संपादकीय
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उत्तर-पूर्व का मणिपुर अभी हिंसा के जिस दौर से गुजरा है, बल्कि बेहतर तो यह कहना होगा कि गुजर रहा है क्योंकि हिंसा खत्म तो हुई नहीं है, जरा सी कम हुई है, और जरा सी थमी है, यह पूरा दौर भारतीय लोकतंत्र के कई हिस्सों को जगाने के लिए काफी है। लेकिन जगाया उसी को जा सकता है जो कि जागने के लिए तैयार हों, जो लोग सोच-समझकर जागना नहीं चाहते हैं, जो घर की कॉलबेल की बटन बंद कर चुके हों, फोन का अलार्म बंद कर चुके हों, और घरवालों को बोलकर सोए हों कि उन्हें न जगाया जाए, उन्हें भला कोई कैसे जगा सकते हैं? हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के कई हिस्से इसी तरह सोए हुए हैं। मणिपुर ने बड़ी तल्खी के साथ यह हकीकत सामने रखी है कि केन्द्र और राज्य सरकारें किस तरह एक सबसे संवेदनशील और नाजुक मुद्दे की अनदेखी कर सकती हैं, मणिपुर का हाईकोर्ट किस तरह सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों की अनदेखी कर सकता है, और देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकतें आदिवासियों के हितों की किस तरह अनदेखी कर सकती हैं। एक प्रदेश के इस एक मामले से उठने वाले मुद्दों को समझने की जरूरत है।
मणिपुर में हाईकोर्ट ने अभी सरकार को यह आदेश दिया कि राज्य की अनारक्षित मैतेई जाति को आदिवासी आरक्षण में शामिल करने की सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजी जाए। यह खबर आते ही राज्य में आदिवासी तबका भडक़ उठा क्योंकि वह पहाड़ों में बसा हुआ पिछड़ा तबका है, और मैतेई जाति के लोग आबादी में आधे से अधिक हैं, और वे संपन्न, शिक्षित, ताकतवर, और मैदानी इलाकों के कारोबार सम्हाले हुए लोग हैं। उन्हें जाहिर तौर पर आदिवासियों के मुकाबले तुलना करने पर आरक्षण की जरूरत नहीं है, लेकिन वे आदिवासी आरक्षण में हिस्सेदारी चाहते हैं, और अगर वे इसमें शामिल किए गए, तो आज की अपनी बहुत मजबूत सामाजिक परिस्थिति की वजह से वे ही आरक्षण का पूरा फायदा उठाने की हालत में रहेंगे। राज्य की विधानसभा में मैतेई आदिवासियों का हमेशा से बहुमत रहता है, तीन चौथाई सीटें उन्हीं के पास हैं, और अधिकतर मुख्यमंत्री भी इसी समुदाय के बनते आए हैं। एक किस्म से यह मुद्दा आदिवासी और गैरआदिवासी तबकों के बीच टकराव का मुद्दा भी है, और चूंकि तकरीबन तमाम आदिवासी तबका ईसाई भी है, और तकरीबन तमाम मैतेई तबका हिन्दू है, इसलिए यह तनाव और टकराव एक किस्म से ईसाई और हिन्दू टकराव की तरह भी देखा जा सकता है। यह नौबत किसी भी देश के लिए सरहद पर बसे हुए किसी राज्य में आना बड़ी फिक्र और खतरे की बात होगी, लेकिन अभी तक 50 से अधिक मौतों के बाद भी सोशल मीडिया यही कह रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन मौतों पर कोई अफसोस जाहिर नहीं किया है। कुछ लोगों को यह बात भी खटक रही है कि आज मतदान वाले कर्नाटक में कल एक हिन्दू धार्मिक समारोह में लंबे समय से हर बरस इस्तेमाल होने वाले हाथी के गुजरने पर भी प्रधानमंत्री ने उसकी बड़ी सी तस्वीर के साथ ट्विटर पर अफसोस जाहिर किया है, लेकिन मणिपुर की हिंसा में 50 मौतों के बाद भी उन्होंने कुछ नहीं कहा है। हम लोकतंत्र की अलग-अलग संस्थाओं के लिए मणिपुर से जो सीखने की बात कर रहे हैं, उसमें प्रधानमंत्री और केन्द्र सरकार के लिए भी सीखने की बात है, राज्य सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के लिए भी इसमें एक नसीहत है। लेकिन अदालतों के लिए भी यह एक गंभीर और दिलचस्प मामला है।
मणिपुर हाईकोर्ट ने 27 मार्च को राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि वो मैतेई जाति को अनुसूचित जनजाति की लिस्ट में शामिल करने के लिए चार हफ्ते में अपनी सिफारिश दे। यह सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजने की बात थी। और राज्य की 34 अनुसूचित जनजातियों ने इसका विरोध किया जिनकी आबादी 41 फीसदी है। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का एक मौखिक बयान एक विश्वसनीय अंग्रेजी अखबार, द हिन्दू, में छपा है जिसमें जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने कहा है कि मणिपुर हाईकोर्ट को इस संबंध में 23 साल पुराना संवैधानिक पीठ का फैसला क्यों नहीं दिखाया गया? इस फैसले में कहा गया था कि किसी भी अदालत या सरकार को अनुसूचित जनजाति की लिस्ट में कुछ जोडऩे, घटाने, या उसे संशोधित करने का अधिकार नहीं है। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने कहा कि हाईकोर्ट के पास अनुसूचित जाति की लिस्ट में संशोधन का अधिकार नहीं है, ये अधिकार राष्ट्रपति के पास है कि वो किसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे।
आज जब मणिपुर में इस तनाव को लेकर दसियों हजार लोगों को अलग-अलग मिलिट्री कैम्पों में रखा गया है, हजारों परिवारों ने दूसरे पड़ोसी राज्यों में जाकर शरण ली है, तो ऐसे तनाव की साफ-साफ आशंका के रहते हुए भी मणिपुर हाईकोर्ट ने यह फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पुराने फैसले को क्यों नहीं देखा? हो सकता है कि किसी एक पक्ष या दोनों पक्षों के वकीलों ने सोच-समझकर या लापरवाही से इस फैसले की जानकारी अदालत को न दी हो, लेकिन अदालत को खुद भी ऐसी जानकारी लेना था, और उस फैसले को देखकर शायद अदालत ऐसा फैसला देना खुद ही ठीक नहीं समझती। अब देश के मुख्य न्यायाधीश ने जो कहा है उससे ऐसा लग रहा है कि मणिपुर हाईकोर्ट के फैसले का कोई भविष्य नहीं है, लेकिन इससे उपजी हिंसा में 60 से अधिक जिंदा लोग इतिहास बन गए हैं। लोगों को यह समझना चाहिए कि देश में चुनाव तो चलते ही रहेंगे, लेकिन प्रधानमंत्री के ओहदे पर बैठे लोगों को किसी चुनावी आमसभा के मुकाबले देश के एक प्रदेश में लगी हुई आग को प्राथमिकता देनी थी। उनकी जिस शोहरत के चलते चुनावी सभाओं में भीड़ उमड़ती है, उसी शोहरत के चलते यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि उनकी अपील पर हिंसा शायद कुछ थम सके। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। इसलिए आज हमने यहां जो चर्चा की है, उसमें लोकतंत्र के जिन-जिन पहलुओं पर आंच आ रही है, वे खुद अपने बारे में सोचें, हमने तो बस चर्चा कर दी है, और उससे अधिक किसी नसीहत देने की कोई जरूरत नहीं है। यहां पर हमें कुछ पानठेलों पर लिखी हुई यह बात याद आती है कि यहां सभी ज्ञानी हैं, यहां ज्ञान न बघारें। यह बात वहां होने वाली गैरजरूरी और नाजायज राजनीतिक बहस को लेकर लिखी गई होगी, हमें भी अपनी लिखी गई बातों के बाद कोई सुझाव उसी दर्जे का लगता, इसलिए हम केवल तथ्यों को सामने रख दे रहे हैं, बाकी तो सभी संबंधित तबके ज्ञानी हैं ही।
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