संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ईशनिंदा के आरोप सहित पाकिस्तान में ईसाई फिर हिंसा के निशाने पर आए
18-Aug-2023 5:49 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ईशनिंदा के आरोप सहित पाकिस्तान में ईसाई फिर  हिंसा के निशाने पर आए

photo : twitter

पाकिस्तान के फैसलाबाद में ईसाई समुदाय आक्रामक मुस्लिमों के निशाने पर है। मुस्लिम समुदाय का आरोप है कि ईसाईयों की बस्ती ईसानगरी में कुछ नौजवानों ने कुरान का अपमान किया है, और इसे लेकर वहां ईसाईयों पर हमले हो रहे हैं, कुछ चर्च जला दिए गए हैं, और घरों में भी तोडफ़ोड़ की गई है। पाकिस्तान में ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए गैरमुस्लिमों पर हमलों का लंबा इतिहास रहा है। पहले तो ऐसी घटनाएं भी हुई हैं कि भीड़ ने किसी आरोपी को पुलिस से छुड़ाकर मार डाला। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के पंजाब में भी कुछ अरसा पहले धार्मिक बेअदबी का आरोप लगाते हुए एक विचलित नौजवान को गुरुद्वारे के लोगों ने घेर लिया था, और पीट-पीटकर मार डाला था। पाकिस्तान में ऐसा कई मामलों में हुआ है, और कुछ बरस पहले अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्रीय मंत्री शहबाज भट्टी को ईशनिंदा कानून खत्म करने की कोशिश के आरोप में मार डाला गया था, जो कि एक ईसाई थे, जो कि पाकिस्तान के मंत्रिमंडल में अकेले ईसाई थे। इसके अलावा पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर का भी कत्ल ईशनिंदा कानून में सुधार के आरोप में किया गया था। 

अभी चल रहे तनाव पर लौटें तो फैसलाबाद में कई जगह आगजनी की गई है, बहुत से हमले हुए हैं, और बाइबिल को नष्ट किया गया है। ईसाई धर्मगुरुओं का कहना है कि यह आरोप पूरी तरह गलत है कि किसी ईसाई ने कुरान जलाई है। जिस ईसाई पर ईशनिंदा का यह आरोप लगा है उसका घर भी गिरा दिया गया है। हालांकि पाकिस्तान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनवार-उल-हक काकड़ ने कहा है कि सरकार सभी नागरिकों को बराबरी से देखती है, और अल्पसंख्यकों पर हमला करने वालों पर कार्रवाई की जाएगी। अभी तक पुलिस ने मुस्लिम समुदाय के हाथ किसी आरोपी को लगने नहीं दिया है, इसलिए जान बची हुई है। 

हालांकि पाकिस्तान में लंबे समय से इस्लामी कट्टरपंथी अपनी खुद की सोच के चलते, और पड़ोस के अफगान-तालिबानियों के असर में भी ईशनिंदा को एक मुद्दा बनाकर गैरमुस्लिमों पर हमले करते आए हैं। खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर के अहमदिया मुस्लिमों को पाकिस्तान के बाकी मुसलमान मुस्लिम नहीं मानते, और उन पर हमले करते रहते हैं। धार्मिक कट्टरता इतनी बढ़ी हुई है कि पाकिस्तानी फौज भी ऐसे कट्टरपंथियों की ताकत और उनके असर को अनदेखा नहीं कर सकती। इस तरह पूरा का पूरा पाकिस्तानी लोकतंत्र धर्म के हिंसक असर से लदा हुआ है। चुनावों में यह एक मुद्दा रहता है, देश तो इस्लामिक घोषित किया हुआ ही है, और सरकार के हर काम में इस्लाम से ही बात शुरू होती है, और उसी पर खत्म होती है। नतीजा यह है कि देश में गैरमुस्लिमों की हिफाजत मुमकिन नहीं रह गई है, और उन्हें जिंदा रहने का हक तभी तक है जब तक कि उनके ऊपर कोई ईशनिंदा का आरोप न लगा दे। 

लेकिन इससे परे कुछ दूसरी बातों को भी देखने की जरूरत है। पश्चिम के देशों में, योरप से लेकर अमरीका तक, जगह-जगह वहां की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते किसी भी व्यक्ति को कोई भी धर्मग्रंथ फाडक़र फेंकने या सार्वजनिक रूप से जलाने की इजाजत मिली हुई है। पिछले कई बरस से किसी न किसी पश्चिमी देश में, जहां पर कि ईसाई आबादी अधिक है, वहां कोई न कोई व्यक्ति कुरान फाड़ते या जलाते दिख जाते हैं, और फिर उसे लेकर पश्चिमी लोगों के खिलाफ, और ईसाईयों के खिलाफ एक तनाव मुस्लिम देशों में खड़ा होता है, और जहां भी वह बेकाबू होता है, वहां कत्ल होने लगते हैं, ईसाई धर्मस्थान जलाए जाने लगते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि यह बात महज पश्चिम के साथ है, या कि ईसाईयों के साथ है। जब कभी भी भारत में मुस्लिमों के साथ हिंसा होती है, बहुत से मुस्लिम देशों में हिन्दुस्तानियों को तरह-तरह के तनाव और नुकसान झेलने पड़ते हैं। लेकिन चूंकि हिन्दुस्तानी वहां से कमाते-खाते हैं, इसलिए वे सार्वजनिक रूप से इस मुद्दे को नहीं उठाते कि कुछ हिंसा के अलावा बाकी कामकाज तो उनका वहीं से चलता है। ऐसे में जो लोग अपने-अपने देश में लोकतांत्रिक अधिकारों के चलते, या देश में सरकार द्वारा दी गई अराजकता की छूट की वजह से किसी एक धर्म पर हमले करते हैं, तो यह मानकर चलना चाहिए कि उस धर्म की आबादी वाले देशों में उसकी हिंसक प्रतिक्रिया भी होती है। भारत में वे लोग ही मुस्लिमों के खिलाफ हिंसक फतवे देते हैं जिनके परिवारों के लोग मुस्लिम देशों में बसे हुए नहीं हैं, या जिनके घरवालों का मुस्लिम देशों से कारोबार नहीं है। इसलिए आज पाकिस्तान में जो लोग ईसाईयों पर हमले कर रहे हैं, वे जाहिर तौर पर न तो पश्चिम के किसी ईसाई-बहुल देश में आते-जाते हैं, और न ही वहां उनका कोई कारोबार है। एक कबीले जैसी जिंदगी जीने वाले तंगनजरिए के लोग ही इस तरह की हिंसा कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें इसकी प्रतिक्रिया झेलने का खतरा नहीं रहता है। 

अब दुनिया में एक सवाल यह उठता है कि अलग-अलग देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैमानों में इतना फर्क है कि कुछ लोगों को अपना अधिकार दूसरों की धार्मिक भावनाओं से अधिक ऊपर लग सकता है। दूसरी तरफ तकरीबन तमाम धर्मों की भावनाएं अपने को दुनिया के किसी भी कानून से ऊपर समझती हैं, और बात-बात पर हिंसक हो जाने को उतारू रहती हैं। ऐसे में इस किस्म के टकराव चलते ही रहेंगे, कहीं मो.पैगंबर पर कार्टून बनाने वाली पत्रिका के दफ्तर पर इस्लामी आतंकी हमला करके दर्जनों लोगों को मार डालेंगे, तो कहीं इसके जवाब में कई देशों में लोग कुरान के खिलाफ प्रदर्शन करने लगेंगे। यह नौबत अधिक आसान नहीं है। लेकिन दुनिया के जिन देशों में अभी तक नौबत इतनी खराब नहीं हुई है, उन्हें याद रखना चाहिए कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, और जरूरी नहीं है कि वह उस देश के भीतर ही हो, वह कहीं भी हो सकती है, और हिंसक स्थानीय लोग हो सकता है कि ऐसी प्रतिक्रिया से बच भी जाएं, लेकिन उनके देश के दूसरे लोग, उनके धर्म के दूसरे लोग दूसरे देशों में फंस जाएं, मारे जाएं। इसलिए तमाम जिम्मेदार देशों को अपनी जमीन पर धार्मिक हिंसा पर काबू रखना चाहिए, फिर चाहे वह चुनाव जीतने के लिए एक आसान हथियार क्यों न हों। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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