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ममता के बदले सुर, लेकिन क्या कांग्रेस मिलाएगी ताल से ताल?
19-May-2023 3:07 PM
ममता के बदले सुर, लेकिन क्या  कांग्रेस मिलाएगी ताल से ताल?

  प्रभाकर मणि तिवारी

01 दिसंबर, 2021 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार से मुलाकात के बाद पत्रकारों से बातचीत में यह बयान दिया था।

उस समय ममता बनर्जी के इस बयान को कांग्रेस के साथ उनकी बढ़ती दूरियों से जोड़ कर देखा गया था। लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के दो दिन बाद ममता बनर्जी का एक और बयान आया।

‘कांग्रेस जहां मज़बूत है, वहां लड़े। हम उसका समर्थन करेंगे। इसमें कुछ ग़लत नहीं है। लेकिन उसे भी (कांग्रेस को) दूसरे दलों का समर्थन करना होगा।’

15 मई, 2023 को ममता बनर्जी के दिए इस बयान को कांग्रेस की तरफ़ तृणमूल के बढ़ते हाथ की तरह देखा जा रहा है।

इन दोनों बयानों में मात्र 17 महीनों का फासला है, लेकिन दोनों बयान एक दूसरे के बिल्कुल उलट हैं और सियासी रूप से अहम हैं।

ममता बनर्जी के इन दोनों बयानों के बीच 180 डिग्री का अंतर होने के पीछे की वजहों को समझने के लिए उनके अब तक के राजनीतिक सफर को समझना जरूरी है।

ममता का राजनीतिक सफर साल 1976 में कांग्रेस से ही शुरू हुआ था। उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 21 साल थी।

साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें पहली बार टिकट दिया।

अपने पहले ही चुनाव में इंदिरा गांधी की मौत के कारण वोटरों की सहानुभूति का लाभ उठाते हुए उन्होंने सीपीएम के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को पटखनी दे दी।

इस तरह एक धमाके के साथ उन्होंने अपनी संसदीय पारी शुरू की थी।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्हें युवा कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया।

हालांकि कांग्रेस-विरोधी लहर में 1989 में वो लोकसभा चुनाव हार गई थीं। लेकिन इससे हताश होने की बजाय उन्होंने अपना पूरा ध्यान बंगाल की राजनीति पर केंद्रित कर लिया।

साल 1991 के चुनाव में वो लोकसभा के लिए दोबारा चुनी गईं।

उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पीवी नरसिंह राव मंत्रिमंडल में उन्हें युवा कल्याण और खेल मंत्रालय का जिम्मा दिया गया।

केंद्र में महज दो साल तक मंत्री रहने के बाद ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में एक विशाल रैली का आयोजन करके मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। उस समय उनकी दलील थी कि वो राज्य में सीपीएम के अत्याचार के शिकार कांग्रेसियों के साथ रहना चाहती हैं।

उनके अनुसार, पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सोमेन मित्रा की सीपीएम को लेकर राय अलग थी।

ममता और कांग्रेस के बीच दूरियां बढ़ती गईं। उन्होंने आखऱिकार कांग्रेस से पूरी तरह नाता तोड़ लिया और पहली जनवरी, 1998 को तृणमूल कांग्रेस नाम से अपनी नई पार्टी बना ली।

ममता बनर्जी 1998 से 2001 के बीच एनडीए के साथ रहीं। रेल मंत्री बनने वाली वो देश की पहली और एकमात्र महिला हैं।

हालांकि तहलका कांड के कारण महज़ 17 महीने बाद ही इस पद से इस्तीफा देकर वो एनडीए सरकार से अलग हो गईं।

कुछ लोग कहते हैं कि उनके इस्तीफे की असल वजह 2001 में पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर में हिंसा थी।

इस हिंसा में उनकी पार्टी टीएमसी के 11 लोग मारे गए थे। उन्होंने एनडीए की केंद्र सरकार से राज्य सरकार को बर्ख़ास्त करने की माँग की।

उनकी माँग नहीं मानी गई, तो इसके विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया। लेकिन सितंबर, 2003 में बिना किसी मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री के तौर पर वो दोबारा एनडीए सरकार में शामिल हुईं।

चार महीने बाद नौ जनवरी, 2004 को उन्हें कोयला और खनन मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई।

2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के हार जाने के कारण ममता की यह पारी भी छोटी ही रही। उसके बाद केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी। और ममता ने यूपीए का दामन थाम लिया।

ममता बनर्जी ने ऐसा क्यों किया, इसकी भी बड़ी दिलचस्प कहानी है।

ममता बनर्जी के करियर को नज़दीक से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी बताते हैं, ‘ममता की सीपीएम से दुश्मनी जगज़ाहिर थी। परमाणु समझौते के मुद्दे पर वाम मोर्चे ने 2008 में जब यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तब अपनी पार्टी की इकलौती सांसद रही ममता बनर्जी ने सरकार का समर्थन किया था।’

उसके बाद 2009 का लोकसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने साथ मिल कर लड़ा और 42 में से 26 सीटें जीत लीं। दोनों के बीच का वो साथ 2012 तक चला।

तापस मुखर्जी कहते हैं, ‘ममता बनर्जी को लगा कि केंद्र में मित्र सरकार होने की स्थिति में उन्हें राज्य में विकास परियोजनाएं सुचारू रूप से चलाने में मदद मिलेगी।’

लेकिन ‘मां माटी मानुष’ की राजनीति करने वाली ममता को धीरे-धीरे यूपीए सरकार के कई फैसलों से दिक्कत होने लगी।

वरिष्ठ पत्रकार पुलकेष घोष के अनुसार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफड़ीआई) और गैस सिलेंडरों पर सब्सिडी जैसे मुद्दों पर यूपीए सरकार से उनकी दूरियां बढ़ती गईं।

ममता और यूपीए के बीच रह-रहकर बनते-बिगड़ते संबंधों के बीच एक बात जो हमेशा जगजाहिर रही, वो है उनके और सोनिया गांधी के रिश्ते। ममता जब एनडीए का हिस्सा थीं तब भी सोनिया गांधी के साथ उनके रिश्ते बहुत अच्छे थे। ममता अपने दिल्ली दौरे के दौरान नियमित रूप से सोनिया गांधी से मुलाकात करती थीं।

साल 2021 में भाजपा के खिलाफ तमाम विपक्ष को एकजुट करने की क़वायद के तहत भी उन्होंने दिल्ली में सोनिया के साथ बैठक की थी।

लेकिन कुछ मुद्दों पर असहमति के कारण ममता ने गैर-कांग्रेसी दलों के गठबंधन के एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया। उसके बाद पूर्वोत्तर राज्यों- त्रिपुरा और मेघालय में उन्होंने कांग्रेस विधायकों को तोड़ कर अपनी पार्टी में शामिल करा लिया।

2022 के गोवा विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे। इसी दौरान कांग्रेस के कई अन्य नेता भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए।

गोवा में अपने चुनाव अभियान के दौरान दोनों दलों ने एक-दूसरे पर जमकर हमले किए। नतीजों के बाद कांग्रेस ने आरोप लगाया कि तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा की जीत में मदद की है।

इस साल मार्च में मुर्शिदाबाद जि़ले की सागरदीघी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में सीपीएम के समर्थन से कांग्रेस उम्मीदवार की जीत हुई।

कांग्रेस की इस जीत से चिढ़ कर ममता बनर्जी ने साफ कह दिया था कि अगले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी अकेले ही लड़ेगी। लेकिन कांग्रेस को लेकर उनका नज़रिया फिर बदल ही गया।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस के प्रति ममता के रुख़ और तृणमूल कांग्रेस की नीति में बदलाव का एलान उन्होंने भले अब किया हो, इस पर मंथन मार्च महीने में शुरू हो गया था।

ममता बनर्जी के राजनीतिक सफर को करीब से देखने वाले जानकार प्रोफ़ेसर समीरन पाल कहते हैं, ‘मुर्शिदाबाद उपचुनाव के नतीजे और ‘एकला चलो’ की नीति का एलान करने के बावजूद ममता ने राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खारिज होने के मुद्दे पर केंद्र सरकार की आलोचना की थी।’

वो आगे कहते हैं, ‘इस बीच, तृणमूल कांग्रेस से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी छीन गया। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के बाद कांग्रेस की मज़बूत होती ज़मीन और उसके बाद कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे ने ममता को उसके प्रति अपना नज़रिया बदलने पर मजबूर कर दिया है।’

बंगाल में कांग्रेस की गिरती साख

प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, ‘रुख बदलने के पीछे एक वजह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का लगातार कमज़ोर होना भी है। साल 2019 के लोकसभा में बंगाल में कांग्रेस दो सीटों पर सिमट कर रह गई। बाक़ी तमाम सीटों पर चौथे नंबर पर रही थी। तब भाजपा ने जो 18 सीटें जीतीं, वहाँ तृणमूल कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही थी।’

कुछ दिनों पहले ही जनता दल-एस के एचडी कुमारस्वामी, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने विपक्षी एकता के मुद्दे पर विचार-विमर्श करने के लिए ममता बनर्जी से मुलाकात की थी। उसके बाद अपने ओडिशा दौरे के दौरान ममता ने वहां के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से मुलाक़ात की थी।

तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘नीतीश कुमार समेत कई नेताओं ने ममता से मुलाकात में कहा था कि कांग्रेस को साथ लिए बिना भाजपा के खिलाफ कोई ठोस गठबंधन संभव नहीं है। उन नेताओं के रवैए ने भी ममता का मन बदलने में अहम भूमिका निभाई है।’

चुनावी फायदे के लिए ही ममता ने ऐसा किया है?

तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष कहते हैं, ‘सागरदीघी के उपचुनाव के बाद ममता की ‘एकला चलो’ टिप्पणी का आशय ये था कि बंगाल में हमें किसी के साथ गठजोड़ की जरूरत नहीं है और भाजपा को हराने के लिए हम अकेले ही काफी हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ गठबंधन बनाना तो हमारी पुरानी नीति रही है।’

दूसरी ओर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने ममता के ताज़ा बयान को अपमानजनक कऱार दिया है।

ममता के बयान के बाद स्थानीय अंग्रेज़ी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘दीदी के पास अब ऐसा कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। तृणमूल कांग्रेस से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा छीन चुका है। गोवा से लेकर त्रिपुरा और मेघालय तक वे मौक़ा मिलते ही कांग्रेस को नुक़सान पहुंचाने का प्रयास करती रही हैं। तृणमूल कांग्रेस से लोगों का मोहभंग हो रहा है और ममता की लोकप्रियता में तेज़ी से गिरावट आ रही है।’ (bbc.com/hindi)

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