विचार / लेख

लोकतंत्र के मंदिर में राजदंड
29-May-2023 4:37 PM
लोकतंत्र के मंदिर में राजदंड

 पुष्य मित्र

लोकतंत्र, मंदिर और राजदंड. ये तीन शब्द कल से लेकर आजतक मीडिया में छाये हुए हैं. इन तीन शब्दों को लेकर कई तरह के हेडलाइन्स गढ़े गये. एक मैंने भी गढ़ा है. लोकतंत्र के मंदिर में राजदंड.

हालांकि यह हेडलाइन बहुत अटपटी है. विरोधाभासों से भरी. जैसे, कि क्या लोकतंत्र का कोई मंदिर हो सकता है? क्या लोकतंत्र और राजदंड एक साथ चलने वाली परंपरा हो सकती है? और यह भी कि क्या मंदिर में राजदंड स्थापित किया जा सकता है?

बचपन की किताबों में हम सबने पढ़ी है लोकतंत्र की तरह-तरह की परिभाषाएं. मगर उन परिभाषाओं में एक जो अब तक याद रह गई है. वह यह है-

लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है।

अभी सर्च किया तो पता चला कि यह परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दी है. और फिर साथ ही यह भी पढ़ा कि लोकतंत्र में कानून के आगे सभी लोग बराबर होते हैं. इसकी तीन खासियत होती है, कानून का शासन, संवैधानिक बराबरी और राजनीतिक आजादी।

यूरोपीय देशों में लोकतंत्र की स्थापना राजतंत्र और चर्च दोनों की सत्ता के खिलाफ लड़ते हुए हुई. मतलब यह कि वहां के प्रबुद्ध और समझदार लोगों ने तय किया कि हमें न ईश्वर के नाम पर चलायी जाने वाली धर्म के एजेंटों की सत्ता चाहिए और न राजतंत्र के नाम पर किसी एक व्यक्ति की सत्ता चाहिए. हम खुद समझदार और सक्षम हैं, हम अपना राजपाट खुद चला लेंगे. इस तरह धीरे-धीरे लोकतंत्र स्थापित और मजबूत हुआ. इतना मजबूत कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तो दुनिया के ज्यादातर देश लोकतंत्र के जादू में बंध से गये. हालात ये हैं कि दुनिया के 203 संप्रभु मुल्कों में से 156 खुद को रिपब्लिक या गणराज्य कहते हैं. यहां तक कि हमारे देश के एक भगोड़े साधू ने जो काल्पनिक देश रचा उसका नाम भी उसने रिपब्लिक ऑफ कैलाशा रखा. मतलब यह कि यह जो लोकतंत्र या डेमोक्रेसी है, या फिर गणतंत्र या रिपब्लिक. वह वस्तुत: धर्म और राजा दोनों के निषेध पर खड़ी हुई सत्ता है.

आज के आधुनिक मानव ने दोनों को नकारा है. वह न धर्म के नाम पर शासित होता है और न ही किसी राजा के नाम पर बनी राजतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर. वह शासन चाहता तो है, मगर उस सत्ता का निर्माण खुद करना चाहता है. वह हर चार, पांच या छह साल पर एक सत्ता खड़ी करता है. उस पर लगातार निगरानी रखता है. ठीक लगा तो ठीक वरना उसे फिर खत्म कर देता है और नई सत्ता को आधार देता है. वह सारी ताकत अपनी मु_ी में रखना चाहता है. यही लोकतंत्र है.

वैसे लोकतंत्र कोई पश्चिमी अवधारणा नहीं है. अपने देश में भी यह मगध साम्राज्य से पहले था. सिर्फ वैशाली में नहीं, लगभग पूरे देश में था. पंजाब में तो वहां के आयुधजीवी गणराज्यों ने सिकंदर को टक्कर दी थी. पाणिनी ने उस पर विस्तार से लिखा है, पढ़ सकते हैं.

उसके बाद राजतंत्र आया. पूरी दुनिया में बड़े राज्य मजबूत हुए. तब सामूहिक फैसले के बदले राजा का निर्णय आखिरी होने लगा. उसको चुनौती नहीं दी जा सकती थी. हां, उस पर नैतिकता लादी जाती थी. यह जो राजदंड है, वह उसी नैतिकता का प्रतीक है. मगर यह राजाओं पर ही निर्भर था कि वह राजदंड की नैतिकता का सम्मान करे या न करे. भारत जब आजाद हुआ तो अभी हमने पढ़ा कि नेहरू ने सेंगोल के जरिये सत्ता का हस्तांतरण करवाया. मगर फिर उस सेंगोल को भुला दिया गया।

क्यों भुला दिया गया. क्योंकि वह सेंगोल राजदंड बिल्कुल नहीं था. हमने सत्ता को नैतिक बनाने किए किसी राजदंड की परिकल्पना नहीं की. हमने संविधान को रचा. वह संविधान हमारा राजदंड ही नहीं, बल्कि उससे ज्यादा ताकतवर चीज है।  वह सिर्फ सत्ता की नैतिकता की बात नहीं करता, वह सत्ता को नियंत्रित और निर्देशित करता है. लगाम लगाता है. बेलगाम होने से बचाता है. हमारी सत्ता को किसी राजदंड की जरूरत नहीं. हमारे पास उससे अधिक ताकतवर चीज है. संविधान।

तो सवाल यह था कि क्या संसद लोकतंत्र का मंदिर है?

मेरा जवाब यह है कि संसद लोकतंत्र का मंदिर बिल्कुल नहीं है. क्योंकि आधुनिक मानव ने अपनी विकास प्रक्रिया में जब राजा और धर्म दोनों की सत्ता को नकारा तो लोकतंत्र का जन्म हुआ. इसलिए लोकतंत्र की सबसे जरूरी जगह किसी भी मंदिर, मस्जिद या चर्च से ऊंची जगह है. लोकतंत्र की मूल भावना समानता और बहस है और किसी धार्मिक संस्थान में उस स्तर की समानता और बहस को हमने नहीं देखा, जैसा दुनिया भर के पार्लियामेंटों में देखा.

क्या हमें संसद में किसी राजदंड की जरूरत है?

बिल्कुल नहीं. हमारे पास राजदंड से अधिक ताकतवर चीज पहले से है, वह है संविधान.

फिर कल जो हुआ वह क्या हुआ?

कल जो भी हुआ वह लोकतंत्र को कमजोर करने का प्रयास हुआ. लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक संसद में धार्मिक और राजतांत्रिक कर्मकांडों का प्रदर्शन कर हमने जाने-अनजाने में लोकतंत्र की गरिमा पर आघात किया है. उसे कमतर बनाने की कोशिश की है. समझदार लोगों के लिए यह गौरव का क्षण तो बिल्कुल नहीं है।

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