संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिलावल के भारत आने से सरकारों को उम्मीद नहीं, लोगों को कुछ सोचना चाहिए
27-Apr-2023 3:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिलावल के भारत आने से  सरकारों को उम्मीद नहीं, लोगों को कुछ सोचना चाहिए

अगले महीने हिन्दुस्तान में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक होने जा रही है जिसमें पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो के आने की बात तय हो गई है। पिछले कुछ बरसों से लगातार भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बहुत बढ़ा हुआ चल रहा है जिसकी वजह से दोनों देशों में कारोबार भी घटा है, और सरकारों के बीच जाहिर तौर पर किसी तरह की बात नहीं हो रही है। वैसे तो दुनिया में तमाम सरकारों के बीच पर्दे के पीछे बातचीत की अलग-अलग तरकीबें काम करती रहती हैं, और ऐसे में भारत और पाकिस्तान भी कुछ लोगों के मार्फत कहीं बात कर रहे हों, तो उसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए। लोगों को एक दिलचस्प बात ठीक से याद नहीं होगी कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक विदेश प्रवास से दिल्ली लौटते हुए अचानक पाकिस्तान उतर गए, उस वक्त के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के परिवार में एक शादी में पहुंचे, जन्मदिन मनाया, दोनों की मां के लिए तोहफे लेना-देना हुआ, तो इसके पीछे भारतीय विदेश मंत्रालय का नहीं, हिन्दुस्तान के एक कारोबारी सजन जिंदल का अधिक हाथ था जिनके परिवार से नवाज शरीफ के परिवार का दशकों पुराना आने-जाने का रिश्ता था। इसलिए जाहिर तौर पर जो दिखता है, वही पूरा नहीं होता, पर्दे के पीछे बहुत सी और बातों का असर भी होता है। अब अभी बिलावल भुट्टो के आने को लेकर भारत में विरोधी भावनाएं सडक़ों पर हैं, हिन्दुस्तानी फौज पर अभी हुए एक आतंकी हमले की बात को गिनाया जा रहा है, और भारतीय विदेश मंत्री ने अपने एक विदेश दौरे के बीच ही बयान दिया है कि ऐसे एक पड़ोसी के साथ जोडऩा बहुत मुश्किल है जो हमारे खिलाफ सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देता है। 

पांच मई को होने वाली शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में चीन और रूस के अलावा भी कई और देशों के विदेश मंत्री रहेंगे, और ऐसे में हमेशा ही यह होता है कि एजेंडा से परे भी नेताओं में आपस में अनौपचारिक चर्चाएं होती हैं जो कि कई बार औपचारिक चर्चाओं के मुकाबले भी अधिक काम की रहती हैं। भारत में बिलावल भुट्टो अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी हैं जो कि पाकिस्तान सरकार की एक हैसियत से यहां आ रहे हैं। उनके नाना और उनकी मां दोनों ही अलग-अलग वक्त पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे हुए हैं, और नाना को फौजी तानाशाह ने फांसी दी थी, और मां बेनजीर भुट्टो को एक रैली में गोली मार दी गई थी। यहां पर इस बात का कोई औचित्य नहीं है, फिर भी सरहद के दोनों तरफ एक अजीब सा संयोग है कि हिन्दुस्तान में भी एक नेता राहुल गांधी के पिता और दादी की मौत भी असाधारण हुईं, और उन दोनों का जुल्फिकार अली भुट्टो और बेनजीर भुट्टो के साथ लंबा संपर्क था। 

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के लिए एक बहुराष्ट्रीय संगठन की बैठक में सदस्यों के रूप में आमने-सामने होना बहुत अहमियत तो नहीं रखता है, लेकिन इन दोनों देशों के बीच तनातनी से दोनों का ही बड़ा नुकसान होता है। सरहद के दोनों तरफ गरीबी है, वह कम और अधिक हो सकती है, लेकिन है दोनों तरफ, और इन दोनों का फौजी खर्च मोटेतौर पर एक-दूसरे के खिलाफ ही अधिक रहता है। सडक़ से जुड़े इन दोनों देशों के बीच कारोबार बहुत अच्छा हो सकता है, और अलग-अलग वक्त पर होते भी रहा है। तनातनी में दोनों देश और जगहों से महंगा खरीदने, और सस्ता बेचने को मजबूर रहते हैं। हिन्दुस्तान में सरकारी और निजी क्षेत्र में गंभीर और महंगे इलाज की बहुत बड़ी क्षमता है, और तनाव कम रहने पर पाकिस्तान से हजारों लोग इलाज के लिए हिन्दुस्तान आते भी थे, लोगों को सहूलियत मिलती थी, और चिकित्सा-कारोबार को ग्राहकी। लेकिन वह भी बंद हो चुका है। सरहद के दोनों तरफ लाखों लोगों की रिश्तेदारियां हैं, लेकिन उनका भी सीधा आना-जाना बंद है, और किसी तीसरे देश के मार्फत कुछ लोग आ-जा पाते हैं। सडक़, रेल, और हवाई रास्ते का दोनों देशों के बीच का सारा ढांचा बेकार पड़ा हुआ है। लोगों को याद होगा कि इन दोनों देशों के बीच फिल्म, संगीत, फैशन, क्रिकेट, और पर्यटन की बहुत संभावनाएं हैं, और जब तनाव कम रहता था, तो हिन्दुस्तान के फिल्म और टीवी पर पाकिस्तानी कलाकार दिखते थे, उनके कार्यक्रम हिन्दुस्तान में होते थे। सरहद के तनाव, और आतंकी तोहमतों ने लोगों के बीच के सारे रिश्तों को बर्फ में जमाकर सर्द कर दिया है। 

किसी देश की सरकार की जुबान अलग हो सकती है, सरकार चुने हुए लोगों से बनती है, और लोगों को अगले चुनाव में फिर सरकार में आने की जरूरत भी लगती है। ऐसे में सरकार चला रहे लोगों की प्राथमिकताएं संबंध सुधारने से परे की भी हो सकती हैं। लेकिन अगर जनता की पसंद और प्राथमिकता देखी जाए, तो वह सरहदों पर बहुत महंगा तनाव घटाने, और मोहब्बत के रिश्ते बढ़ाने की हिमायती होंगी। लेकिन दिक्कत यह रहती है कि आम जनता सरकार को चुनती तो है, सरकार चलाती नहीं है। एक बार चुन लिए जाने के बाद पांच बरस तक सरकार जनता को चलाती है, और इस सिलसिले में जम्मू-कश्मीर के पिछले गवर्नर सतपाल मलिक की हाल ही में कही गई बातों को भी याद रखने की जरूरत है जिसमें उन्होंने पुलवामा के आतंकी हमले से जुड़ी बड़ी नाजुक बातें कही थीं, और उनमें से किसी बात का अभी तक भारत सरकार ने खंडन नहीं किया है। इन तमाम बातों को देखते हुए ऐसा लगता है कि अगर किसी तरह दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू हो सकती है, तो उससे दोनों तरफ के गरीबों का सबसे अधिक भला होगा, उनकी रोटी छीनकर गोला-बारूद खरीदना कम होगा, बर्फीली सरहदों पर सैनिकों की मौतें घटेंगीं, और दोनों तरफ कारोबार बढ़ेगा। हम सरकार की कूटनीतिक जुबान नहीं जानते, लेकिन भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों का मामला ऐसा है कि इसमें सरकारों की जुबानें फासलों को घटाते नहीं दिखती हैं। ऐसा लगता है कि सरकारें चुनाव अभियान में बोलती हैं, और वे अपने देश की जनता से नहीं, देश के वोटरों से बात करती हैं। यह नौबत बदलनी चाहिए। यह बात सुझाना भी आसान नहीं है क्योंकि इसे बहुत आसानी से देश के साथ गद्दारी करार दिया जा सकता है, और सरहद पार भेजने की बात कही जा सकती है। लेकिन सच बोलने वालों को जहर का प्याला देने का दुनिया का पुराना इतिहास रहा है। इसलिए आज नफरती हो-हल्ले के बीच मोहब्बत की जुबान बोलने वालों को कुछ खतरे तो उठाने ही होंगे। इसलिए हम यह साफ-साफ सुझा रहे हंै कि आतंकी हमलों और सरहदी तनावों पर जो भी फौजी कार्रवाई करनी है उसे जारी रखते हुए भी देशों को आपस में बातचीत जारी रखनी चाहिए। यह बात एक वक्त चंबल के डकैतों पर भी लागू होती थी, यह पंजाब के खालिस्तानी आतंकियों, उत्तर-पूर्व के उग्रवादियों, और देश के कई राज्यों के नक्सलियों पर भी लागू होती है, कि बातचीत का सिलसिला कभी बंद नहीं होना चाहिए। हम हमेशा बातचीत की वकालत करते हैं, और उसके साथ बहुत सारी शर्तें जोडऩे के खिलाफ रहते हैं। 

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