संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदिवासी-हक पर डाका डालने की कोशिश से जल रहा है सरहदी राज्य मणिपुर
05-May-2023 3:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदिवासी-हक पर डाका डालने की कोशिश से जल रहा है सरहदी राज्य मणिपुर

उत्तर-पूर्व का मणिपुर इस बुरी तरह हिंसा से घिर गया है कि केन्द्र सरकार ने वहां धारा 355 लागू की है, जिसका सरल मतलब यह होता है कि वहां की कानून व्यवस्था अब केन्द्र सरकार के हाथ में है। यह राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने वाली धारा 356 के ठीक पहले की नौबत है। यह एक अलग बात है कि केन्द्र और मणिपुर में दोनों जगह भाजपा सरकार है, और इसलिए 356 की नौबत शायद न आए जो कि पूरी पार्टी के लिए शर्मिंदगी की बात होगी, और मोदी सरकार के लिए भी। लेकिन अभी वहां हिंसा का जो हाल है उसमें हिंसा करते लोगों को देखते ही गोली मारने के हुक्म दिए गए हैं, और सेना, अर्धसैनिक बल तैनात किए गए हैं, राज्य के 16 में से 8 जिलों में कफ्र्यू लगा दिया गया है, पांच दिनों के लिए मोबाइल और इंटरनेट बंद हैं। इसके साथ-साथ पूरा राज्य आदिवासी और गैरआदिवासी समुदायों के बीच हथियारबंद संघर्ष देख रहा है। इसे देखने का एक दूसरा नजरिया यह हो सकता है कि ईसाई आदिवासियों और हिन्दू गैरआदिवासियों के बीच यह संघर्ष चल रहा है। दो दिन पहले मणिपुर की ओलंपिक विजेता और पूर्व राज्यसभा सदस्य मैरी कॉम ने ट्वीट किया था कि मेरा राज्य मणिपुर जल रहा है, और उसने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को टैग करके मदद मांगी थी। उनका कहना है कि हालात बहुत भयानक हैं, और केन्द्र और राज्य सरकारों को नौबत सुधारने के लिए जल्दी कुछ करना चाहिए। देश के दक्षिणपंथी प्रकाशनों ने इसे सीधे-सीधे चर्च का हिन्दुओं पर हमला करार दिया है, जिसके बारे में लोगों का कहना है कि इससे आग और भडक़ेगी। 

अब मणिपुर की इस जटिल समस्या को आसान शब्दों में समझने की कोशिश करें तो वहां पर पहाड़ों में बसे हुए आदिवासी हैं, और घाटी में बसे हुए मैतेई बहुसंख्यक समुदाय के लोग हैं, जिनमें से अधिकतर हिन्दू हैं, उनमें बहुत थोड़े से मुस्लिम बने हैं। इस 50 फीसदी से अधिक मैतेई समुदाय को गैरआदिवासी होने की वजह से आरक्षण हासिल नहीं हैं। इनमें से कुछ लोग हाईकोर्ट गए, और हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को इस पर विचार करने को कहा कि मैतेई समुदाय को आदिवासी घोषित किया जाए। इससे वहां के वास्तविक आदिवासियों को मिलने वाला आरक्षण का लाभ बहुत ही कम हो जाएगा क्योंकि न सिर्फ उसके दावेदार दुगुने हो जाएंगे, बल्कि मैतेई समुदाय आदिवासियों के मुकाबले बहुत सक्षम और ताकतवर समुदाय भी है, और वह आरक्षण के फायदे उठाने में असली आदिवासियों से बहुत आगे भी रहेगा। आदिवासियों का भी यह डर है कि मैतेई अगर आदिवासी दर्जा पा जाएंगे तो वे आदिवासी इलाकों में भी जमीनें खरीदने लगेंगे, और आदिवासी बेजमीन, बेघर हो जाएंगे। राज्य विधानसभा की 60 सीटों में से 40 सीटें अकेली इम्फाल घाटी में हैं, जहां पर कि मैतेई बसे हुए हैं, और इसलिए विधानसभा में इसी समुदाय के लोग सबसे अधिक रहते हैं, और राज्य के इतिहास में तकरीबन तमाम मुख्यमंत्री इसी समुदाय से बने हैं। अभी विधानसभा में 40 मैतेई विधायक हैं, और 20 आदिवासी विधायक। अभी दो हफ्ते पहले मणिपुर हाईकोर्ट में मैतेई ट्राईब यूनियन नाम के एक संगठन की याचिका पर राज्य सरकार को कहा गया कि वह 10 साल पहले की केन्द्रीय जनजाति मामलों के मंत्रालय की सिफारिश पेश करे। इस सिफारिश में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की बात कही गई थी। अदालत में मैतेई तर्क यह है कि 1949 में जब मणिपुर भारत में मिला तब मैतेई लोगों को जनजाति का दर्जा मिला हुआ था। 

क्लिक करें और देखें वीडियो : सुनील से सुनें : मणिपुर के आदिवासी-आरक्षण पर डाके की कोशिश

हम लगातार देश में जगह-जगह आदिवासी बेचैनी की बात करते हैं, और अब ऐसे तनाव में मणिपुर सबसे अधिक तनावग्रस्त राज्य बनकर सामने आया है, और 8 बरस की मोदी सरकार की सबसे कड़ी संवैधानिक कार्रवाई अपनी ही पार्टी के राज पर हुई है। लेकिन यह बात साफ है कि देश में आदिवासियों, दलितों के आरक्षण पर गैरदलित-आदिवासी लोगों का हमला किसी न किसी शक्ल में जारी है। उनकी जमीनों पर हमला हो रहा है, उनके जंगल और जल पर कब्जा हो रहा है, उनकी संस्कृति पर शहरी धार्मिक मूल्य लादे जा रहे हैं, और वे अपने ही घर में अजनबी बना दिए जा रहे हैं। मणिपुर देश की सरहद का एक प्रदेश है, और वहां पर बाहरी ताकतों की दखल का एक खतरा हमेशा ही रहता है। यह इलाका हथियारों और नशे की तस्करी का इलाका भी है। यहां पर अगर आदिवासियों के हक से छेडख़ानी की अदालती या सरकारी कोशिश होगी, तो उसका असर उत्तर-पूर्व के कुछ दूसरे राज्यों पर भी हो सकता है क्योंकि यहां की आदिवासी जातियों के लोग और जगहों पर भी बसे हुए हैं। हाईकोर्ट में गए हुए सत्तारूढ़ जाति के लोग केन्द्र और राज्य की जानकारी में थे, अदालत का कोई फैसला आरक्षण में फेरबदल का नहीं है, बल्कि वह विचार करने के बारे में है। अभी सब कुछ सरकार के हाथ में ही था, और केन्द्र और मणिपुर दोनों जगह भाजपा की ही सरकारें हैं। ऐसे में नौबत एकदम से काबू के बाहर हो जाना, हिंसा इस हद तक भडक़ जाना, यह ेएक बड़ी नाकामयाबी है। यह भी समझने की जरूरत है कि देश में किसी एक जगह आदिवासियों के हक छीनने की कोशिश अगर होगी, तो बाकी प्रदेशों में भी आदिवासी इसे गौर से देखेंगे। हो सकता है कि मणिपुर में सत्ता संतुलन के लिए और मैतेई हिन्दू लोगों को खुश करने के लिए भाजपा सरकारों को यह एक रास्ता सूझा हो, लेकिन आदिवासियों का आरक्षण अगर इस हमलावर अंदाज में बेअसर कर दिया जाएगा, तो वे किसी भी जगह हथियार उठाएंगे। मणिपुर की राजनीतिक और सामाजिक जटिलताएं पूरी तरह से हमारी समझ में नहीं हैं, इसलिए एक सीमित चर्चा के साथ आज हम यह विस्तृत सलाह दे सकते हैं कि देश में दलितों और आदिवासियों को तरह-तरह से बागी बनाने की नौबत लाना समझदारी नहीं है। उत्तर-पूर्व पहले भी तरह-तरह के उग्रवाद का शिकार रहा है, उसे भडक़ाने की कीमत पर वहां के आदिवासियों के हक खत्म नहीं करने चाहिए। वैसे भी आंकड़े बताते हैं कि वहां की आधी से अधिक आबादी वाला मैतेई समुदाय पढ़ाई-लिखाई, संपन्नता, राजनीतिक ताकत, इन सबमें सबसे आगे है, ऐसे में आदिवासियों के आरक्षण पर इस समुदाय को लाद देना सामाजिक न्याय भी नहीं दिखता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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