताव मंजूर करके सुप्रीम कोर्ट को भेजा है कि इस मामले की सुनवाई बंद की जाए, और इसे कानून बनाने वाली संसद के लिए छोड़ा जाए। इस संगठन का कहना है कि यह बहुत संवेदनशील मामला है, और इसके सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक पहलू हैं, इसलिए इस पर विस्तृत विचार-विमर्श जरूरी है। काउंसिल का कहना है कि देश के 99.9 फीसदी से अधिक लोग समलैंगिक विवाह के खिलाफ हैं। प्रस्ताव में कहा गया है कि मानव सभ्यता और संस्कृति बनने के बाद से विवाह को आमतौर पर मंजूर किया गया है, और आगे जन्म बढ़ाने और मनोरंजन के लिए लोगों को पुरूष और महिला के रूप में बांटा गया है। काउंसिल का कहना है कि इस पर कोई अदालती फैसला विनाशकारी होगा। वकीलों के इस संगठन के मुताबिक अधिकांश आबादी का मानना है कि याचिकाकर्ताओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का कोई भी फैसला देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक ढांचे के खिलाफ जाएगा।
हमारी याददाश्त में वकीलों के संगठन का यह एक बहुत ही अभूतपूर्व कदम है कि वे किसी मामले की सुनवाई न करने की अपील सुप्रीम कोर्ट से कर रहे हैं। मामले की सुनवाई चल रही है, और मुख्य न्यायाधीश सहित पांच जजों की एक संविधानपीठ इसे सुन रही है। मुख्य न्यायाधीश ने केन्द्र सरकार के वकील से जो सवाल किए हैं, और सुनवाई के दौरान उन्होंने जो बातें कही हैं, उन्हें देखते हुए वकीलों के इस संगठन को शायद ऐसा अंदाज लग रहा है कि यह फैसला सेम सेक्स मैरिज के पक्ष में भी जा सकता है, इसलिए सरकार भी कुछ विचलित दिख रही है, और बार भी। बार तो वकीलों का एक पेशेवर संगठन है, और उसे इस मामले के संवैधानिक और कानूनी पहलुओं तक अपनी दिलचस्पी को सीमित रखना था। अगर कोई मामला अदालत के वकीलों से जुड़े हुए किसी पहलू का होता, तो भी उनकी यह अतिरिक्त सक्रियता और दिलचस्पी समझ आती। आज ऐसा लग रहा है कि अदालत के शुरुआती रूख से ही सरकार और सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया पार्टी की सोच कुछ बेचैन है। लोगों को याद होगा कि पिछले एक-दो बरस से केन्द्र सरकार के कानून मंत्री लगातार सार्वजनिक बयानों के रास्ते सुप्रीम कोर्ट पर हमला करते आए हैं, और अदालत को उसकी सीमाएं दिखाने की खुली कोशिश करते रहे हैं। ऐसे में बार काउंसिल ऑफ इंडिया की यह पहल न तो उनके पेशे से जुड़ी हुई है, और न ही देश में इस मुकदमे से कोई ऐसी नौबत आते दिख रही है जिससे कि वकालत के पेशे का नुकसान हो, उस पर कोई खतरा आए। जहां तक देश के लोगों से जुड़े हुए सार्वजनिक हित और महत्व की बात है, तो हर कुछ महीनों में ऐसे जलते-सुलगते मुद्दे सामने आते हैं, लेकिन हमने इस काउंसिल को इस तरह के प्रस्ताव पारित करते नहीं देखा है, इसलिए यह अटपटा भी है, और काउंसिल के मकसदों से बहुत अलग भी है।
अब अगर वकीलों के लिखे हुए को देखें तो उनका संगठन अगर औपचारिक रूप से इतने गंभीर एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ को कुछ लिख रहा है, तो उससे कम गंभीरता की उम्मीद तो हो नहीं सकती। यह बात हैरान करती है कि देश के वकीलों का यह सबसे बड़ा संगठन यह मान रहा है कि देश के 99.99 फीसदी से अधिक लोग सेम सेक्स के खिलाफ हैं। वकीलों से तो तर्कसंगत बात की उम्मीद की जाती है, फिर चाहे अपने मुवक्किल को बचाने के लिए वे न्यायसंगत बात न भी करें। यह बात तो किसी तरह तर्कसंगत नहीं है क्योंकि देश में ऐसा कोई सर्वे नहीं हुआ है जिससे पता लगे कि इतने फीसदी लोग सेम सेक्स मैरिज के खिलाफ हैं। दूसरी तरफ एक ऐसा अनुमान जरूर लगाया जाता है कि एलजीबीटीक्यूआई-प्लस कहे जाने वाले तबके में आबादी के 10 फीसदी से अधिक लोग आते हैं। ऐसे में हिन्दुस्तान में ऐसी सेक्स-प्राथमिकताओं वाले लोगों की गिनती 10-15 करोड़ होनी चाहिए। लेकिन वकीलों का संगठन इनकी संख्या 0.1 फीसदी से भी कम बता रहा है क्योंकि वह सेम सेक्स मैरिज के विरोधियों को 99.99 फीसदी से अधिक बता रहा है। देश की संविधानपीठ से की जा रही अपील का अभूतपूर्व होने के साथ-साथ इस तरह बेबुनियाद होना भी कुछ हैरान करता है कि इसके पीछे मकसद क्या है।
यह जरूर है कि देश की सरकार वकीलों के ऐसे दबाव को पसंद कर सकती है क्योंकि इसका कोई असर अगर संविधानपीठ पर होता है, तो उससे सरकार अदालत में असुविधा से बच सकती है। हालांकि आज मोदी सरकार के हाथ संसद में जो अभूतपूर्व बाहुबल है, उसके चलते तो सरकार शायद सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले को पलट भी सकती है, और अगर 99.99 फीसदी जनता सेम सेक्स मैरिज के खिलाफ है, तब तो सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए ऐसा फैसला फायदे का होगा क्योंकि फिर उसे पलटकर नया कानून बनाकर सरकार 99.99 फीसदी जनता को लुभा सकेगी। लेकिन सरकार की जो प्राथमिकता हो सकती है, उसके लिए उसके पास संसद है। अदालत ने आज उसे अपनी बात रखने का हक तो है ही। वकीलों का संगठन इस मामले में क्यों उतरा है, यह हैरान करता है। और सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने तस्वीरों सहित यह याद भी दिलाया है कि सैकड़ों बरस पहले के बने खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर सेम सेक्स की मूर्तियां अच्छी तरह कायम हैं, और भारत के लिए यह कोई नई बात नहीं है। हमको भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट किसी भी तरह वकीलों के संगठन के ऐसे अटपटे प्रस्ताव से प्रभावित नहीं होगा क्योंकि संविधानपीठ अगर इस तरह की बातों के प्रभाव में आने लगी, तब तो देश में न्याय व्यवस्था चल ही नहीं पाएगी। समलैंगिकता के खिलाफ समाज के एक तबके में हिकारत है, नफरत है, और उससे दहशत है। ऐसे होमोफोबिक समाज से भी अभी तक जिस तरह की आवाज नहीं उठी है, वैसी आवाज बार काउंसिल ऑफ इंडिया क्यों उठा रहा है, यह एक पहेली है। खैर, सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ अदालती सुनवाई से परे की ऐसी अपील पर शायद कोई गौर भी न करे, और वही बेहतर होगा।