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कनक तिवारी लिखते हैं- दिल्ली कथा में संविधान व्यथा
22-May-2023 11:01 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- दिल्ली कथा में संविधान व्यथा

दिल्ली विधानसभा, मंत्रिपरिषद, उपराज्यपाल और केन्द्र सरकार को लेकर गैरजरूरी, पेचीदा, लोकतंत्र विरोधी और सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी करता मामला आया है। दिल्ली विधानसभा को बाकी राज्यों की विधानसभाओं के मुकाबले बहुत कम अधिकार हैं। किसी तरह मामला चलता रहा। लेकिन दिल्ली में आम आदमी की बार-बार सरकार आने से पार्टी और इसके नेता अरविन्द केजरीवाल को अपनी कमतर स्थिति नागवार गुजरती लगी। उपराज्यपाल दिल्ली सरकार पर लगातार नकेल डालते रहे। चिढक़र आम आदमी पार्टी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख करते संविधान के अनुच्छेद 239 क-क की व्याख्या करने का अनुरोध किया। सुप्रीम कोर्ट ने उपराज्यपाल और केन्द्र सरकार के खिलाफ फैसला किया। इसके बावजूद मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग कहते केन्द्र सरकार और उपराज्यपाल ने दिल्ली सरकार को काम नहीं करने दिया। मामला फिर सुप्रीम कोर्ट गया। ताजा फैसले में कोर्ट ने लगभग पुराना फैसला (2018) दोहराते हुए उपराज्यपाल और सरकार की खिंचाई करते कहा जितने भी अधिकार विधानसभा को दिए गए हैं। उनका उपयोग दिल्ली सरकार करेगी। उसमें रोड़ा अटकाने की जरूरत नहीं है। 

सुप्रीम कोर्ट में गर्मी की छुट्टी होने पर आनन- फानन में केन्द्र सरकार ने संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची के प्रविष्टि क्रमांक 41 को बदलकर वृहत्त दिल्ली परिक्षेत्र में सेवारत षासकीय सेवकों को केन्द्र सरकार के पाले में कर लिया। इस तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी कर दी। मजबूर होकर आम आदमी सरकार को फिर सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ेगा। वहां बहुत समय लगने की संभावना है क्योंकि ऐसा ही संविधान का ढांचा है। सुप्रीम कोर्ट को शक्ति है लेकिन कई प्रावधान उसकी प्रविधि के बाहर संसद द्वारा कर दिए जा सकते हैं। मोदी सरकार ने पूरी ढिठाई के साथ संविधान का कचूमर निकालते, लोकतंत्र में फेडरल व्यवस्था का मजाक उड़ाते, सुप्रीम कोर्ट की हेठी करते अपना पुराना ढर्रा कायम रखा। वह लोकतंत्र विरोधी और कॉरपोरेटी सामंतवाद का घिनौना उदाहरण है। 

दिल्ली विधानसभा में 70 विधायक चुने जाते हैं। दस प्रतिशत मंत्री बन सकते हैं। बाकी राज्यों में पंद्रह प्रतिशत बन सकते हैं। दिल्ली के चुनाव कराने संसद को अनुच्छेद 324 से 327 तथा 329 के तहत अधिकार हैं। अनुच्छेद 328 के अधिकार दिल्ली विधानसभा को नहीं कि राज्य के विधान-मंडल के चुनाव के लिए कानून बना सके। डॉ. अंबेडकर ने साफ किया था कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानना जरूरी होगा, सिवाय उन बातों के जहां संवैधानिक स्वायत्तता हो। अनुच्छेद 239 क क (4) में दिल्ली के पर कतर दिए गए। राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप करते केन्द्र अमूमन कानून नहीं बना सकता लेकिन दिल्ली के लिए कई विषयों पर बना सकता है। ऐसा अनुच्छेद 239 क क (7) (क) में भी है। जितने अधिकार पिछली कांग्रेसी और भाजपाई दिल्ली सरकारों के पास थे। एक के बाद एक आम आदमी पार्टी सरकार से केन्द्र द्वारा छीन लिए गए। 
संवैधानिक मजबूरियों के पेंच के कारण दिल्ली को पूर्ण राज्य मिलना ऐसा ही उलझाव है। संविधान गवर्नमेंट ऑफ  इंडिया एक्ट 1935 की तर्जेबयां पर नहीं होता तो लोकतंत्र कई मौलिक सवाल खड़ा कर पाता। अरविंद केजरीवाल परेशानी फितूर के भी हुनरमंद सियासी खिलाड़ी हैं। आम आदमी पार्टी संविधान की मूल इबारत के राजपथ के बनिस्बत पगडंडियों से भी चलकर मुकाम तक जाना चाहती है। केन्द्र के राजपथ पर तो सत्ता की ठसक-गाडिय़ों के कारण जाम लगा है। 

दिल्ली असेम्बली का ऊहापोह संविधान के गर्भगृह में जन्मा। वहां पहले से कार्यरत मशरूमी नगरपालिकाओं और नगर निगम अधिकारों में बढ़ोतरी का इरादा हुआ। 
महसूस हुआ कि दिल्ली के नागरिक केवल अंकगणित की इकाइयां नहीं हैं। संविधान सभा में ब्रजेश्वर प्रसाद ने कहा था केन्द्र सरकार के बड़प्पन और अभिजात्य के लिए उचित नहीं कि दिल्ली समेत संघ राज्य क्षेत्रों का शासन चलाए। आर. के. सिध्वा ने तीखा सवाल किया कि आजादी के पहले कलकत्ता में भारत की राजधानी और लेफ्टिनेंट गवर्नर की अलग अलग सरकारें क्या नहीं थीं? देश का संविधान बना रहे लेकिन दिल्ली के रहवासियों को नागरिक अधिकारों से वंचित कर रहे। इतिहास याद रखेगा दो मुखर कम्युनिस्ट सदस्यों इंद्रजीत गुप्त और दशरथ देव ने दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य और समस्त अधिकार सम्पन्न विधानसभा की धारदार पैरवी की। कहा चुने गए प्रतिनिधियों और नौकरषाहों के बीच राज्य संचालन की प्राथमिकताओं की तुलना होगी तो विधायिका को संविधान तरजीह देगा।
 
केजरीवाल भारतीय लोकतंत्र में दिल्ली जैसे राज्य की संभावनाओं को संविधानेतर ढंग से भी बुनना नहीं चाहते। केवल तीन बिन्दुओं पुलिस, विधि तथा व्यवस्था और राजस्व के महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार नहीं होने पर भी केन्द्र सरकार के लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथों विधानसभा, मंत्रिपरिषद और दिल्ली के नागरिकों की अश्वगति की ख्वाहिशों पर सईस की नकेल रही है। राजस्व उगाही के अरबों रुपयों का इस्तेमाल विरोधी पार्टी भाजपा के नुमाइंदे पुलिस, राजस्व उगाही और कानून तथा व्यवस्था के नाम पर अधिकारियों को भडक़ा फुसलाकर राज्य सरकार के खिलाफ  काम ही नहीं करने दे रही थी। तो क्या संविधान टुकुर-टुकुर देखता रहता? नौकरशाह उपराज्यपाल को गफलत रही है कि विधानसभा कोई कानून बनाए। वे दखल दे सकते हैं। उन्होंने समझा होगा कि वे फाउल की सीटी बजा देंगे और गेंद को अंपायर राष्ट्रपति के मैदान में ठेल देंगे। इस तरह 70 में से 67 सीटें जीतने वाली केजरीवाल सरकार का मुर्गमुसल्लम बनाया जा सकेगा। 
उपराज्यपाल चूक गए क्योंकि तब सुप्रीम कोर्ट ने ठीक पकड़ा था। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार संविधान की समझ के लिए लोकतंत्रीय भावना, सामूहिक नागरिक प्रतिनिधित्व, संवैधानिक चरित्र और सत्ता का विकेन्द्रीकरण को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। उपराज्यपाल को अधिकार मिल जाएंगे तो लोकतंत्र की मर्यादा ही नहीं रहेगी। दिल्ली पर संसद की विधायी मर्यादाओं का दबाव भी है। 

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिल्ली विधानसभा, राज्य सरकार और उप राज्यपाल के संवैधानिक रिश्तों को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी पहले 2018 में भी कर दिया था। केजरीवाल सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकारों की ठीक मीमांसा की है। उपराज्यपाल केन्द्र की कठपुतली हैं। कांग्रेस और भाजपा की सरकारें केन्द्र में एक पार्टी की सरकार होने पर भी मिली जुली कुश्ती करती रहीं। केजरीवाल के तेवर खामोशी, समझौते, खुशामदखोरी या समर्पण के नहीं हैं। 

अपने पुराने वाले पृथक फैसले में भी समृद्ध पैतृक परंपरा तथा कुशाग्र बुद्धि के जज डी वाय चंद्रचूड़ ने कुछ अतिरिक्त बातों का समावेश किया था। उन्होंने साफ  किया कि आखिरकार जनता है जिसके सबसे बड़े और अंतिम अधिकार हैं कि उसकी इच्छा से कोई लोकप्रिय सरकार कैसे चले। उनका एक तर्क  यह भी था कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को लेकर चुने गए प्रतिनिधियों को जवाबदेह होना पड़ता है, संविधान प्रमुख को नहीं। जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक महत्वपूर्ण वाक्य यह भी लिखा था कि राज्य मंत्रिपरिषद की शक्ति और दिल्ली विधानसभा की कार्यपालिक शक्ति एक दूसरे में अंतर्निहित हैं। उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ऐसे में विधानसभा और मंत्रिपरिषद की उपादेयता, अस्तित्व और लोकतांत्रिक भूमिका का क्या होगा? फिर भी अल्लाह जाने क्या होगा आगे! राज्यसभा में सरकार का अध्यादेश गिरा देने की केजरीवाल की कोशिश अगर रंग लाएगी तो लोकतंत्र की रक्षा हो सकती है।  

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