संपादकीय
बिहार के तथाकथित सुशासन बाबू नीतीश कुमार ने अपने चहेते, एक दलित आईएएस के हत्यारे, भूतपूर्व सांसद आनंद मोहन को रिहा करने के लिए जिस तरह राज्य का जेल मैन्युअल बदला उससे पूरे देश के आईएएस स्तब्ध हैं, उनके एसोसिएशन ने मुख्यमंत्री से यह फैसला बदलने की मांग की है, और शायद वे इसके खिलाफ अदालत भी जाएं। इस अखबार ने इस बारे में बड़े कड़े शब्दों में यूट्यूब चैनल पर कहा भी है, और बिहार के एक प्रमुख पत्रकार पुष्य रंजन से राजनीति और अपराध के गठजोड़ का इतिहास जाना भी है। लेकिन उत्तरप्रदेश और बिहार से यह सिलसिला खत्म होते दिखता ही नहीं है। आनंद मोहन की रिहाई हुई तो अब बिहार में बैनर लग रहे हैं कि क्षत्रिय समाज के जेलों में बंद और मुजरिमों को भी बाहर निकाला जाए। यह मांग की गई है कि आनंद मोहन की तरह उन्हें भी रिहा करवाया जाए। एक तरफ तो पटना के इस फैसले से नीतीश कुमार को धिक्कारा जा रहा है, दूसरी तरफ दिल्ली में भाजपा के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ नाबालिग और दूसरी महिला पहलवानों के यौन शोषण का जुर्म आखिर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी दखल के बाद कल दर्ज हुआ है। इसके पहले ओलंपिक मैडल लेकर आने वाली पहलवान लड़कियां सडक़-फुटपाथ पर आंदोलन करते बैठी थीं, और केन्द्र सरकार की नजरों में वे फुटपाथ पर पड़े कूड़े से अधिक नहीं दिख रही थीं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की कड़ी चेतावनी, और निगरानी की कड़ी टिप्पणी के बाद दिल्ली पुलिस के मुर्दा हाथों ने रपट लिखी है। वजह यही है कि भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष मौजूदा भाजपा सांसद हैं, और वे अपने इलाके के बेताज रंगदार भी हैं। ऐसे में जाहिर है कि भाजपा के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस की कोई दिलचस्पी ओलंपिक विजेता महिला खिलाडिय़ों के आंसुओं में नहीं थी।
उत्तरप्रदेश और बिहार के इन दो बाहुबलियों के मामलों को देखें तो देश के ये दो बड़े राज्य, एक अलग ही किस्म की जातिवादी, मवालीवादी, अराजक, और अलोकतांत्रिक राजनीति के अड्डे दिखते हैं। कोई हैरानी नहीं है कि देश में अधिकतर और जगहों पर यूपी-बिहार का नाम राजनीति और अपराध की जोड़ी के लिए लिया जाता है, और जहां पर अधिक अराजकता दिखती है, तो लोग अपने लोगों को याद दिलाते हैं कि ये यूपी-बिहार नहीं है। इन दोनों ही प्रदेशों में आम लोग तो अमन-पसंद ही होंगे क्योंकि आम लोगों की भला क्या सुनवाई हो सकती है, लेकिन जो खास लोग हैं वे अपने जुर्म के कारोबार में, अपनी राजनीति में आम लोगों का इस्तेमाल गुठलियों की तरह करते हैं, और उन्हीं की वजह से पूरे देश में इन दो राज्यों को एक बुरे विशेषण की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
आज जो बृजभूषण सिंह चर्चा में है, उसके बारे में खबरें बताती हैं कि वह राम मंदिर आंदोलन के उफान के वक्त उसमें जुड़ा और बाद में बीजेपी से सांसद बना। उसने सार्वजनिक रूप से यह दावा किया कि वह बाबरी मस्जिद गिराने में शामिल था, सीबीआई ने उस पर इसका केस भी चलाया, लेकिन 2020 में वह बरी हो गया। उस पर दाऊद इब्राहिम के गुर्गों की मदद के लिए टाडा भी लगाया गया, लेकिन वह उससे भी निकल गया। वह भाजपा छोडक़र सपा गया, वहां भी लोकसभा जीता, फिर लौटकर भाजपा आया, फिर वहां से जीत रहा है। पिछले ही बरस एक समाचार वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में उसने कहा था कि उसने एक कत्ल किया था। उसके चुनावी हलफनामे में अभी चार मामले बचे दिख रहे हैं जिनमें कत्ल की कोशिश का मामला भी है। और अब इतनी बड़ी संख्या में महिला खिलाडिय़ों ने उस पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं, लेकिन उसकी पार्टी का उस पर मुंह नहीं खुल रहा है। जो व्यक्ति जिस पार्टी से चाहे उस पार्टी से टिकट पा ले, जिस पार्टी से लड़े, चुनाव जीत जाए, बार-बार जीते, इलाके में धाक हो, पास में दौलत हो, तो भला कौन सी पार्टी को अपना ऐसा आरोपी चुभता है? इसी यूपी-बिहार में अभी जो एक बड़ा गैंगस्टर अतीक अहमद पुलिस घेरे में मार डाला गया, उसके और उसके कुनबे पर दर्ज जुर्मों की एक बड़ी लंबी फेहरिस्त है, और वह सपा से लेकर विधानसभा और लोकसभा का सफर करते रहा है। आनंद मोहन और उनकी बीवी बिहार में विधानसभा और लोकसभा उसी अंदाज में आते-जाते रहे जिस अंदाज में अदालत और जेल आते-जाते रहे।
अपराधियों को चुनावों से दूर रखने के लिए यूपीए सरकार के वक्त राहुल गांधी ने जिस विधेयक को फाडक़र फेंक दिया था, उसके न रहने पर भी राजनीतिक मुजरिम तरह-तरह से सत्ता पर काबिज हैं। बिहार में आनंद मोहन की रिहाई के लिए नियम बदलने के पहले ही नीतीश कुमार आनंद मोहन की रिहाई की मुनादी करते हैं। और चुनावी लोकतंत्र की मजबूरी यह है कि कांग्रेस इन्हीं नीतीश कुमार के साथ विपक्षी गठबंधन की संभावनाओं पर चर्चा कर रही है। यह पूरा सिलसिला लोकतंत्र में एक बड़ी निराशा खड़ी करता है कि भाजपा से लेकर समाजवादियों तक, और दूसरी पार्टियों तक भी, किसी को अपने मुजरिम नहीं खटकते हैं, बल्कि सुहाते ही हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि गुजरात के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले भाजपा सरकार ने उम्रकैद काट रहे उन 11 हत्यारे-बलात्कारी हिन्दू मुजरिमों को वक्त से पहले, नियम तोडक़र जेल से रिहा किया जिन्होंने बिल्किस बानो से गैंगरेप किया था, उसकी बेटी और मां सहित पूरे कुनबे का कत्ल किया था, और कुल 14 हत्याएं की थीं। जब लोकतंत्र में किसी पार्टी को अपने हत्यारे और बलात्कारी अभिनंदन और माला के लायक लगते हों, नियम तोडक़र जेल से रिहा करने के लायक लगते हों, तो आम वोटर बेवकूफों की तरह वोट डालकर इस खुशफहमी में जी सकते हैं कि उनके वोट से यह लोकतंत्र चल रहा है। यह लोकतंत्र पार्टियों की गुंडागर्दी, और उनके मवालियों की जांघतले दम तोड़ रहा है, और नासमझ वोटर अपने को सरकार बनाने वाला मान रहा है। हिन्दुस्तान के चुनाव इस हद तक ढकोसला बन गए हैं कि कोई सरकारें लोकतांत्रिक पैमानों पर चुनकर बनने की संभावना न सरीखी रह गई है। फिर भी दिल के बहलाने को जम्हूरियत का खयाल अच्छा है।