संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मौजूदा कानून कमजोर तबकों को बचाने में नाकाफी, नई सोच जरूरी
24-Aug-2023 4:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मौजूदा कानून कमजोर  तबकों को बचाने में  नाकाफी, नई सोच जरूरी

photo : twitter

त्रिपुरा की राजधानी अगरतला का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक महिला और उसके नाबालिग बेटे को बाजार के बीच सबके सामने कपड़े उतारकर पीटा गया क्योंकि बेटे पर एक दुकान से पैसे चुराने का आरोप लगा था। इसके बाद मां-बेटे को तथाकथित पंचायत में बुलाया गया, और वे जब वहां पहुंचे तो पंचायत के एक सदस्य ने महिला के कपड़े उतारने के लिए भीड़ को उकसाया था, और फिर भीड़ ने उनके कपड़े उतारे, बेटे का सिर मुंड दिया, और दोनों की जमकर पिटाई की। कुछ लोगों ने इसके वीडियो बनाए थे, पुलिस को खबर लगी तो उसने आकर भीड़ से मां-बेटे को बचाया। 

ऐसी घटना जगह-जगह सामने आती है, कहीं गाय को बचाने के नाम पर, तो कहीं अकेले हाथ लग गए किसी मुस्लिम से जयश्रीराम कहलवाने के लिए, तो कहीं किसी दलित से खफा सवर्ण थूककर उससे चटवाने पर उतारू दिखते हैं। इनमें से अधिकतर ऐसे मामले रहते हैं जिनमें हिंसा करते लोगों को यह पता रहता है कि उनके वीडियो बन रहे हैं, लेकिन उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं दिखती है। कहीं सत्ता तो कहीं जाति, कहीं धर्म तो कहीं संपन्नता की ताकत लोगों में एक अजीब किस्म का दुस्साहस ला देते हैं। फिर पुलिस और अदालत का कोई अधिक डर किसी को दिखता नहीं है। लोग धड़ल्ले से ब्लैकमेल करते हैं, हत्या करते हैं, खुदकुशी को मजबूर करते हैं, और इस भरोसे से रहते हैं कि उनका कुछ बिगड़ेगा नहीं। यह बात काफी हद तक सही  भी है क्योंकि हिन्दुस्तान में पुलिस और अदालत के बेअसर होने का भरोसा अधिकतर आबादी को रहता है, इसलिए लोग उन्हें कोई शिकायत रहने पर भी मन मसोसकर बैठ जाते हैं कि इंसाफ मिलना इतना आसान तो है नहीं। यह भी एक वजह रहती है कि बहुत से लोग गुंडो और मुजरिमों को ठेका देते हैं कि वे उनके जमीन-मकान खाली करा दें, किसी के पास डूब रहा पैसा वापिस दिला दें। कानून एक तो कमजोर बहुत है, दूसरा उसे लागू करने का पूरा ढांचा बुरी तरह से भ्रष्ट है, और बहुत ही कमजोर है। जांच एजेंसियां अदालतों में कुछ साबित नहीं कर पातीं, और सिर्फ मुजरिमों को अदालतों पर भरोसा रहता है कि वहां से उनके खिलाफ कोई फैसला नहीं हो सकेगा। 

ऐसे में देश में अराजकता का एक माहौल बढ़ते चल रहा है। लोग बेधडक़ होकर सडक़ों पर भीड़ की शक्ल में हिंसा कर रहे हैं, और अभी हाल में कानून में जो फेरबदल केन्द्र सरकार ने संसद में पेश किया है उसमें यह बात जोड़ी गई है कि भीड़ अगर किसी वजह से किसी की हत्या करती है तो उस पर सजा और कड़ी कैसे की जाए। ऐसा भी नहीं कि अब तक ऐसी भीड़त्या पर कोई सजा नहीं थी, लेकिन यह तो था ही कि उसका कोई असर नहीं दिखता था, और सरकार की खूबी यह है कि वह पहले से मौजूद और ठीक से इस्तेमाल नहीं हो रहे कानूनों को और कड़ा करके यह तसल्ली कर लेती है कि उसने जुर्म कम करने का इंतजाम कर लिया है। आज अगर भीड़त्या पर सजा बढ़ा दी गई है, तो पहले भी इस पर काफी सजा तो थी ही, और जिन मुजरिमों पर दस बरस की कैद का डर नहीं रहता है, उनसे यह उम्मीद करना कि वे कैद को पन्द्रह बरस कर देने से डर जाएंगे, और जुर्म नहीं करेंगे, यह वोटरों का दिल बहलाने का तरीका हो सकता है। पूरी दुनिया का इतिहास बताता है कि कमजोर अमल और कड़ी सजा का मिलाजुला मेल कहीं भी जुर्म कम नहीं कर पाता। अगर अमल सही हो तो दो बरस की कैद भी लोगों को डरा सकती है, और अगर हिन्दुस्तानी पुलिस और अदालतों जैसा ढीलाढाला रवैया हो, जांच के कमजोर होने, सुबूत और गवाह के बिक जाने से तकरीबन हर मुजरिम के छूट जाने की नौबत हो, तो भी इससे शरीफों का हौसला पस्त होता है, और मुजरिमों का भरोसा बढ़ जाता है। आज हिन्दुस्तान में जगह-जगह भीड़ की जो हिंसा सामने आती है, उसके पीछे देश की पुलिस और अदालत का यह मिलाजुला हाल सबसे अधिक जिम्मेदार है। 

लेकिन देश में धर्म और जाति की व्यवस्था, संपन्नता और राजनीतिक ताकत की व्यवस्था का हाल यह है कि जो गरीब अधिक संख्या में रहते हैं, वे भी कभी घेरकर किसी अमीर को पीटते नहीं दिखते। बल्कि सौ गरीबों के बीच पांच अमीर या राजनीतिक सत्ता संपन्न लोग दो गरीबों को पीटते दिख जाते हैं। देश में बहुसंख्यक धर्म, सवर्ण जातियों, संपन्न तबकों, और राजनीतिक ताकत से लैस लोगों की गुंडागर्दी देखते ही बनती है। ऐस जितने भी सार्वजनिक हिंसा के मामले रहते हैं, उनमें तकरीबन सौ फीसदी अल्पसंख्यकों को, नीची कही जाने वाली जातियों, गरीबों, महिलाओं को पीटने के रहते हैं। कहने के लिए दलित-आदिवासियों की हिफाजत को अधिक कड़े कानून बने हैं, लेकिन उन पर हिंसा से लेकर उन पर बलात्कार तक, और उनकी हत्या तक जगह-जगह सामने आते ही रहते हैं। ऐसे मामलों में कानून को और कड़े करते चलना सिर्फ एक खुशफहमी की बात होगी, हकीकत में मौजूदा कानूनों पर अमल को बेहतर बनाना जरूरी है जो कि काफी भी होगा। 

हमारा ख्याल है कि जिस तरह दलित-आदिवासी पर अत्याचार के मामलों में अलग अदालत रहती है, ठीक उसी तरह महिलाओं, बच्चों, और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों पर बाहुबल के अत्याचार के खिलाफ भी अलग अदालत रहना चाहिए, जहां तेजी से फैसला हो, और फैसले तक जमानत मुश्किल हो क्योंकि ऐसे बाहुबली बाहर आकर फिर कमजोर तबकों की जिंदगी खतरे में डालेंगे। देश की सामाजिक हकीकत को समझे बिना अगर कागजी कानूनों को काफी मान लिया जाएगा, तो वह कभी कामयाब नहीं होगा। आज देश में ताकतवर और कमजोर के बीच फासला ठीक वैसा ही है जैसा कि सवर्ण और दलित के बीच रहते आया है। इसलिए पैसों या ओहदों की ताकत जब गरीब-कमजोर पर जुल्म ढहाती है, तो उसके लिए एक अलग कानून की जरूरत है, तभी ताकत की बददिमागी घट सकेगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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