संपादकीय

बहुत से जुर्म पुलिस के रोकने लायक रहते हैं, जिनका होना बताता है कि पुलिस के काम में कोई कमी या कमजोरी है। लेकिन बहुत से जुर्म पुलिस के दायरे के बाहर के होते हैं, उनमें उनके हो जाने के बाद लोगों को पकड़ पाना ही पुलिस के बस में होता है, और वहां पता लगता है कि वह अपना काम दिलचस्पी से कर रही है या नहीं। अब कोरबा की खबर है कि वहां एक नौजवान ने नशे की अपनी लत के चलते हुए शराब पी हुई हालत में मां से और पैसे मांगे, और न मिलने पर उसने चाकू से मां को मार डाला। खबर में यह भी है कि मां भी शराब पीने की आदी थी, और बड़ा बेटा पॉक्सो एक्ट में जेल में है। नशे में इस तरह की हत्याओं की खबरें थमने का नाम नहीं लेती हैं। हर दिन ऐसे कई कत्ल हो रहे हैं जो कि घर के भीतर हैं, और जिनमें पुलिस को खबर मिलने के बाद ही उसका काम शुरू होता है। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के एसपी संतोष सिंह जिस जिले में रहते हैं, वहां लगातार नशे के खिलाफ अभियान चलाते हैं, लेकिन जाहिर है कि यह अभियान गैरकानूनी नशे के खिलाफ ही हो सकता है, जब प्रदेश की सरकार ही प्रदेश में नशे की सबसे बड़ी कारोबारी है, तो सरकारी अफसर सरकारी दुकानों से शराब की बिक्री तो रूकवा नहीं सकते। दूसरे किस्म का नशा ही वे रोक सकते हैं, या गैरकानूनी शराब। इन दोनों ही किस्म की रोकथाम से सरकारी शराब की बिक्री बढ़ती है, और सरकार को भी किसी अफसर का ऐसा अभियान माकूल बैठता है क्योंकि बिकी हुई सरकारी शराब पर सरकार को टैक्स भी बहुत मिलता है। छत्तीसगढ़ में गैरकानूनी शराब अंधाधुंध बिकने की खबरें आती हैं, लेकिन जो टैक्स वाली शराब है, उसके मुताबिक ही यह देश में प्रति व्यक्ति सबसे अधिक शराब खपत वाले राज्यों में से एक हो गया है। यह एक अलग बात है कि साढ़े चार बरस पहले जब कांग्रेस सत्ता में आई, तो उसने सरकार बनते ही शराबबंदी की बात घोषणापत्र में जोड़ी थी, लेकिन गंगाजल वाला वह घोषणापत्र गंगाजल में बह गया दिखता है, कम से कम यह एक बात। भाजपा और दूसरी पार्टियां लगातार याद दिलाती हैं कि कांग्रेस वादाखिलाफी कर रही है, लेकिन कांग्रेस ने शराबबंदी के लिए अपने एक बुजुर्ग विधायक सत्यनारायण शर्मा की अगुवाई में एक कमेटी बनाई, और चार बरस से वह कमेटी बस एक कागजी कमेटी बनी हुई है। सरकार के बयान भी बताते हैं कि शराबबंदी का उसका कोई इरादा नहीं है, और यह मुद्दा कुछ महीने बाद के विधानसभा चुनाव में भाजपा उठा सकेगी, या नहीं, यह तो पता नहीं।
शराब की खपत, शराब में होने वाली सेहत और पैसों की बर्बादी को देखें तो छत्तीसगढ़ एक भयानक नौबत में है। शराबबंदी लागू न करने के लिए कांग्रेस पार्टी और सरकार लगातार यह तर्क देते हैं कि लोग शराब पीना छोड़ दें तो शराबबंदी कर दी जाएगी, या भाजपा के नेता शराब पीना छोड़ दें तो शराबबंदी कर दी जाएगी। लेकिन हकीकत यही है कि साफ-साफ चुनावी घोषणा के बाद भी कांग्रेस सरकार ने शराबबंदी नहीं की, और अब अगर अगले कुछ महीनों में चुनाव के कुछ महीने पहले सरकार ऐसा करती भी है, तो उस पर जनता का कोई भरोसा नहीं रहेगा, उसे महज चुनावी कार्रवाई मान लिया जाएगा। दरअसल सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने कर्जमाफी और धान बोनस जैसे जो बड़े फैसले किए, उनका बोझ भी सरकारी खजाने पर पड़ा, और जाहिर है कि दारू से मिलने वाला मोटा टैक्स छोड़ पाना सरकार के लिए आसान नहीं था। इसलिए जिस तरह रमन सिंह सरकार आदिवासी इलाकों में गाय बांटने की, हर आदिवासी परिवार को एक गाय देने की अपनी हिन्दूवादी योजना को बड़ी सहूलियत के साथ भूल गई थी, उसी तरह कांग्रेस सरकार शराबबंदी को मोदी के 15 लाख के जुमले की तरह भूल गई। फिर दारू के धंधे से सत्तारूढ़ पार्टी को भी पर्दे के पीछे मोटी कमाई हर प्रदेश में होती ही है, और जिन प्रदेशों में शराबबंदी है, वहां भी दारू-तस्करों से सत्ता फलती-फूलती है। गुजरात और बिहार जैसे शराबबंदी वाले प्रदेशों में घर पहुंच सेवा बिना संगठित हुए और सत्ता की हिफाजत के तो हो नहीं सकती। इसलिए आधा दर्जन शराबी राज्यों से घिरे हुए छत्तीसगढ़ में शराबबंदी मुमकिन थी या नहीं, सरकार की नीयत थी या नहीं, यह अलग ही बात है। फिलहाल सरकार का कार्यकाल पूरा होने जा रहा है, और जनता के सामने शराब से हुई सामाजिक बर्बादी का एक बड़ा मुद्दा खड़ा रह सकता है।
देश के अलग-अलग राज्यों में शराब की अलग-अलग नीतियां हैं, कहीं निजी कारोबारी शराब बेचते हैं, तो कहीं सरकार शराब बेचती है। यह धंधा सत्तारूढ़ लोगों की मोटी कमाई का कारोबार भी माना जाता है, और कोई भी प्रदेश इससे अछूता नहीं रहता। ऐसे में शराबबंदी आसान और सहूलियत का फैसला नहीं रहता, लेकिन जब कोई पार्टी खुद होकर इसकी घोषणा करती है, तो उससे इसकी उम्मीद भी की जाती है। छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में कोरोना-लॉकडाउन का वक्त ऐसा था जब महीनों तक सारा ही बाजार बंद था, और शराब भी बंद थी। दुनिया में शायद यह दौर इस बात को परखने का सबसे अच्छा मौका था कि जनता बिना शराब के रह सकती है या नहीं। लोग बहुत अच्छे से जी लिए, पूरे लॉकडाउन के महीनों में कोई इक्का-ृदुक्का मौत हुई हो तो हुई हो, शराब के आदी लोगों ने नशे के बिना खुदकुशी कर ली हो, ऐसा भी नहीं हुआ। रोजगार भी नहीं था, कारोबार भी नहीं था, दारू के लिए पैसे भी नहीं थे, और दारू भी नहीं थी। लेकिन लोगों की सेहत इस दौरान बेहतर रही, और लोगों ने बिना दारू जीना सीख लिया था। अब हालत बहुत खराब है क्योंकि गली-गली में सरकारी अमले की निगरानी में ही दो-नंबर की दारू बिक रही है, और लोग मुफ्त का राशन पाकर बिना महत्वाकांक्षा जीते हुए थोड़ी-बहुत कमाई को भी दारू में बहा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में दो ही पार्टियों के दबदबे की राजनीति है। भाजपा भी शराबबंदी की चुनावी घोषणा को याद दिलाते हुए कांग्रेस के खिलाफ बयानबाजी करते रहती है, लेकिन उसमें भी यह दम नहीं दिखता कि वह अगले चुनाव के बाद अपनी सरकार बनने पर तुरंत शराबबंदी की घोषणा करे। उसके पास तो गुजरात की शराबबंदी का, अच्छा या बुरा जैसा भी हो, तजुर्बा भी है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है, और शायद इस धंधे से होने वाली एक-नंबर और दो-नंबर की कमाई का लालच भी है। भाजपा अगर शराबबंदी लागू करने की बात बार-बार कांग्रेस को याद दिला रही है, तो उसे अभी से इसकी घोषणा करनी चाहिए, और हो सकता है कि महिला वोटरों के बीच उसे इसका फायदा भी मिले। जो पार्टी शराबबंदी के मुद्दे पर चुनाव लड़ती है, उसे इसका फायदा मिलता है। अब यह एक अलग बात है कि अपना वायदा पूरा न करने वाली पार्टी को अगले चुनाव में क्या मिलेगा? फिलहाल देखना है कि अगले कुछ महीने छत्तीसगढ़ में हर दिन दारू-हिंसा की मौतें देखते हैं, या फिर किसी पार्टी में इसे सचमुच ही बंद करने की हिम्मत दिखती है।