संपादकीय
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कनाडा के जंगलों की आग डराने वाली है। एक अकेले यलोनाईफ नाम के शहर की तमाम 20 हजार आबादी को शहर खाली करने के लिए कह दिया गया है, और लोगों को तेजी से बाहर निकालने की कोशिश चल रही है। संकरी सडक़ से बाहर जा रही ट्रैफिक भी इस कदर अनुशासन में चल रही है कि अभी तक गाडिय़ां नहीं टकराई हैं, और लोग एक अकेले पेट्रोल पंप से काम चलाते हुए शहर छोडक़र जा रहे हैं। इस साल कनाडा के ढाई सौ से अधिक अलग-अलग इलाकों में इस वक्त एक हजार से अधिक जगहों पर जंगल की आग चल रही है, और कई जगहों से लोगों को विमानों से निकाला जा रहा है क्योंकि रास्तों में कई जगहों पर जंगल जल रहे हैं। एक अंदाज बताता है कि सवा लाख स्क्वेयर मीटर से अधिक जंगल इस बरस जला है जो कि आधी सदी में जले जंगलों से अधिक हो चुका है। इसी बरस जंगलों की आग की वजह से दो लाख से अधिक लोगों को अलग-अलग वक्त पर कम या अधिक वक्त के लिए घर छोडऩा पड़ा है। सरकार शहरों को बचाने के लिए उनके इर्द-गिर्द के जंगलों के पेड़ काट रही है ताकि आग शहरों तक नहीं पहुंचे। आपात सेवाओं के अफसर खाली हो चुके शहरों में एक-एक घर जाकर देख रहे हैं कि कोई बीमार, बुजुर्ग या असहाय वहां छूट तो नहीं गए हैं।
अभी पिछले कुछ दिनों से अमरीका के हवाई में पूरे के पूरे शहर के आग से जल जाने की खबरें अखबारों से हटी भी नहीं हैं क्योंकि सौ से अधिक मौतें हो चुकी हैं, और पूरा शहर जलकर राख हो गया है। असाधारण रूप से सूखे मौसम के साथ जब आंधी चली, तो ऐसी आग लगी और वह फैल गई। हवाई द्वीप पर दो हजार से ज्यादा इमारतें राख हो चुकी हैं, जो कि रिहायशी आबादी के 86 फीसदी से अधिक का घर था। ऐसा माना जा रहा है कि तेज आंधी में बिजली के तार टकराए और नीचे घास जलना शुरू हुई तो फिर वह बेकाबू हो गई। वहां भी अभी तक जली इमारतों में और उजड़े मकानों में लोगों की तलाश जारी है। अभी कुछ अरसा पहले की ही बात है कि कनाडा के एक हिस्से में लगी आग से अमरीका के न्यूयॉर्क में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था।
इस तरह लगे हुए देशों के जंगल खुद जलने पर सरहद के पार दूसरे देशों को भी प्रभावित कर रहे हैं। अब अगर कनाडा और अमरीका की बात को पल भर के लिए अलग रखें, तो एक दूसरी बात यह भी है कि पूरी दुनिया में मौसम में जो बदलाव आ रहा है, उसमें अंधाधुंध बारिश और बाढ़, अभूतपूर्व बर्फबारी, ऐतिहासिक गर्मी जैसे चरम-मौसम की गिनती बढ़ती जा रही है। ये अधिक खतरनाक होते जा रहे हैं, बार-बार आ रहे हैं, और हर बार इनकी तबाही बढ़ती ही चली जा रही है। इनसे परे भूमिस्खलन जैसी मार हिमाचल और उत्तराखंड में अभी लगातार देखने मिल रही है, जहां पर सैकड़ों सडक़ें धंस गई हैं, बस्तियां धंसती चली जा रही हैं, और ऐसा लग रहा है कि पहाड़ बैठते जा रहे हैं। इनमें से भूकम्प, ज्वालामुखी जैसी कुछ चीजों को छोडक़र हर किस्म की मौसम की मार इंसानों की बनाई हुई दिखती है, और इनकी नजरों में सरहद की कोई इज्जत भी नहीं है। अपनी गरीबी की वजह से जो पाकिस्तान कम प्रदूषण करता है, वह भी अभी कुछ महीने पहले बाढ़ में इस बुरी तरह डूबा कि सरकार के पास किसी राहत या मदद का कोई जरिया ही नहीं बचा। पाकिस्तान का कहना है कि पूरी दुनिया के प्रदूषण से जो मौसमी मार बढ़ रही है, पाकिस्तान उसी का शिकार हुआ है, और दुनिया के संपन्न देशों को क्लाइमेट चेंज में अपने योगदान की वजह से पाकिस्तान जैसे तबाह हो रहे देशों की मदद करनी चाहिए। उत्तराखंड और हिमाचल जैसे प्रदेश हिन्दुस्तान की सरकारों की भ्रष्ट नीयत से चलने वाली योजनाओं के शिकार हैं, और अब वहां किसी किस्म का बचाव काबू से बाहर हो गया दिख रहा है। पर्यटन स्थलों और तीर्थस्थानों पर अधिक से अधिक लोगों को ले जाने के लिए अधिक से अधिक चौड़ी सडक़ें, पुल, और सुरंगों की वजह से पहाड़ के अपने ढांचे को खोखला कर दिया गया है, उसे हिलाकर रख दिया गया है। नतीजा यह है कि बारिश में जिस तरह मिट्टी बहती है, उस तरह अब पूरे पुल और गांव बहने लगे हैं, पहाड़ दरकने लगे हैं, और वे बहकर नदियों को रोक रहे हैं, और पानी चारों तरफ फैल रहा है, और सबकुछ बहाकर ले जा रहा है।
दुनिया में मौसम की वजह से कई किस्म के बेकाबू हादसे हो रहे हैं, कनाडा और अमरीका के जंगल और शहर जलना उनमें से एक नमूना है, पिछले बरस योरप में जिस किस्म की अनसुनी और अनदेखी बाढ़ आई, वह एक दूसरा नमूना था, और अफ्रीका में पानी की कमी से इंसान और जानवर जिस तरह मारे जा रहे हैं, वह सूखा एक तीसरा नमूना है। पूरी धरती ऐसे अलग-अलग नमूनों से भर गई है, और ऐसा लग रहा है कि सबकुछ इंसान के लिए बेकाबू हो चुका है। इनमें से अधिकतर चीजों को इंसान ने ही खड़ा किया है, और उसने पिछले दो-ढाई सौ बरसों में टेक्नालॉजी जितनी विकसित की है, उसका इस्तेमाल जितना बढ़ाया है, और सहूलियतों को अंधाधुंध बढ़ाते हुए उसने जिस तरह बिजली और दूसरे ईंधन का इस्तेमाल बढ़ा लिया है, उससे भी प्रदूषण अंधाधुंध बढ़ा है, और अब जानलेवा साबित हो रहा है। दुनिया के देश मिलकर भी इस पर काबू पाना तय करते हैं, तो वह किसी के लिए भी आसान साबित नहीं हो रहा है। बिजलीघरों में कोयले का इस्तेमाल घट नहीं रहा है, हर किसी के पास आ चुकी बड़ी-बड़ी गाडिय़ां प्रदूषण फैलाए जा रही हैं, और लोगों की संपन्नता उनके प्रदूषण फैलाने की एक सबसे बड़ी वजह बन गई है। कुदरत और इंसान की यह मिलीजुली मार दोनों पर ही पड़ रही है, धरती के कई हिस्से तबाह हो रहे हैं, और अनगिनत देशों की आबादी तरह-तरह से मौसम की मार झेल रही है।
आज इस पर चर्चा करते हुए हमारे पास सलाह कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर दुनिया भर में लंबी चर्चा चल ही रही है। दिक्कत यह है कि वैसी चर्चा सरकार और कारोबार दोनों को अमल में लाने की प्रेरणा नहीं दे पा रही है। दुनिया के उद्योग-धंधे अपनी तात्कालिक कमाई के लिए मौसम को किसी भी हद तक तबाह करने के लिए तैयार हैं, हवा और पानी में जहर घोलते ही जा रहे हैं, समंदरों को प्रदूषण से पाट रहे हैं। दूसरी तरफ इंसानों की ईंधन की जरूरत बढ़ती ही जा रही है क्योंकि सार्वजनिक सहूलियतों के बजाय संपन्न तबके निजी गाडिय़ों और निजी सहूलियतों की तरफ दौड़ते चल रहे हैं। जो भी हो, इंसान की दौडऩे की रफ्तार जंगल की आग की दौडऩे की रफ्तार का मुकाबला नहीं कर पाएगी, और न ही सुनामी की लहरों की रफ्तार से इंसान दौड़ पाएंगे, केदारनाथ हादसे ने दिखा दिया है कि गाडिय़ां भी पहाड़ी बाढ़ से अधिक रफ्तार से नहीं दौड़ सकतीं, और इंसान ज्वालामुखी की उड़ती राख, और बहते लावे से दूर भी नहीं भाग सकते। ऐसे में मौसम बचाने सरकार और कारोबार पर ही जनता का दबाव जरूरी होगा, तभी कुछ हो पाएगा, वरना अगली पीढ़ी तो दूर की बात है, लोग अपनी पूरी जिंदगी भी सेहत की हिफाजत के साथ नहीं गुजार सकेंगे।