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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हौसलामंद अखबारों का सदियों पहले के गलत कामों पर भी माफी मांगने का हौसला रहता है
10-Jun-2023 6:00 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  हौसलामंद अखबारों का सदियों पहले के गलत कामों पर भी  माफी मांगने का हौसला रहता है

photo : facebook

ऑस्ट्रेलिया के एक प्रमुख अखबार ने अपनी एक खबर के लिए ऐतिहासिक माफी मांगी है। इसमें खास बात यह भी है कि यह पौने दो सदी पुरानी खबर है, 1838 की। ऑस्ट्रेलिया में हुआ यह था कि मयाल क्रीक नाम की जगह पर स्थानीय आदिवासी समुदाय के 28 लोगों की बहुत क्रूरता से हत्या कर दी गई थी जिनमें अधिकतर औरत और बच्चे थे। यह अकेला मामला था जिसमें उस वक्त के गोरे शासकों ने आदिवासियों की सामूहिक हत्या पर मुकदमा दर्ज किया था। उस घटना की खबर इस अखबार, द सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड, में भी छपी थी, और अभी इस अखबार ने यह मंजूर किया है कि इसने नस्लवादी विचार रखे थे, और हत्यारों को सजा से बचाने के लिए एक मुहिम चलाई थी जिसमें गलत सूचनाओं का भी इस्तेमाल किया था। यह ऑस्ट्रेलिया का एक सबसे पुराना अखबार है। अब लंबे माफीनामे में इस अखबार ने लिखा है कि उस वक्त उसकी रिपोर्टिंग के वक्त न तो सुबूतों की कमी थी, न ही कोई ठोस शक की गुंजाइश थी, लेकिन अखबार ने ऐसा इसलिए किया था कि हत्यारे गोरे थे और मारे जाने वाले काले थे। शुक्रवार को एक संपादकीय में इस अखबार ने यह कहा कि सच्चाई बताने का उसका लंबा इतिहास है लेकिन मयाल क्रीक के मामले में सच बताने में वह नाकामयाब रहा। उसने इस बात के लिए भी माफी मांगी कि उसने ऐसे लेख भी छापे थे जो लोगों को प्रोत्साहित करते थे कि अगर स्थानीय आदिवासी लोगों से उन्हें खतरा लगे, तो वे उन्हें मार डाले। अखबार ने लिखा कि उस वक्त उसके लिखे हुए से हिंसा को बढ़ावा मिला क्योंकि अखबार ने ऐसी हिंसा को जायज ठहराया था। अभी, 10 जून को मयाल क्रीक नाम के इस जनसंहार की 185वीं बरसी है, इस मौके पर अखबार ने यह माफीनामा छापा है। 

ब्रिटेन के एक प्रमुख और प्रतिष्ठित अखबार, द गार्डियन ने हाल ही में इस बात के लिए माफी मांगी थी कि इस अखबार के संस्थापकों के कारोबार में गुलामों का इस्तेमाल होता था, और उनके पूंजीनिवेश से यह अखबार शुरू हुआ था। इसके अलावा भी अमरीका में बड़े-बड़े अखबारों ने पिछले बरसों में सार्वजनिक माफी मांगी है कि नस्लवादी मामलों की रिपोर्टिंग करने में उन्होंने गलतियां की थीं, और वे नाकामयाब रहे थे। 

अब इतनी पुरानी गलती या गलत काम पर आज के मालिकों और संपादकों का माफी मांगना कुछ अटपटा भी है क्योंकि हिन्दुस्तान में तो तथाकथित मीडिया में यह मुकाबला ही चल रहा है कि किस तरह अधिक से अधिक नफरत फैलाई जाए। दुनिया के बड़े अखबार डेढ़-दो सौ साल पहले के नस्लभेद को लेकर आज भी माफी मांग रहे हैं, और हिन्दुस्तानी टीवी चैनल और कुछ अखबार लगातार आज साम्प्रदायिक नफरत फैलाने में लगे हैं जो कि भारतीय संदर्भों में पश्चिम के नस्लभेद किस्म की ही चीज है। धर्म के आधार पर बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के लिए भडक़ाना, और नफरत फैलाना आज हिन्दुस्तान के मीडिया के एक बड़े हिस्से का पसंदीदा शगल हो गया है। कल ही एक किसी टीवी चैनल के कार्यक्रम का एक वीडियो चारों तरफ फैला है कि किस तरह उसके मंच पर आमंत्रित दर्शकों के सामने इस बात पर मुसलमान औरत-मर्दों के बीच बहस करवाई जा रही थी कि मरने के बाद बख्शीश में मिलने वाली 72 हूरों का मामला क्या है। कुरान के अलग-अलग हिस्सों की अलग-अलग व्याख्या करते हुए कई मुल्ला एक-दूसरे से भिड़ रहे थे, और आखिर में बात ऐसी बढ़ गई कि एक वीडियो क्लिप में एक महिला एक मुल्ला को गालियां बकते हुए धक्के मारकर निकाल रही थी। यह भी हो सकता है कि आज से दो सौ बरस बाद हिन्दुस्तान के ऐसे टीवी चैनलों और कुछ अखबारों के मालिकों की 8वीं पीढ़ी अपने पुरखों की करतूतों पर माफी मांगे कि उन्होंने अपनी कमाई बढ़ाने के लिए लोगों के बीच नफरत पैदा की थी, अपनी आत्मा बेच खाई थी। और आज नफरत फैलाने का यह मुकाबला टीवी चैनलों की टीआरपी का मुकाबला बन गया है, और अखबारों का भी एक हिस्सा एक रहस्यमय तरीके से नफरती एजेंडे को बढ़ाने में लग गया है। बहुत से लोगों को इससे हो सकता है कि व्यक्तिगत फायदा भी हो रहा हो, और बहुत से लोगों को यह भी लग रहा होगा कि हिन्दुस्तान में धर्मनिरपेक्षता, सद्भावना, और लोकतंत्र अब इतिहास बन चुके हैं, और आज नदी के बहाव के खिलाफ तैरने के बजाय एक मुर्दे की तरह उसके बहाव के साथ बहना बेहतर है। 

हिन्दुस्तान में अखबारनवीसी में आने वाली नई पीढ़ी को देश की सरहद की अधिक फिक्र नहीं करनी चाहिए, और अखबारों के नीति-सिद्धांत की अच्छी मिसालें दुनिया में जहां दिखें, वहां से उनसे सबक लेना चाहिए। कोई-कोई दौर ऐसे भी आते हैं कि लोगों को अपने इर्द-गिर्द अंधेरा ही अंधेरा दिखता है, निराशा ही निराशा दिखती है, ऐसे में लोगों को दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में अगर उम्मीद दिख रही है, तो उसे देखकर भी अपनी हिम्मत बढ़ानी चाहिए कि अब दुनिया एक गांव हो गया है, और सरहदें बेमायने हो गई हैं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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