संपादकीय
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पाकिस्तान के हालात बड़े ही दर्दनाक हैं। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान पौन सदी पहले एक ही साथ आजाद हुए थे, और आज वहां हालत यह है कि नए बने एक कानून के बारे में राष्ट्रपति डॉ. आरिफ अल्वी ने एक बयान जारी करके कहा है कि उन्होंने ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, और आर्मी एक्ट पर दस्तखत नहीं किए हैं, दूसरी तरफ देश के कानून मंत्री ने कहा है कि ये दोनों कानून सरकारी गजट में छप भी चुके हैं। राष्ट्रपति ने अल्लाह को हाजिर नाजिर मानकर कहा है कि वे इन कानूनों से सहमत नहीं थे, और उन्होंने अपने अफसरों को इन्हें सरकार को वक्त रहते लौटा देने का आदेश दिया था। राष्ट्रपति ने अपने बयान में कहा है कि उन्होंने अफसरों से कई बार पूछा, और उन्होंने भरोसा दिलाया कि फाईल सरकार को वापिस भेज दी है, लेकिन उन्हें धोखा दिया गया, और उनके ही अफसरों ने उनकी मर्जी के खिलाफ काम किया। दूसरी तरफ शायद राष्ट्रपति के अफसरों ने समय सीमा में इसे नहीं लौटाया, और सरकार ने इसे मंजूरी मानकर इसे कानून बना दिया और इसकी गजट छपाई भी करा दी। सरकार का कहना है कि अगर राष्ट्रपति दस दिन में उन्हें भेजे गए किसी बिल पर कोई फैसला नहीं लेते हैं, तो वह अपने आप ही कानून बन जाता है। सरकार ने राष्ट्रपति के किए गए ट्वीट पर इतना ही कहा कि यह उनकी अपनी मर्जी है।
किसी भी लोकतंत्र में यह एक भयानक नौबत है कि राष्ट्रपति के अफसर उनके हुक्म न मानें। अब कोई भी राष्ट्रपति अपने अफसरों की कही हुई बात को जांचने के लिए फाईल को बुलाकर खुद तो देख नहीं सकते कि वह सरकार को किस तारीख को मिल चुकी है। और कार्यवाहक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच इस तरह की नौबत बताती है कि पाकिस्तान एक नाकामयाब जम्हूरियत बन गया है। लोगों को यह सोचना चाहिए कि ऐसी नौबत क्यों आई है? हिन्दुस्तान अपनी बहुत सारी खामियों के बावजूद कई मायनों में एक कामयाब लोकतंत्र है। इस देश में लोकतंत्र को खत्म करने की कोशिशें लगातार चल रही हैं, संवैधानिक संस्थाओं को चौपट और बेअसर किया जा रहा है, लेकिन फिर भी अभी कुछ हद तक तो लोकतंत्र बचा हुआ दिखता है। ऐसे में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की तुलना बार-बार इसलिए की जाती है कि एक ही जमीन के दो टुकड़े करके एक साथ ये दो देश बने थे, और पाकिस्तान जिन खामियों को आज भुगत रहा है, वे सामने हैं कि हिन्दुस्तान उनसे बहुत हद तक बचा रहा, इसीलिए लोकतंत्र रहा।
भारत और पाकिस्तान की तुलना करना दोनों देशों के लिए जरूरी है कि किससे क्या गड़बड़ी हुई है, और किसे वैसी गड़बड़ी से बचना चाहिए। पाकिस्तान ने पहले ही दिन से एक चूक की थी कि उसने अपने देश को धर्म आधारित बना लिया, और उस दिन से ही वहां पर धर्मान्ध कट्टरपंथियों का राज शुरू हो गया। धर्म कब बढक़र धर्मान्धता में तब्दील हो जाता है, और कब वह दो कदम आगे बढक़र साम्प्रदायिकता हो जाता है, इसका पता भी नहीं चलता। पाकिस्तान इस हद तक साम्प्रदायिक हो गया कि मुस्लिम मजहब के भीतर के अलग-अलग सम्प्रदायों में खून-खराबा होने लगा। राजनीतिक दल धार्मिक आधार पर बनने और चलने लगे, देश का एक धर्म कानूनी रूप से बना ही दिया गया था, इसलिए फौज से लेकर क्रिकेट टीम तक वही धर्म दिखता था। धर्म जब देश की सोच पर हावी हो जाता है, तो वहां लोकतांत्रिक सोच की गुंजाइश नहीं बचती। यह कुछ उसी किस्म का होता है कि किसी तालाब के पानी पर पूरी तरह जलकुंभी छा जाए, तो उस पानी तक सूरज की रौशनी पहुंचना बंद हो जाता है, और वहां की हर किस्म की जिंदगी पर असर पडऩे लगता है। पाकिस्तान के लोकतंत्र पर धर्म ऐसा हावी हुआ कि उससे परे कुछ देखना ईशनिंदा माना जाने लगा, और धर्म के नाम पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान तक अपनी तीसरी या चौथी बीवी की धार्मिक नसीहतों से घिरे रहने लगे, और वह बीवी धर्म के नाम पर प्रधानमंत्री निवास से राज सा करने लगी थी। जब लोकतंत्र कमजोर होता है, तो फौज हावी होती है। पाकिस्तान में शुरुआती दिनों से ही फौज हावी रहने लगी, कई बार निर्वाचित सरकार को हटाकर फौजी तानाशाही ने खुद काम सम्हाला, और आज भी यह पाकिस्तान में एक खुला राज है कि फौज वहां तय करती है कि किसे प्रधानमंत्री बनाना है, और किसे उस कुर्सी से हटाना है। इस बीच कमजोर लोकतंत्र में सेना, सरकार, और अदालतें सब कुछ भ्रष्ट होने लगे, और अभी तो वहां का ऐसा दिलचस्प और सनसनीखेज नजारा है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और उनके परिवार के भ्रष्टाचार के ऑडियो तैरते रहते हैं। जब अदालतें इस दर्जे की भ्रष्ट हो जाएं, प्रधानमंत्री फौज की मर्जी से बने और हटे, तो फिर चारों तरफ भ्रष्टाचार मजबूत होने लगता है। पाकिस्तान आज जिस गरीबी और बदइंतजामी को झेल रहा है, उसके पीछे भ्रष्टाचार है, उसके पीछे धार्मिक आतंकी हिंसा है, और उसके पीछे धर्म है।
हिन्दुस्तान ने पिछले दस बरसों में धर्म का जैसा कब्जा देखा है, वह पूरी तरह अभूतपूर्व है। भारत की लोकतांत्रिक सोच, और संवैधानिक जिम्मेदारी पर, लोगों की सामाजिक समझ, और राजनीतिक चेतना पर धर्म जलकुंभी की तरह छा गया है, और सूरज की रौशनी के बिना नीचे का पानी सडऩे लगा है, जिंदगी खत्म होने लगी है। यह तो इस देश की आधी सदी से अधिक की गौरवशाली परंपरा थी जिसने फौज को पूरी तरह काबू में रखा था, और अदालतों को काबू से बाहर रखा था। इन बरसों में फौज का राजनीतिक और चुनावी इस्तेमाल जिस तरह से दिख रहा है, उसमें फौज की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जागना बहुत नामुमकिन नहीं है, यह एक अलग बात है कि देश में पाकिस्तान की तरह की फौजी बगावत मुमकिन नहीं है, फिर भी फौज को गैरफौजी मकसदों से कैसा इस्तेमाल किया जा रहा है, यह पिछले दिनों सतपाल मलिक के कई बयानों में सामने आया है। दूसरी तरफ सरकार जिस तरह और जिस हद तक अदालतों पर काबू चाहती है, चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं पर काबू कर चुकी है, वह लोकतंत्र खत्म करने की तरफ बढ़ा हुआ कदम है। ऐसी नौबत कुल मिलाकर देश में लोकतंत्र को कमजोर कर रही है, और यहां हावी किया जा रहा धर्म साम्प्रदायिकता की हद तक तो पहुंच ही चुका है, वह किस दिन आतंकी हिंसा में तब्दील हो जाएगा, वह पता भी नहीं लगेगा। फिर यह भी होगा कि बहुसंख्यक तबके की धार्मिक हिंसा के मुकाबले अल्पसंख्यक तबकों की धार्मिक हिंसा जागेगी, और सब कुछ बेकाबू हो जाएगा। हमारी यह चेतावनी आज कई लोगों को बेबुनियाद लगेगी, लेकिन याद रखना चाहिए कि अभी कुछ बरस पहले तक उत्तराखंड और हिमाचल में हर इमारत, सडक़ और पुल की बुनियाद मजबूत लगती थी, और आज वह पूरी तरह खोखली साबित हो रही है। जिनको हमारी बात आज खोखली लग रही है, उन्हें लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर हो जाने का पता तब चलेगा जब बिना खून बहे लोगों के लोकतांत्रिक हकों का कत्ल होने लगेगा।
पाकिस्तान को देखकर हिन्दुस्तान यह नसीहत और सबक तो ले ही सकता है कि एक लोकतंत्र को क्या-क्या नहीं करना चाहिए। और अगर यह सबक नहीं लिया जाता है, तो फिर खुली आंखों से दूध में गिरी छिपकली देखते हुए भी उसे पीने सरीखा हो जाएगा। हिन्दुस्तानी संवैधानिक समझ पर धर्म नाम की जो जलकुंभी छा गई है, वह कुछ लोगों को पसंद आ सकती है, लेकिन वह कितनी जानलेवा है यह अंदाज अभी नहीं लग रहा है, और जिस दिन लगेगा उस दिन बड़ी देर हो चुकी रहेगी।