संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रेम-संबंधों में लगभग हमेशा हिंसा की शिकार महिला ही क्यों होती है?
30-May-2023 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रेम-संबंधों में लगभग हमेशा हिंसा की शिकार महिला ही क्यों होती है?

दिल्ली में अभी एक बस्ती की गली में लोगों की आवाजाही के बीच एक नौजवान ने नाबालिग दोस्त लडक़ी की जिस तरह चाकू भोंक-भोंककर हत्या कर दी, उसका सीसीटीवी वीडियो बहुत भयानक है। अपनी प्रेमिका को इस अंदाज में मारना, और मारते ही चले जाना, और चाकुओं के वार से परे बड़ा सा पत्थर उठाकर उसके सिर पर और पटक देना हिंसा के दर्जे को बताता है। लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए यह नौजवान जितना हिंसक था, उतने ही बेअसर अगल-बगल खड़े हुए लोग, बगल से गुजर रहे लोग भी थे। इस तरह की हिंसा हो रही थी कि बदन से चाकू निकाल-निकालकर यह लडक़ा वापिस घोंप रहा था, और दो-चार फीट की दूरी से लोग गुजर रहे थे, खड़े होकर देख रहे थे, और दूर हट जा रहे थे। जाहिर है कि उस जगह पर बड़े-बड़े कई पत्थर पड़े थे, और नहीं तो कम से कम कोई पत्थर उठाकर इस हत्यारे को मार सकता था, जख्मी कर सकता था, लेकिन एक भी व्यक्ति ने यह जहमत नहीं उठाई। यह देश की राजधानी दिल्ली में दिनदहाड़े खुली सडक़ का हाल है तो दूरदराज देश में दूसरी जगहों पर कानून के राज और लोगों की सामाजिक जवाबदेही का क्या हाल होगा यह अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। एक सिरफिरे और हिंसक नौजवान की प्रेम में निराशा से उपजी हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन ऐसी हिंसा के गवाह बने हुए बाकी लोगों की उदासीनता समझ नहीं आती है। आबादी का ऐसा ही हिस्सा मोहब्बत के खिलाफ झंडे-डंडे लेकर वेलेंटाइन डे पर निकल पड़ता है, बाग-बगीचों में लडक़े-लड़कियों को पकडक़र पीटने लगता है, उन्हें धमकी देने लगता है, और राखी बंधवाने लगता है, लेकिन जब उनकी आंखों के सामने, कुछ फीट दूरी पर इतने भयानक तरीके से कत्ल होते रहता है, तो किसी की सामाजिक जागरूकता जागती नहीं रहती है, वह मौके से हट जाने में ही अपनी हिफाजत देखती है। समाज नाम की यह व्यवस्था एकदम से गायब हो जाती है, और एक कमउम्र लडक़ी को एक हिंसक हत्यारे के हाथ अकेले छोड़ देती है। 

अब इस घटना के कुछ दूसरे पहलुओं पर भी सोचना जरूरी है। हत्यारा लडक़ा 20 बरस का एक मुसलमान मैकेनिक है, और लडक़ी 16 बरस की एक हिन्दू राजमिस्त्री की बेटी है जो पढ़-लिखकर वकील बनना चाहती थी। लडक़ी के परिवार का कहना है कि उन्हें इस प्रेम-संबंध के बारे में कुछ नहीं मालूम था। लडक़े ने बयान दिया है कि लडक़ी दो साल से उसके साथ प्रेम में थी, और अब उसे छोडक़र अपने पुराने प्रेमी के पास लौटना चाहती थी, इसलिए उसने उसे मार डाला, और उसे इसका कोई अफसोस भी नहीं है। अब सोचने की बहुत सारी बातों में एक यह भी है कि अगर 14 बरस की उम्र के पहले भी इस लडक़ी का कोई प्रेमी था, तो परिवार और समाज ने लड़कियों को प्रेम-संबंधों में जिम्मेदारी रखने की सीख नहीं दी थी। दूसरी बात यह भी है कि इस उम्र के प्रेम-संबंध न धर्म देखते न जाति देखते, न खानपान देखते। लेकिन अगर प्रेम-संबंधों को आगे बढक़र शादी में तब्दील होना है, तो उस वक्त ये सारी बातें मायने रखती हैं। धर्म और जाति के साथ पारिवारिक रहन-सहन, रीति-रिवाज, और संस्कार जुड़े रहते हैं, खानपान जुड़े रहता है, उस धर्म या जाति से जुड़े हुए कानून जुड़े रहते हैं। बात सिर्फ हिन्दू और मुस्लिम धर्मों की नहीं है, हिन्दू धर्म के भीतर भी अलग-अलग जातियों के अलग-अलग कानूनी दर्जे हैं, और ऐसे प्रेम-संबंधों में कई बार उनसे जुड़े हुए कानूनों का भी इस्तेमाल होता है। लडक़े-लड़कियां इस देश में प्रेम और देह-संबंध की उम्र और हालत में पहुंच जाते हैं, लेकिन वे दिमागी रूप से इसके लिए तैयार नहीं किए जाते कि ऐसी नौबत में उन्हें कैसी समझ का इस्तेमाल करना चाहिए। न सिर्फ देह-संबंधों में, बल्कि भावनाओं के मामले में भी, और भविष्य के लिए फैसले लेने में भी उन्हें तैयार नहीं किया जाता। न मां-बाप कुछ सिखाते, और न ही स्कूल-कॉलेज में इसकी कोई गुंजाइश रहती। इन सबसे परे जो सीख बाजार में मौजूद रहती है, वह बहुत ही घटिया किस्म की रहती है। सेक्स शिक्षा के नाम पर पोर्नो, प्रेम के नाम पर सतही कहानियां, और भविष्य के नाम पर पूरी तरह अनजान नौबत रहती है। 

दूसरी तरफ ऐसी हिंसा में लडक़ों के दिमाग में अपने बचपन से छाई हुई एक मर्दानगी रहती है जो कि घर पर मां और बहन को दूसरे दर्जे की नागरिक की तरह देखते हुए पनपी रहती है। जब घर की महिलाओं को कभी बराबरी का दर्जा मिलते नहीं दिखता, तब मर्दानगी की यही सोच इन लडक़ों के दिमाग में गहरे पैठ जाती है, और हिंसा की तरफ ले जाती है। वे किसी लडक़ी या महिला से ना सुनने के आदी नहीं रहते, और ऐसी नौबत आने पर वे तेजी से हिंसक हो जाते हैं। उन्हें अपने तौर-तरीके कुछ नहीं लगते, लेकिन वे लडक़ी या महिला से वफादारी की हर उम्मीद रखते हैं, उनसे एक गुलाम की तरह रहने की उम्मीद भी करते हैं। इसलिए जगह-जगह होने वाली हिंसा में अधिकतर ऐसी रहती हैं जिनमें हिन्दुस्तानी मर्द या लडक़े ही औरत या लडक़ी पर ज्यादती करते दिखते हैं। 

हिन्दुस्तान में औरत-मर्द के बीच सामाजिक दर्जे में इतनी गहरी और चौड़ी खाई खुदी हुई है कि छोटे-छोटे लडक़े भी लड़कियों को बराबरी देने के बारे में नहीं सोच पाते, और संसद चलाने वाले बड़े-बड़े बुजुर्ग नेता तो कभी भी महिला आरक्षण के बारे में सोचना नहीं चाहते। देश की पूरी सोच मर्दानगी की शिकार है, मर्द इस सोच के शिकार हैं, और महिलाएं इसकी हिंसा की शिकार हैं। आज लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अधिकतर हिंसक जुर्म रोके जाने लायक इसलिए नहीं हैं कि देश की मानसिकता को रातों-रात बदलना मुमकिन नहीं है। और रातों-रात की बात क्यों करें, इसे बदलने के बारे में सोचा भी नहीं जा रहा है। कुछ महिला संगठन, और कुछ राजनीतिक चेतनासंपन्न लोग जरूर महिलाओं के हक की बात करते हैं, लेकिन असल जमीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता है। यह हिंसा बर्ताव में तो बहुत बाद में आती है, लेकिन औरत-मर्द की गैरबराबरी की शक्ल में वह बचपन से ही दिमाग में बैठी रहती है, और इस हिंसा का खात्मा उस उम्र से ही सोच बदलने से ही हो सकता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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