संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अपने-अपने टापुओं पर बैठे विपक्षी दलों में एकता उतनी आसान भी नहीं जितनी...
23-May-2023 5:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अपने-अपने टापुओं पर बैठे  विपक्षी दलों में एकता उतनी आसान भी नहीं जितनी...

मोदी सरकार को देश की जनता ने पांच बरस के लिए चुना है, उसमें अभी साल भर बाकी है, इसलिए मोदी को तो जनता ने एक किस्म से देश की सरकार लीज पर दे दी है, लेकिन जनता विपक्ष लीज पर नहीं देती, वह तो बिखरा हुआ रहता है, और उसे समेटना उसका अपना काम रहता है। आज हिन्दुस्तान में विपक्ष के सामने संभावनाएं मोदी सरकार के मुकाबले अधिक हैं। सत्तारूढ़ पार्टी अपने दसवें बरस में खोने का खतरा अधिक रखती है, लेकिन विपक्ष उसके खिलाफ अनगिनत मुद्दों पर आपसी तालमेल से, और एकजुट होकर सरकार को बड़ी चुनौती दे सकता है। और आज देश की जनता इसी का इंतजार कर रही है। देश भर में मोदी सरकार के खिलाफ मुद्दे इतने बिखरे हुए हैं, और इतने अधिक हैं कि उन पर देश की अलग-अलग गैरएनडीए पार्टियों में एकता हो सकती है, लेकिन इन पार्टियों की प्राथमिकताएं पहले अपने मतभेदों का हिसाब चुकता करना है, उसके बाद ही वे मोदी के बारे में कुछ सोचने की सोचेंगी। 

देश की राजनीति के जानकार बहुत से लोगों को मोदी के खिलाफ किसी विपक्षी एकता को लेकर अधिक उम्मीद नहीं है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि ऐसी उम्मीद तो इमरजेंसी के दौरान भी नहीं दिखती थी, लेकिन बाद में विपक्षी न सिर्फ एक हुए, बल्कि उन्होंने अपनी पार्टियों का अस्तित्व भी मिटा दिया, और सब मिलकर जनता पार्टी बनीं, और देश का इतिहास बदल डाला। अब इस तर्क पर सोचने की बहुत सारी बातें हैं, क्या इमरजेंसी के दौरान देश में लोकतंत्र की जो हालत थी, और जिसकी वजह से अस्तित्व पर खतरा झेल रहीं पार्टियां, और नेता एक हुए, क्या आज हालात उस तरह के दबाव वाले हैं? दूसरी बात यह कि उस वक्त बहुत से प्रदेशों में कांग्रेस की ही सरकार थी जो कि संजय गांधी की इमरजेंसी का विस्तार करने में उसी खूंखार उत्साह से लगी हुई थीं, और आज देश के प्रदेशों में हालात उस कदर खराब नहीं हैं कि लोकतंत्र में एक बगावत की नौबत आए। इमरजेंसी में नेताओं को जेलों में बंद रहते हुए एकता की मजबूरी भी समझ आई थी, और एकता के लिए बातचीत का मौका भी जुटा था। आज विपक्षी एकता के लिए मायने रखने वाले अधिकतर नेता अपने-अपने प्रदेशों में मुख्यमंत्री हैं, उनके सामने एकता न कोई बेबसी है, और न ही दूसरों के साथ बैठना उनकी मजबूरी है। ऐसे में अलग-अलग कोई पहल कहीं चल रही है, तो उनकी वजह से चल रही है जो कि ऐसे किसी संभावित विपक्षी गठबंधन के मुखिया बनने की हसरत रखते हैं। उससे परे एक साथ बैठकर आधा दर्जन नेता भी कोई बात कर रहे हों, ऐसा नहीं दिखता है। चीटियां भी जब एक साथ जुटती हैं, तो वे अपने बदन से सौ गुना वजनी पत्ते या कीड़े को ढोकर ले जाते दिखती हैं, लेकिन उसके लिए उनका एकजुट होना जरूरी रहता है, और तालमेल से चलना जरूरी रहता है। 

अब दिल्ली की ही खबर है कि वहां सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को अधिकारियों पर नियंत्रण के अधिकार देने का जो फैसला सुनाया है, उसे बेअसर करने के लिए केन्द्र सरकार एक अध्यादेश लाई है ताकि केजरीवाल के पंख बंधे ही रहें। अब इस मामले पर केजरीवाल सारी विपक्षी पार्टियों से अपील कर रहे हैं कि जब संसद में इसे पेश किया जाए, तब तमाम पार्टियां एक होकर इसका विरोध करें। इसे लेकर ऐसी खबर भी आ गई थी कि कांग्रेस इस मुद्दे पर अध्यादेश का विरोध करेगी। लेकिन अधिक देर नहीं लगी, कांग्रेस ने इन खबरों का खंडन किया, और कहा कि अभी इस पर पार्टी ने कोई फैसला नहीं लिया है, और पार्टी अपने राज्य संगठन, और दूसरे हमखयाल राजनीतिक दलों के साथ इस पर सलाह करेगी। जबकि कांग्रेस के साथ ठीकठाक तालमेल रख रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मुद्दे पर केजरीवाल का साथ दिया है, और खुलकर कहा है कि निर्वाचित सरकार को दी गई ताकतें कैसे छीनीं जा सकती हैं, यह संविधान के खिलाफ है, और वे केजरीवाल के साथ हैं, और सभी विपक्षी दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों को याद होगा कि जिस वक्त राहुल गांधी के खिलाफ गुजरात की एक अदालत का फैसला आया, और उनकी संसद सदस्यता अगले दिन खत्म कर दी गई तब केजरीवाल ने खुलकर उसके खिलाफ बयान दिए थे। अगर विपक्ष में एकता की कोई संभावनाएं देखनी हैं, तो उसके लिए लोगों को एक-दूसरे की मुसीबत में साथ देने के बारे में सोचना पड़ता है। मतभेद तो विपक्षी पार्टियों में भी हमेशा ही बने रहेंगे, लेकिन चीटियों को कोई बड़ा सामान उठाकर ले जाना है, तो उन्हें जरूरत के वक्त एकजुट होकर कदमताल करनी पड़ती है, और अपने निजी अस्तित्व को कुछ वक्त के लिए भूलना भी पड़ता है। 

चूंकि हमने इमरजेंसी के दौर की विपक्षी एकता से आज की एक तुलना करने का खतरा उठाया है, तो यह भी समझना पड़ेगा कि नेहरू की बेटी को हराने के लिए पार्टियों ने अपने अस्तित्व को भी खत्म कर दिया था, आज की जो भाजपा देश की सरकार पर काबिज है, वह भाजपा भी जनसंघ की शक्ल में जनता पार्टी में विलीन हुई थी, और जनता पार्टी खत्म होने के बाद वह भाजपा बनकर फिर अस्तित्व में आई थी। नाजुक वक्त के ऐसे बहुत से तकाजे रहते हैं जब लोगों को निजी महत्वाकांक्षा, निजी अस्तित्व भूलकर भी एक-दूसरे के साथ हाथ में हाथ थामकर खड़े होना पड़ता है। इमरजेंसी और आज की दूसरी कई किस्म की अलग बातों से परे एक और बात अलग है कि उस वक्त प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से पूरी तरह मुक्त जयप्रकाश नारायण अगुवाई करने को मौजूद थे, और आज बारात में चलने को तैयार हर कोई घोड़ी चढ़े दूल्हा बने दिख रहे हैं। अब ऐसे में बारात आगे बढ़े तो कैसे बढ़े? फिलहाल पूरी तरह निराश होने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि कोई विपक्षी गठबंधन आखिरी के महीनों में भी हो सकता है, लेकिन एक बात गौर करने लायक यह है कि देश में ऐसी एक सुगबुगाहट चल रही है कि क्या मोदी सरकार संसद के कार्यकाल के पहले छह महीने बाद के कुछ विधानसभा चुनावों के साथ आम चुनाव भी करवा सकती है? अगर ऐसी नौबत आती है, तो अपने-अपने टापुओं पर राज कर रहे विपक्षी नेताओं के पैर सम्हल नहीं पाएंगे। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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