संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : न आज की फिक्र न आने वाले कल की, बीता कल हथियार जैसा इस्तेमाल
14-Aug-2023 2:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  न आज की फिक्र न आने  वाले कल की, बीता कल  हथियार जैसा इस्तेमाल

हरियाणा की खबरें बहुत परेशान करने वाली हैं। आज एक पखवाड़ा हो गया है जब वहां एक अभूतपूर्व साम्प्रदायिक तनाव खड़ा हुआ, और जिससे निपटने के नाम पर प्रदेश की भाजपा सरकार ने ऐसी कार्रवाई की जिसे वहां के हाईकोर्ट ने खुद नोटिस लेकर एक नस्लीय-सफाया करार दिया, और बुलडोजरों से मुस्लिमों के मकान-दुकान गिराना रोका। हालांकि सरकार ने अदालत में अपने जवाब में कहा है कि वह किसी धर्म के आधार पर तोडफ़ोड़ नहीं कर रही है। इस बीच हरियाणा से वहां छाए हुए तनाव के बीच से यह खबर भी आ रही है कि वहां हिन्दू संगठनों की कोई महापंचायत हुई है जिसमें फतवा दिया गया है कि हिन्दू हथियार खरीदें, और 28 अगस्त को एक धार्मिक जुलूस निकालने की बात भी कही गई है। यह जिक्र जरूरी है कि एक पखवाड़े पहले साम्प्रदायिक हिंसा एक धार्मिक जुलूस के दौरान ही शुरू हुई थी जिसमें आधा दर्जन मौतें हुईं, और बहुत से इलाकों में आगजनी और दीगर हिंसा हुई। वैसे हरियाणा में अब फिर से एक धार्मिक जुलूस के लिए हथियारबंद होने की ऐसी बैठक होना, और ऐसी तैयारी होना परेशान करने वाली बात तो है ही। 

लेकिन आज की एक लंबी-चौड़ी खबर है कि इस हरियाणा के फतेहाबाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के घोषित एक कार्यक्रम के तहत विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाया जाने वाला है जिसे कि सरकारी स्तर पर किया जा रहा है, और जो सरकार की अपनी घोषणा के मुताबिक भारत-पाकिस्तान विभाजन की दुख-दर्द भरी यादों को ताजा करने का एक काम है। यह बात जाहिर है कि 1947 के विभाजन के उस दौर में भारत और पाकिस्तान की नई सरहद के आरपार एक-दो करोड़ लोगों की बेदखली हुई थी, और पांच-दस लाख लोग साम्प्रदायिक हिंसा में मारे गए थे। इनमें हिन्दू, मुस्लिम, और सिक्ख सभी समुदायों के लोग थे। ऐसे में सरहद के दोनों तरफ की सरकारों, और लोगों की गिनती और हिसाब अलग-अलग हो सकते हैं, उनके लाशों के ढेर अलग-अलग हो सकते हैं। आज उस विभाजन की पौन सदी बाद अगर उन जख्मों को सरकार देश भर में ताजा करना चाहती है, तो यह निहायत गैरजरूरी है, और अगर नई पीढ़ी को इतिहास के नाम पर इन जख्मों को देकर, और इन्हें छीलने का काम होना है, तो उससे सरहद के दूसरी तरफ चाहे जो हो, सरहद के हिन्दुस्तान की तरफ इससे एक अनावश्यक साम्प्रदायिक नफरत फैलेगी, जो कि किसी के हित में नहीं हैं। विभाजन के उस पूरे दौर को दुनिया भर के इतिहासकारों ने अपने-अपने नजरिए से लिखा है, और उनमें से कोई भी किताब प्रतिबंधित नहीं है। इतिहास के उस जटिल दौर को समझने के लिए इतिहास की एक व्यापक पढ़ाई और समझ जरूरी है। लेकिन महज तस्वीरों की प्रदर्शनी के मार्फत अगर लोगों को विभाजन के जख्म साझा करने कहा जा रहा है, तो यह समझ साझा करने का काम नहीं है, यह अज्ञान साझा करने का काम है, नासमझी साझा करने का काम है। 

हैरानी की बात यह है कि मोदी सरकार अभी पिछले दो-तीन बरस में ही भारत की स्कूली किताबों से गुजरात दंगों को हटा चुकी है, गांधी हत्या को हटा दिया गया है, या कम कर दिया गया है, और इस तरह के कई फेरबदल किए गए हैं। दूसरी तरफ देश भर की स्कूलों में 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने का जो हुक्म केन्द्र सरकार ने दिया है, वह एक किस्म से स्कूली किताबों के बाहर एक भयानक पाठ्यक्रम जोडऩे का काम है। और हरियाणा की सरकार सार्वजनिक रूप से पहले से धार्मिक उत्तेजना से गुजर रहे बालिग लोगों के बीच सरकारी-सार्वजनिक कार्यक्रम करके इन्हीं जख्मों को बांटने का काम कर रही है। हो सकता है कि भाजपा के राज वाले कुछ और प्रदेशों में भी ऐसा किया जा रहा हो, जिसकी खबरें अब तक हमारी नजर में नहीं आई हैं। यह समझने की जरूरत है कि विभाजन के वक्त देश का जो नुकसान हुआ है, और उसी किस्म का जो नुकसान पड़ोसी देश पाकिस्तान का हुआ है, उसे पौन सदी हो चुकी है, और अब उससे उबरकर आगे बढऩे की जरूरत है। वैसे भी इन दोनों देशों के बीच फैला हुआ तनाव कम नहीं है, और चूंकि पाकिस्तान एक मुस्लिम देश है, और हिन्दुस्तान की बड़ी मुस्लिम आबादी उस वक्त पाकिस्तान गई थीं, इसलिए हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले लोग बड़ी आसानी से इस देश के मुस्लिमों को इशारे-इशारे में पाकिस्तान से जोड़ते रहते हैं, और आज जब विभाजन के जख्मों को सरकारी कार्यक्रमों के रास्ते लोगों के सामने रखा जा रहा है, तो वह एक किस्म से हिन्दुस्तान के भीतर बसे हुए मुस्लिमों के खिलाफ एक नापसंदगी, नाराजगी, या नफरत पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं है। 

हिन्दुस्तान को अपने देश और अपने नागरिकों की फिक्र पहले करनी चाहिए, अपने लोगों के भविष्य की फिक्र पहले करने चाहिए, बजाय एक गुजर चुके इतिहास को इस्तेमाल करके आज देश में तनाव खड़ा करने के। ऐसा तनाव किसी चुनाव में एक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तो शर्तियां पैदा कर सकता है, लेकिन क्या देश की कीमत पर, यहां के साम्प्रदायिक सद्भाव की कीमत पर किसी चुनाव जीतने की नीयत से ऐसा करना जायज भी है? अब ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में ऐसी तमाम कोशिशों के लिए कुछ राजनीतिक दलों में किसी भी किस्म की झिझक खत्म हो चुकी है। और यह भी एक खतरनाक नौबत है कि आबादी के बहुसंख्यक तबके के एक बड़े हिस्से का इतना मानसिक साम्प्रदायिक ब्रेनवॉश हो चुका है कि उन्हें मुस्लिम-विरोध की हर बात हिन्दुत्व लगती है, राष्ट्रवाद लगती है, और राष्ट्रहित लगती है। बड़ी कोशिशों से हाल के बरसों में लोगों की लोकतांत्रिक सभ्यता को खत्म किया गया है ताकि उनके बीच मानवीय मूल्यों और लोकतांत्रिक मूल्यों की जगह खत्म हो जाए, और साम्प्रदायिकता आसानी से उनके खाली दिमागों में भर सके। आज हिन्दुस्तान ऐसे बहुत बड़े खतरे से गुजर रहा है, और मानो इसी को बढ़ाने के लिए विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाया जा रहा है ताकि लोगों में भाईचारे की कोई जड़़ अगर बाकी रह भी गई हो, तो भी उसे उखाडक़र फेंका जा सके। जिस देश को वर्तमान और भविष्य की फिक्र करनी चाहिए, वह महज इतिहास को खोदकर, उसके पसंदीदा हिस्सों को छांटकर, उन्हें अपनी तैयार की गई कहानी के साथ पेश कर रहा है। स्कूलों में ऐसी प्रदर्शनी देखने वाली नई पीढ़ी हो सकता है कि उसी दिन से एक नई नफरत का शिकार हो जाए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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