संपादकीय

photo : Play Store
ब्राजील में महीने भर से एक वीडियो गेम चल रहा था जो 17वीं सदी में वहां प्रचलित गुलाम प्रथा पर बना हुआ था। गूगल प्ले पर मौजूद यह गेम स्लेवरी-सिमुलेटर नाम का था जो खेलने वालों को यह छूट देता था कि वे खेल में गुलाम खरीदें, बेचें, उनको सजा दें, या उनके साथ सेक्स करें। यह खिलाडिय़ों को दो में से एक रास्ता चुनने का मौका देता था कि वे या तो गुलामी को खत्म करने वाले बनें, या फिर पैसे वाले, गुलामों के मालिक बनें। इसके खिलाफ चारों तरफ से शिकायतें हुई थीं और लोगों ने कहा था कि यह उस देश में अकल्पनीय है जहां पर कि रंगभेद एक जुर्म है, और जो देश गुलामी के जख्मों से गुजरा है वहां पर कोई डिजिटल प्लेटफार्म इस तरह का भयानक हिंसक और अमानवीय खेल बना सकता है! वहां की संसद में बहस के दौरान एक सांसद ने कहा कि नौजवान और किशोर ही आमतौर पर खेल खेलते हैं, और उनके बीच गुलामी की हिंसा पर आधारित ऐसे खेल को रखने की बात सोची भी कैसे गई होगी? गूगल के खिलाफ यह शिकायत भी हुई कि उसने ब्राजील के एक कानून को तोड़ा है जो कि किसी भी तरह के रंगभेद के खिलाफ है, और यह खेल काले गुलामों को खरीदने-बेचने और उन्हें सेक्स जैसी कई किस्म की सजा देने का खेल था। इस सांसद ने सरकारी एजेंसियों को इस बात की जांच करने के लिए भी कहा है कि गूगल प्ले पर जिन लोगों ने इस गेम के रिव्यू में लिखा है कि वे असल जिंदगी में भी ऐसा करना चाहेंगे, उन लोगों की जांच होनी चाहिए। एक व्यक्ति ने तो यह तक लिखा था कि यह वक्त गुजारने के लिए शानदार खेल है, लेकिन इसमें और अधिक प्रताडऩा देने के विकल्प जोडऩे चाहिए, जैसे किसी गुलाम को कोड़ों से मारना। ब्राजील की सरकार ने इस गेम की जांच शुरू कर दी है, लेकिन इसे हटाए जाने के पहले तक इसे हजारों लोग डाउनलोड कर चुके थे। यह खेल खिलाडिय़ों को सुरक्षा कर्मचारी रखकर गुलामों को भागने से रोकने का विकल्प भी देता था। इसमें गुलामों के मालिक गोरे दिखाए गए थे, और काले गुलामों को सलाखों के पीछे या जंजीरों में कैद दिखाया गया था।
दुनिया की बड़ी-बड़ी डिजिटल कंपनियों पर विकसित देशों की सरकारें और संसद अपने कामकाज को सुधारने के लिए, उन पर से हिंसा और नफरत को दूर करने के लिए तरह-तरह के प्रतिबंध लगा रही हैं, फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग को अमरीकी संसद की सुनवाई में कई बार पेश होना पड़ा है, और सांसदों ने उनसे यह साफ कर दिया है कि फेसबुक से आपत्तिजनक सामग्री हटाने के लिए वो जो कर रहे हैं, वह काफी नहीं है। दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुर्माने लग रहे हैं, और गूगल या माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों को बहुत सी जगहों पर तरह-तरह के प्रतिबंध झेलने पड़ रहे हैं। लेकिन अधिक जागरूक सरकारों का यह मानना है कि ये कंपनियां मुनाफा कमाने में इतनी डूबी हुई हैं कि ये अपने प्लेटफॉर्म से नफरत और हिंसा, झूठ और धमकियों को हटाने के लिए पर्याप्त कोशिशें नहीं कर रही हैं। हिन्दुस्तान में तो हम रात-दिन यही देखते हैं कि फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर बेकाबू हिंसा बेकसूरों के खिलाफ अभियान चलाती रहती है, और ऐसे हिंसक लोगों पर कोई रोक-टोक नहीं है। हिन्दुस्तान का आईटी कानून वैसे तो जरूरत से अधिक मजबूत है, लेकिन सरकारें इसका इस्तेमाल अपनी राजनीतिक सोच के मुताबित करती हैं, और सरकार को नापसंद लोगों के खिलाफ हिंसा का सैलाब भी अनदेखा किया जाता है, और बेकसूर लोगों को किस तरह प्रताडि़त किया जाता है यह अभी-अभी ऑल्टन्यूज के मोहम्मद जुबैर के केस में दिल्ली हाईकोर्ट के जज ने साफ किया है।
लेकिन आज 21वीं सदी में अगर दुनिया की कोई गेम कंपनी ऐसा गेम बनाने का सोचती भी है जो गुलामों को खरीदने-बेचने और उनसे हिंसा करने, उनसे सेक्स करने, उन्हें प्रताडि़त करने का खेल है, तो इस पर महज प्रतिबंध लगाना काफी नहीं है बल्कि ऐसी कंपनी पर अंतरराष्ट्रीय अदालतों में मुकदमा भी चलना चाहिए, और उनका दीवाला निकल जाने की हद तक उन पर जुर्माना भी लगना चाहिए। 20-25 बरस पहले तक दुनिया की सबसे मशहूर ईमेल वाली कंपनियों ने अपने प्लेटफॉर्म पर ऐसे चैटरूम को भी धड़ल्ले से छूट दे रखी थी जो बच्चों से सेक्स की चर्चा करते थे, उसे बढ़ावा देते थे, और एक-दूसरे के लिए उसका इंतजाम करते थे। यह अधिक पुरानी बात नहीं है, एक चौथाई सदी के भीतर की ही है, लेकिन दुनिया के लोगों ने तेजी से उसका विरोध किया, तो आज इस तरह की हिम्मत कोई कर नहीं सकते हैं।
लेकिन इस बात को भी समझने की जरूरत है कि रंगभेद और जातिभेद जिन देशों और समाजों में जुर्म है, वहां भी वह मौजूद तो है ही। अभी अमरीका और कनाडा में एक-एक करके अलग-अलग शहरों में, शिक्षा-बोर्ड में ऐसे कानून बनते जा रहे हैं जो कि जातिभेद को जुर्म करार दे रहे हैं। इसकी शुरूआत अमरीका में बसे हुए दलितों को बचाने के लिए की गई जो कि वहां बसे हुए गैरदलित, सवर्ण हिन्दुओं के हाथों जातिभेद के शिकार हैं। अमरीका जाने के बाद भी लोगों को हिन्दुस्तान की जाति व्यवस्था भुलाए नहीं भूल रही है, और अब वहां दलित आंदोलनकारी जगह-जगह इसकी पहल कर रहे हैं, और जाति व्यवस्था की हिंसा को जानकर, समझकर अमरीका और कनाडा के लोग इसके खिलाफ कानून बनाते जा रहे हैं। जाति व्यवस्था एक किस्म से रंगभेद भी है, और एक किस्म से वह गुलामी प्रथा का विस्तार भी है। हिन्दुस्तान में जिन लोगों को यह लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है, उन्हें अमरीका में हिन्दुस्तानियों के बीच हकीकत देखनी चाहिए कि वे खुद तो गोरे अमरीकियों के बीच पूरे हक का दावा रखते हैं, लेकिन यहां से गए हुए नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों के साथ भेदभाव करते हैं। अब वहां का कड़ा कानून हिन्दुस्तानी जाति व्यवस्था को भी खत्म करेगा।