संपादकीय

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साम्प्रदायिक आग से निकले हुए, और अभी भी सुलगती हुई राख पर बसे हरियाणा से एक अलग किस्म की खबर है, वहां कई किसान संघों और खाप पंचायतों ने शांति की अपील की है, और स्वघोषित, तथाकथित गौरक्षक मोनू मानेसर की गिरफ्तारी की मांग की है। अभी खाप पंचायतों, किसान संघों, और धार्मिक नेताओं की एक बड़ी सभा ने ताजा साम्प्रदायिक हिंसा की निंदा करने के लिए हिसार में एक महापंचायत बुलाई। देश में किसान कानून पलटाने वाले भारतीय किसान मजदूर संघ ने इसका आयोजन किया, और इसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी धर्मों के लोग शामिल हुए। इस आयोजन ने यह मांग की कि इसी बरस दो मुस्लिम लोगों को उनकी गाड़ी में जलाकर मार डालने के फरार आरोपी मोनू मानेसर को गिरफ्तार किया जाए। उल्लेखनीय है कि इस गौ-गुंडे मोनू मानेसर के खिलाफ राजस्थान में इन दो हत्याओं का जुर्म दर्ज है, लेकिन वह हरियाणा के नूंह में इस ताजा साम्प्रदायिक हिंसा के ठीक पहले वहां पहुंचने के वीडियो फैला रहा था, और उसी वजह से तनाव भी हुआ था। ऐसे व्यक्ति के बारे में हरियाणा के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की नर्म जुबान देखते ही बनती है।
हिंसा के सैलाब के बाद जिस तरह से हरियाणा की सरकार ने घोर साम्प्रदायिक रूख के साथ मुस्लिमों के नस्लीय सफाए का काम शुरू किया, उसे उनके घर-दुकान से शुरू किया गया जिन्हें बुलडोजर से गिराया गया। यह नौबत ऐसी सरकारी-हिंसा की थी कि जिसके बारे में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने खुद होकर अखबारी खबरों का नोटिस लिया, और राज्य सरकार को कटघरे में बुलाया, बुलडोजर से मकान-दुकान गिराना बंद करवाया, और सरकार से पूछा कि क्या यह नस्लीय सफाया नहीं है? हाईकोर्ट की यह बड़ी कड़ी भाषा थी, लेकिन देश के जिम्मेदार मीडिया में से कुछ लोग सरकार के इस रूख के बारे में लिखते आ रहे थे, और जो खबरें सामने थीं, वे अपने आपमें सरकार के इस साम्प्रदायिक रूख का सुबूत थी, इसलिए हाईकोर्ट ने लीक से बहुत हटकर न कुछ किया, न कुछ कहा, उसने जो कुछ किया वह लोकतंत्र में उसकी जिम्मेदारी थी क्योंकि राज्य सरकार अगर अपनी ही जमीन पर अपने ही नागरिकों के एक तबके को छांटकर उसे तबाह करने के लिए अपनी संवैधानिक ताकत का हिंसक और बेजा इस्तेमाल करने पर उतारू है, किए चले जा रही है, तो उसे किसी को तो रोकना ही था, और भारतीय संविधान में यह जिम्मा अदालत को दिया गया है कि अगर सरकार गुंडागर्दी पर उतारू हो जाए या वह मुजरिम बन जाए, तो अदालत खुद होकर भी कोई मुकदमा शुरू कर सकती है। यूपी और एमपी में सरकारों के ठीक ऐसे ही नस्लीय सफाए और बुलडोजरी-इंसाफ के खिलाफ हमने इसी जगह पर बार-बार सुप्रीम कोर्ट से दखल देने की मांग की थी, लेकिन अदालत ने कुछ किया नहीं था। अब यह बात साफ है कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को भी आईना दिखाया है कि उसे पहले ही भाजपा के कई प्रदेशों में चल रहे ऐसे नस्लीय सफाए के खिलाफ कार्रवाई करनी थी, अगर वह हो चुकी रहती, तो इस हाईकोर्ट को आज आगे बढक़र बुलडोजर नहीं रोकने पड़ते।
फिलहाल हम उस बात पर लौटें जिससे आज यहां लिखना शुरू किया है, तो यह बात साफ है कि हिन्दुओं की बहुतायत वाली हरियाणा की खाप पंचायतों, और पंजाब-हरियाणा की किसान यूनियनों ने अगर गौ-गुंडे मोनू मानेसर की गिरफ्तारी की मांग की है, और हरियाणा के नूंह में शांति की अपील की है, तो यह बात खाप पंचायतों और किसान संगठनों के परंपरागत दायरे से बाहर की है। आज भी हरियाणा की कुछ खाप पंचायतें मुस्लिम व्यापारियों के बहिष्कार के फतवे का समर्थन कर रही हैं, लेकिन बाकी खाप पंचायतें साम्प्रदायिक गुंडे की गिरफ्तारी की मांग कर रही हैं। एक खबर बताती है कि जाट समुदाय से जुड़ी खाप पंचायतें साम्प्रदायिक शांति और इस गुंडे की गिरफ्तारी की मांग कर रही है। किसान और जातीय संगठनों का यह रूख देश में जागरूकता का एक नया संकेत है। किसान अपने परंपरागत दायरे से बाहर आकर एक व्यापक सामाजिक मुद्दे पर देश में अमन-चैन की वकालत कर रहे हैं, जो कि किसी भी जिम्मेदार संगठन की ताकत का एक बड़ा जिम्मेदार विस्तार है। जब किसी बैनरतले कोई ताकत जुटती है, तो उसका समाज के व्यापक भले के लिए भी इस्तेमाल होना चाहिए, और किसान संगठनों का यह रूख इसी जिम्मेदारी को बता भी रहा है।
हरियाणा या किसी प्रदेश को मुस्लिमों से मुक्त करा लेने का सपना कुछ साम्प्रदायिक लोगों का हो सकता है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह हकीकत नहीं हो सकता, और हो यह रहा है कि ऐसा सपना हर चुनाव के वक्त कई अलग-अलग किस्म की पैकिंग में बेचकर लोग वोट पाने की कोशिश करते हैं, और हिन्दुस्तान की कई गैरजिम्मेदार संवैधानिक संस्थाएं न सिर्फ इसे अनदेखा करती हैं, बल्कि इसे हिफाजत भी देती हैं। यह नौबत इस लोकतंत्र को लगातार एक धर्मराज की तरफ धकेलने की कोशिश कर रही है जो कि हकीकत में कभी होना नहीं है, बस यही होना है कि एक स्थाई नफरत और तनाव इस देश के लोगों के जहन में बैठ जा रही है। देश के लोगों की समझ में लोकतंत्र के अलग-अलग दायरों को लगातार कुचलकर उनकी सोच को अलोकतांत्रिक बनाना जारी है। इसमें दिलचस्पी रखने वाली देश-प्रदेश की सरकारें ओवरटाइम कर रही हैं, और बहुत सी अदालतों मामलों को देखकर ऐसा लग रहा है कि इस देश में न्यायपालिका सरकारों के कुकर्म रोकने के लिए ही बनाई गई हैं। लोकतंत्र के लिए यह नौबत निराशा की भी है, और बहुत खतरनाक भी है। ऐसे में अगर सामाजिक और दूसरे किस्म के संगठन अपने सीमित एजेंडा से बाहर जाकर व्यापक जनहित के मुद्दों में शामिल होते हैं, तो अलोकतांत्रिक सरकारों पर एक नैतिक दबाव पड़ सकता है, और देश-प्रदेश की कुछ सहमती-झिझकती अदालतें भी जागकर कुछ कार्रवाई कर सकती हैं।