संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिहार में जातीय जनगणना का रास्ता साफ होने के बाद
05-Aug-2023 2:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  बिहार में जातीय जनगणना का रास्ता साफ होने के बाद

बिहार सरकार की शुरू करवाई हुई जातीय जनगणना पटना हाईकोर्ट के एक आदेश से थम गई थी, लेकिन अब अदालत ने इस जनगणना के खिलाफ बहुत सी याचिकाओं का निपटारा करते हुए इसे पूरी तरह संवैधानिक करार दिया है। जबकि इसी हाईकोर्ट ने मई के महीने में इसे रोक दिया था, और कहा था कि राज्य सरकार जातीय सर्वे करने के लिए सक्षम नहीं है। जनवरी में नीतीश सरकार ने जातियों के इस सर्वेक्षण में यह पता लगाना शुरू किया था कि किस जाति के लोगों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति क्या है। उसका कहना था कि इससे प्रदेश में सभी तबकों के लिए विकास की संभावना बढ़ सकेगी। हाईकोर्ट के मई के आदेश के खिलाफ बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट गई थी जिसने पटना हाईकोर्ट में अगली सुनवाई तक रूकने के लिए कहा था, और उसके महीने भर बाद हाईकोर्ट का यह फैसला ही आ गया। इस फैसले से बिहार सरकार की इस मौलिक कोशिश को ताकत मिलती है कि सभी जातियों का सर्वे करके प्रदेश की आर्थिक हकीकत मालूम करनी चाहिए। 

केन्द्र सरकार ने ऐसी जनगणना खुद करने से मना कर दिया था, लेकिन नीतीश सरकार ने प्रदेश में इसे करना शुरू किया। जाति व्यवस्था को लेकर देश में अलग-अलग जातियों के लोगों की फिक्र अलग-अलग है। कई प्रदेशों में सत्तारूढ़ गठबंधन कुछ खास जातियों से बने रहते हैं, और उन्हीं के दम पर सत्ता में आते हैं। लोगों को याद होगा कि उत्तरप्रदेश में एक वक्त समाजवादी पार्टी यादवों और मुस्लिमों पर टिकी रहती थी। बाद के बरसों में यह बुनियाद उतनी मजबूत नहीं रह गई। लेकिन बिहार के आज के सामाजिक समीकरण बताते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सत्ता में भागीदार लालू यादव का गठजोड़ जातीय समीकरण के हिसाब से बड़ा मजबूत है, और मतदाताओं के एक बड़े तबके की मर्जी का है। दूसरी तरफ दलितों की राजनीति करने वाली मायावती केन्द्रीय जांच एजेंसियों के घेरे में थककर किनारे बैठ गई हैं, और अब उनके एक वक्त के प्रभावक्षेत्र, यूपी में उनका समर्थक-समुदाय कोई नया सहारा ढूंढते दिख रहा है। लेकिन इन राजनीतिक बातों से परे एक सामाजिक हकीकत पूरे देश में यह है कि आरक्षित या अनारक्षित जातियों के लोग अपनी जातियों की पहचान से परे कई किस्म के आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार हैं, या कि पिछड़ेपन की अपनी छवि के मुकाबले वे आर्थिक रूप से अधिक संपन्न हो चुके हैं। यह बात ओबीसी तबके के आरक्षण में आय सीमा तय करने से भी साफ होती है कि हर ओबीसी परिवार आरक्षण का जरूरतमंद नहीं है। दूसरी तरफ हम हैं जो कि सोचते हैं कि दलित और आदिवासी तबकों के भीतर भी आय या ओहदे की ताकत की सीमा लागू होनी चाहिए, और एक दर्जे की सरकारी या राजनीतिक ताकत पा जाने वाले परिवारों को आरक्षण से बाहर करना चाहिए, ताकि उनकी जगह पर उन्हीं की बिरादरी के अधिक जरूरतमंद लोगों को भी मौका मिल सके। 

बिहार की जातीय जनगणना उन लोगों के मन में जरूर एक दहशत पैदा कर सकती है जो कि अनारक्षित तबकों के हैं, और जिनके लिए आरक्षण के बाद बची सीटें उन्हें कम लगती हैं। इन्हें यह लग सकता है कि जातीय जनगणना के बाद हो सकता है कि आबादी के अनुपात में आरक्षण की बात उठे, और अनारक्षित वर्ग की सीटें और घट जाएं। दूसरी तरफ कुछ लोगों को यह भी आशंका हो सकती है कि सरकारें अपने बजट का और अधिक हिस्सा जातियों के आधार पर खर्च करने लगे, और उसमें भी सवर्ण-अनारक्षित लोगों का कोई नुकसान हो सकता है। लेकिन ऐसी तमाम आशंकाएं अनारक्षित तबकों की ही अधिक हैं। अगर दलित और आदिवासियों की कोई आशंका बिहार की जातीय जनगणना को लेकर सामने आई हो, तो वह याद नहीं पड़ता है। 

हाल के बरसों में मोदी सरकार ने अपने दोनों कार्यकाल में देश के तरह-तरह के आर्थिक सर्वे के आंकड़ों को उजागर करना बंद कर दिया है। जिन पैमानों पर देश-प्रदेश की योजनाओं को बनाने में मदद मिलती थी, उन्हें मोदी सरकार अब छुपाकर रखने लगी है। इसकी एक वजह यह भी बताई जाती है कि देश के आर्थिक विकास के जो आंकड़े सरकार सामने रखती है, जनता के बीच उनका समान बंटवारा नहीं है, और आम जनता की हालत पहले के मुकाबले बहुत खराब हो चुकी है, जो कि आर्थिक सर्वेक्षण से उजागर हो सकती है। इसलिए देश के जीडीपी को, शेयर बाजार की बढ़ोत्तरी को सामने रखने से भारत सरकार की एक बेहतर तस्वीर बन सकती है, और उसमें आर्थिक सर्वे नाम का कालिख क्यों लगाया जाए? यह अर्थशास्त्रियों के बीच एक व्यापक धारणा है कि केन्द्र सरकार ऐसी ही नीयत से कई किस्म के आर्थिक सर्वे उजागर करना बंद कर चुकी है, जो कि किए जा चुके हैं, और सरकार में दाखिल भी हो चुके हैं। इसी सिलसिले में यह याद करना प्रासंगिक होगा कि हाल ही में केन्द्र सरकार ने आर्थिक सर्वेक्षण वाली एक संस्था, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पापुलेशन साईंसेज, केजे जेम्स को निलंबित कर दिया है। यह इंस्टीट्यूट राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे तैयार करता है, और केन्द्र सरकार के लिए इस तरह के कई और सर्वे करता है। यह केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत आता है, और इसके इकट्ठा किए हुए आंकड़े सरकार को नापसंद बताए जाते हैं। 

ऐसे में जब केन्द्र सरकार देश की जनता से देश की हकीकत के आंकड़े साझा करने से कतरा रही है, तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि राज्य अपने स्तर पर अपनी जरूरत के आंकड़े जुटाएं। बिहार ठीक वही कर रहा है। यह बात अनारक्षित तबकों को आशंका से भर सकती है कि इसके बाद आरक्षित तबकों का बोलबाला और बढ़ जाएगा, और वोटों पर टिकी राजनीति उन तबकों को लुभाने के लिए कई तरह के काम भी करने लगेगी। लेकिन जब देश में बहुत सी बातें बहुमत और जरूरत इन दोनों चीजों को मिलाकर तय होती हैं, तो इस एक अकेले जातीय सर्वे से बिहार में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही जैसी नौबत नहीं आने वाली है। बल्कि इससे देश में आर्थिक जमीनी हकीकत की एक अब तक की अनदेखी तस्वीर सामने आ सकती है, जो कि सामाजिक न्याय की अधिक संभावना खड़ी कर सके। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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