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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिना नशा किए क्या किसी को इस लोकतंत्र के बेहतर होने पर भरोसा हो सकता है?
28-May-2023 3:15 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिना नशा किए क्या किसी को इस लोकतंत्र के बेहतर होने पर भरोसा हो सकता है?

हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट और अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट में चल रहे मामलों को देखें तो उनका एक बड़ा हिस्सा सरकारों के ही खिलाफ है। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जो इस लोकतंत्र में सरकारों को तानाशाह के अंदाज में काम करने वाला बताते हैं। कल ही इस अखबार के यूट्यब चैनल पर एक वीडियो में हमने यह सवाल उठाया था कि किस तरह एक फैक्टचेकर मोहम्मद जुबैर को दिल्ली की पुलिस एक फर्जी मामले में फंसाते रही, और दिल्ली हाईकोर्ट ने जब पुलिस को घेर लिया कि उसके पास जुबैर के खिलाफ कोई केस ही नहीं है, तो पुलिस ने यह मामला खत्म करने की अपील की। हाईकोर्ट ने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि नफरत की बातें करने वालों के खिलाफ खुद होकर केस दर्ज करना पुलिस का खुद का काम है, इसके लिए उसे किसी शिकायत का इंतजार नहीं करना है, और अगर ऐसे मामले दर्ज नहीं किए गए तो इसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा। इसके बाद भी देश में कहीं पुलिस को नफरत के खिलाफ जुर्म दर्ज करने की कोई हड़बड़ी नहीं है। बल्कि कई प्रदेशों में, और केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली में पुलिस नफरत फैलाने वालों के साथ खड़ी दिख रही है, और नफरत के खिलाफ लड़ रहे लोगों को देशद्रोही बताकर जेल भेजने में उसकी हड़बड़ी देखने लायक है। जो लोकतंत्र सरकारों को तकरीबन बेहद हक देता है, वे सरकारें उन हकों का तकरीबन बेजा इस्तेमाल करने की हड़बड़ी में दिखती हैं। सरकारों के खिलाफ अदालतों में चल रहे मुकदमों को देखें तो यह समझ नहीं पड़ता कि वे जनता के लिए सरकार चला रहे हैं, या जनता के खिलाफ। 

ऐसा लोकतंत्र जिसके तीन हिस्सों में से सबसे अधिक असर और इस्तेमाल वाली सरकार गलत काम करने में जुटी हो, जनता का खजाना लूटने में जुटी हो, अपने ही ईमानदार कर्मचारियों के खिलाफ ज्यादती करने में लगी हो, अपने भ्रष्ट और दुष्ट लोगों को बचाने में लगी हो, वैसी सरकारों को लोकतंत्र के तहत मिले गए हक देने का क्या फायदा? एक तरफ तो ये सरकारें जनकल्याणकारी और धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और जवाबदेह होने का ढकोसला भी करती हैं, और दूसरी तरफ उनका बर्ताव इसके ठीक खिलाफ रहता है। अगर सरकारों के कुकर्मों से अदालतें लदी हुई न रहें, तो लोगों के बाकी मामले-मुकदमे जल्दी निपट सकेंगे। किसी भी लोकतंत्र में अदालती ढांचा इतना बड़ा और इतना मजबूत तो बनाया नहीं जा सकता कि वह सरकार के ही गलत कामों से निपटने में थककर चूर हो जाए। 

जिस तरह किसी मामूली जुर्म के मुकदमे में कटघरे में खड़े हुए छोटे से मुजरिम का छोटा सा वकील बड़े-बड़े तर्क देकर अपने मुवक्किल के खिलाफ मुकदमे को गलत साबित करने में लगे रहता है, यह साबित करता है कि उसके मुवक्किल की उंगलियों में खुजली हो रही थी, इसलिए उसने सामने वाले की जेब में उंगलियां डाल दी थीं, कुछ उसी तरह जब देश-प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी वकील अपनी सरकार के लिए बहस करते दिखते हैं तो दिल शर्म से भर जाता है कि क्या ऐसे ही लोकतंत्र के लिए इन सरकारों को चुना गया था? बड़ी-बड़ी सरकारें अपने नामी-गिरामी मुखिया के साथ जिस तरह कटघरे में खड़े होकर अपने जुर्म छुपाने के लिए तरह-तरह के खोखले तर्क सामने रखती हैं, वे शर्मनाक रहते हैं, लेकिन यह आए दिन की बात हो गई है। दरअसल संविधान बनाने वाले लोगों ने बहुत से प्रावधान बनाते समय यह सोचा भी नहीं था कि एक दिन सरकारें मुजरिम चलाएंगे। वे गौरवशाली लोकतंत्र के दिन थे जब संविधान सभा में भविष्य के संविधान पर चर्चा हुई थी। अब उसमें से कुछ भी बाकी नहीं रह गया है, न लोगों में गरिमा रह गई है, न परंपराओं का कोई सम्मान रह गया है, और न ही अगली पीढ़ी के लिए एक इज्जतदार लोकतंत्र छोडक़र जाने की जिम्मेदारी का अहसास रह गया है। 

दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में एक बेहतर कल आने की गुंजाइश नहीं रह गई है, क्योंकि न तो पार्टियां बेहतर बनते दिख रहीं, न ही उन पार्टियों में बेहतर नेताओं के आने की संभावना दिख रही है। सैद्धांतिक रूप से जो पार्टियां ईमानदार दिखती हैं, वे निर्वाचित लोकतंत्र में हाशिए पर जा चुकी हैं। जो पार्टियां हर किस्म के साम्प्रदायिक और जाति आधारित समझौते करने पर आमादा हैं, जिनके पास चुनाव लडऩे के लिए भ्रष्टाचार की अपार दौलत है, उन्हीं पार्टियों का भविष्य दिख रहा है। कुल मिलाकर देश और प्रदेशों में राजनीति लोकतंत्र से पर्याप्त परे जा चुकी दिख रही है। कुछ लोग कमसमझ हैं, उन्हें यह लग सकता है कि हर पांच बरस में होने वाले चुनाव किसी किस्म का लोकतंत्र हैं। हिन्दुस्तानी चुनाव अब सबसे अधिक खर्च करने वाले, सबसे अधिक समझौते करने वाले, सबसे अधिक धार्मिक उन्माद बढ़ाने वाले दलों का खेल रह गया है, जिसकी चर्चा करने के लिए लोकतंत्र जैसे शब्द को बदनाम नहीं करना चाहिए। यह लोकतंत्र फिलहाल पटरी से इंजन और तमाम डिब्बों सहित उतरा हुआ दिख रहा है। अब यह कब वापिस पटरी पर आ सकेगा, कब पटरियों की उतनी मरम्मत हो सकेगी, यह कल्पना करना आज आसान नहीं है। बिना कोई नशा किए हुए जिन लोगों को आज इस लोकतंत्र के भविष्य को लेकर भरोसा है, उन्हें देखकर हमें रश्क भर होता है। 
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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