संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नंदकुमार साय के भाजपा से कांग्रेस जाने की वजहें, बदला आदिवासी संतुलन
01-May-2023 3:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  नंदकुमार साय के भाजपा से कांग्रेस जाने की वजहें, बदला आदिवासी संतुलन

छत्तीसगढ़ भाजपा के सबसे बड़े नेता नंदकुमार साय ने बीती रात जब भाजपा से इस्तीफा दिया तो उनकी कई तरह की संभावनाएं दिख रही थीं। पहली बात तो यह लग रही थी कि भाजपा नुकसान को सीमित करने के लिए उन्हें मनाएगी, और हाशिए पर पड़े हुए साय को किसी भूमिका में रखा जाएगा। दूसरी संभावना यह लग रही थी कि वे आम आदमी पार्टी में जा सकते हैं। एक तीसरी संभावना यह थी कि वे कुछ इंतजार करके सर्वआदिवासी समाज नाम के संगठन से जुड़ सकते हैं। लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हुआ, और वे इस वक्त प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। वे तीन बार के लोकसभा सदस्य, एक बार के राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं, और विधायक होने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रह चुके हैं, और राष्ट्रीय जनजातीय आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे एक खासे पढ़े-लिखे आदिवासी नेता हैं, और जनसंघ के जमाने से वे लगातार एक ही पार्टी में बने रहे। उनका निजी चाल-चलन विवाद से परे बने रहा, और वे एक सिद्धांतवादी नेता माने जाते हैं, और इसके चलते वे अपनी पार्टी की सरकार से भी कई बार मतभेद रखते दिखते थे। अब उनके कांग्रेस में शामिल होने से छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग के सबसे बड़े आदिवासी नेता इस पार्टी में पहुंच जाएंगे, और जाहिर तौर पर आने वाले कई चुनावों में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है। 

भाजपा का छत्तीसगढ़ के प्रति रवैया बड़ा अजीब चल रहा है। एक आदिवासी नेता विष्णुदेव साय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे, जिन्हें हटाकर आदिवासी दिवस के दिन पिछले बरस एक ओबीसी सांसद अरूण साव को भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। यह काम दो-चार दिन आगे-पीछे भी हो सकता था, इनमें से कोई पार्टी छोड़ भी नहीं रहा था, लेकिन आदिवासी दिवस के दिन आदिवासी अध्यक्ष को हटाना लोगों को हक्का-बक्का करने वाला फैसला था। लेकिन छत्तीसगढ़ भाजपा की कोई जुबान राष्ट्रीय संगठन और मोदी-शाह के सामने रह नहीं गई है क्योंकि 65 सीटों के दावे के बाद कुल 15 सीटें मिली थीं, और तब से इन साढ़े चार बरसों में राज्य भाजपा के उस वक्त के किसी नेता को कुछ नहीं गिना गया। पिछले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह सहित उस वक्त संगठन और सरकार के तमाम नेता मानो बर्फ में जमाकर रख दिए गए हैं कि कभी जरूरत पड़ेगी तो उन्हें वापिस जीवित किया जाएगा। पार्टी का यह फैसला भी बहुत अटपटा था कि विष्णुदेव साय को हटाने के बाद किसी आदिवासी नेता को कोई अहमियत नहीं दी गई, बल्कि एक ओबीसी नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक को हटाकर उन्हीं के संभाग के एक दूसरे ओबीसी विधायक नारायण चंदेल को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया। पार्टी के प्रवक्ता के रूप में एक तीसरे ओबीसी नेता अजय चंद्राकर को बढ़ावा दिया गया, मानो प्रदेश में और किसी जाति के नेता की कोई जरूरत ही नहीं है। 

विधानसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद से अब तक लगातार छत्तीसगढ़ में भाजपा पर दिल्ली में ही तमाम फैसले लिए जा रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के भाजपा नेताओं को यह भी नहीं मालूम है कि उन्हें अगले विधानसभा चुनाव में टिकट मिलेगी या नहीं, या उन्हें प्रचार में भी इस्तेमाल किया जाएगा या नहीं। इस नौबत ने इस राज्य में भाजपा के नेताओं को अनिश्चितता और अनिर्णय का शिकार बनाकर रख छोड़ा है। साथ-साथ ऐसा लगता है कि पूरे देश में ही भाजपा की कोई आदिवासी-नीति नहीं है, आदिवासी बहुल राज्यों में उसकी सरकार भी नहीं है, और न ही कोई बड़े नेता उसके संगठन में, उसकी सरकार में निर्णायक दिख रहे हैं। कहने के लिए भाजपा यह कह सकती है कि उसने राष्ट्रपति एक आदिवासी महिला को बनाया है, और इससे अधिक कोई पार्टी क्या कर सकती है, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि राष्ट्रपति का देश की रोजाना की राजनीति से कोई लेना-देना रहता नहीं है, वह एक प्रतीकात्मक महत्व देना तो है, लेकिन देश भर में आदिवासी इलाकों में केन्द्र सरकार, और कई राज्य सरकारों की नीतियों से जो बेचैनी बनी हुई है, उसे कम करने के बारे में केन्द्र सरकार ने सोचा ही नहीं है, बल्कि उसकी जंगल और खदान की जितनी नीतियां हैं, वे सब आदिवासियों के खिलाफ बनते दिख रही हैं। ऐसी कई वजहों से हो सकता है कि नंदकुमार साय जैसे नेता निजी उपेक्षा के अलावा भी आहत रहे हों, और इस वजह से भी आज साय कांग्रेस में जा रहे हैं। हो सकता है कि यह दल-बदल पूरी तरह से सिद्धांतवादी फैसला न होकर निजी हित में लिया गया फैसला हो, लेकिन राजनीति में किसी के भी फैसले इस तरह के मिलेजुले रहते हैं, और अक्सर ही न कोई फैसला सौ फीसदी सिद्धांतवादी होता, न सौ फीसदी निजी। 

छत्तीसगढ़ कांग्रेस के मौजूदा आदिवासी अध्यक्ष मोहन मरकाम को हटाने के लिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की ओर से लगातार एक अभियान चलाने की खबरें आती ही रहती हैं। लेकिन साय के आने से मरकाम की सेहत पर तुरंत कोई फर्क पड़ते इसलिए नहीं दिखता कि दोनों छत्तीसगढ़ के दो अलग-अलग इलाकों के हैं, और पार्टी में आते ही साय को किसी तरह का बड़ा ओहदा और काबू नहीं दिया जा सकता। लेकिन छह महीने के बाद के चुनाव तक प्रदेश कांग्रेस में आदिवासी समीकरण कई तरह से बदलेंगे, और उस वक्त यह पार्टी भाजपा के मुकाबले बेहतर हालत में रह सकती है क्योंकि इसमें आदिवासी नेता लगातार महत्व पा रहे हैं, और भाजपा में आदिवासी नेता हाशिए पर भी नहीं रखे गए हैं। इस ताजा दल-बदल ने छत्तीसगढ़ की राजनीति को बड़ा दिलचस्प कर दिया है। इसका कर्नाटक पर कोई असर पड़ेगा ऐसी संभावना नहीं दिखती, लेकिन पार्टी का हौसला इससे जरूर बढ़ेगा, और इस नाटकीय घटना से भूपेश बघेल का वजन भी कांग्रेस संगठन के भीतर और छत्तीसगढ़ की राजनीति में बढ़ रहा है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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