संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राखी बंधवाने का हकदार बनने के लिए क्या करें?
31-Aug-2023 5:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   राखी बंधवाने का हकदार बनने के लिए क्या करें?

सोशल मीडिया राखी के मौके पर भाई-बहनों की फोटो से भरा हुआ है। छोटे-छोटे बच्चों की तस्वीरें देखना तो अच्छा लगता है, लेकिन बड़े लोगों की तस्वीरें देखते हुए कुछ हैरानी होती है कि क्या बालिग हो चुके भाई जिन सगी बहनों से राखी बंधवा रहे हैं, क्या उन्हें बाप की जायदाद में बराबरी का हक दे रहे होंगे? और राखी का तो पारंपरिक मतलब ही यही है कि बहन की रक्षा करना। बहन-भाई को राखी बांधती है ताकि वह हर हालत में उसकी रक्षा करे। अभी हम कुछ देर के लिए इस परंपरागत मतलब की लैंगिक असमानता को किनारे रख रहे हैं, और यह मान रहे हैं कि भारतीय समाज में हिफाजत की जरूरत एक लडक़ी और महिला को ही अधिक है, और इसके लिए राखी की यह परंपरा शुरू हुई होगी, जो अब तक चल रही है। एक छोटा हिस्सा ऐसे भाई-बहन का भी हो सकता है जिसमें भाई कमजोर हालत में हो, और बहन उसकी मददगार हो, वैसे मामलों में यह भी कहा जा सकता है कि उस भाई को अपनी बहन को राखी बांधनी चाहिए ताकि वह भाई की रक्षा कर सके। अभी दो दिन पहले राखी के मौके पर एक खबर आई थी कि किस तरह दोनों खराब किडनी वाले एक आदमी को उसकी बहन अपनी किडनी दे रही है। हमारे पास इसके कोई आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन ऐसा अंदाज जरूर है कि अंगदान करने वाले लोगों में महिलाएं ही अधिक रहती होंगी, फिर वे चाहे पति, भाई, पिता, या पुत्र को अंग देती हों। जाहिर तौर पर भाई-बहनों के बीच बहन ही अधिक काम आती होगी, और भाई की जिंदगी बचाने की सोच और जिम्मेदारी उसी पर रहती होगी। 

लेकिन आमतौर पर बिना मेडिकल-जरूरत के जिन परिवारों में भाई-बहन के बीच रिश्ते तभी तक बहुत अच्छे रहते हैं जब तक बहन बाप की दौलत में अपना हक नहीं मांगती। भारत के कानून में लडक़ी को बराबरी का हक दिया गया है, और आमतौर पर लड़कियां भाई, और उसके पास रहने वाले बूढ़े माता-पिता के दिमागी सुख-चैन के लिए अपने हक को छोडक़र चुप रहती हैं, और संपत्ति पर दावा नहीं करती हैं। भारतीय, कम से कम हिन्दू समाज में उससे यही उम्मीद भी की जाती है, और समाज खुद होकर यह मान लेता है कि चूंकि लडक़ी की शादी में खर्च किया गया था, दहेज दिया गया था, इसलिए उसे अब आगे और कुछ देने की जरूरत नहीं है। यह बात पूरी तरह फर्जी रहती है क्योंकि शादी का खर्च और दहेज इन दोनों को परिवार अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए करते हैं, न कि लडक़ी के हक की तरह। कानून और अदालतों ने बार-बार यह साफ किया है कि इन चीजों को लडक़ी का हक मानकर आगे हाथ खींच लेना कानूनी नहीं है। लेकिन हिन्दू समाज ने इसका एक तोड़ निकाल लिया है, और पैसे वाले परिवारों की बेटियां जब शादी होकर बाहर जाती हैं, तो उनसे यह लिखवा लिया जाता है कि उसे पिता की संपत्ति में से कुछ नहीं चाहिए। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए, और लडक़ी को ऐसे हित त्याग करने का कोई हक नहीं रहना चाहिए क्योंकि उस लडक़ी की शादी के बाद भी उसे मां-बाप की दौलत में से जो मिलना है उस पर उसके बच्चों का भी हक रहता है, और उन बच्चों के हक त्याग करने का उसे कोई हक नहीं है। 

राखी के मौके पर हम इसकी चर्चा इसलिए करना चाहते हैं कि साड़ी, लिफाफा, घड़ी, मोबाइल फोन, या कोई छोटा-मोटा गहना देकर भाई-भाभी इस बात की गारंटी चाहते हैं कि बहन बाप की दौलत में हक का बखेड़ा खड़ा न करे। आज राखी की प्रथा या परंपरा का कोई भी मतलब अगर है, तो वह यही है कि भाई बहन की हर तरह की हिफाजत करे। यह हिफाजत बाहर के गुंडों से बहन को बचाने तक सीमित नहीं है, यह उसके कानूनी हक पर डाका डालने वाले भाई पर भी लागू होती है, जिससे बहन को बचाने की जिम्मेदारी उसी डकैत भाई पर आती है। आज हालत यह है कि हिन्दू समाज में कोई भी लडक़ी अगर कानूनी हक की बात करेगी, तो भाई-भाभी तो दूर की बात रहे, मां-बाप भी उसके भावनात्मक शोषण में जुट जाएंगे, और उसे मरने-मारने की धमकी देने लगेंगे। मां-बाप जान देने पर उतारू दिखें, तो तमाम लड़कियां अपने हक छोडऩे के लिए तैयार हो जाएंगी। इसलिए इस बारे में कानून को ही कुछ करना होगा। 

हमारा यह मानना है कि देश में ऐसा कानून बनना चाहिए कि कम से कम आयकरदाता परिवार के लिए यह बंदिश हो जाए कि लडक़ी की शादी के साथ ही अगले बरस के इंकम टैक्स रिटर्न, या किसी और टैक्स कागजात में उस परिवार को लडक़ी के हक देने की जानकारी देना जरूरी हो जाए, जमीन-जायदाद का ट्रांसफर एक या दो बरस के भीतर हो जाए, और ऐसे तमाम कागजात सरकार के किसी विभाग में दाखिल करने की मजबूरी हर परिवार पर लाद दी जाए। समाज में कई किस्म के सुधार बिना कड़े कानूनों के लागू नहीं हो सकते। समाज और परिवार तो बाल विवाह करवाने पर उतारू रहते थे, और हिन्दू समाज कन्या भ्रूण हत्या के लिए भी कुख्यात रहा है। जब तक पूरे के पूरे ससुराल को जेल भेजने के कानून पर कड़ाई से अमल नहीं होने लगा, तब तक दहेज-हत्याएं आए दिन की बात थीं, और कड़े कानून के साथ-साथ उस पर कड़े अमल की कानूनी बंदिश की वजह से परिवारों ने बहू को जलाकर मारना, या प्रताडि़त करके आत्महत्या को मजबूर करना बंद किया है। ऐसा ही कड़ा कानून लडक़ी के हक को लेकर बनाने की जरूरत है। 

आज सोशल मीडिया पर जितने लोग रक्त संबंध वाली सगी बहन से राखी बंधवाते हुए तस्वीरें पोस्ट करते हैं, उनसे यह भी पूछना चाहिए कि बालिग और शादीशुदा बहन के हक तो उन्होंने जरूर ही दे दिए होंगे, और अगर नहीं दिए होंगे तो राखी की जिम्मेदारी का यह तकाजा है कि वे जल्द से जल्द बहन को यह हक दिलवाएं, मां-बाप न भी चाहें, तो भी वे उनसे लडक़र बहन को जायदाद में बराबरी का हक दिलवाएं। भारत की अदालतों का जो हाल है, उसमें यह साफ है कि लडक़ी मां-बाप और भाई के खिलाफ अदालत पहुंचकर इंसाफ पाने की लड़ाई आसानी से नहीं लड़ सकती। उस पर सामाजिक दबाव भी रहेगा। इसलिए कानून के साथ-साथ सामाजिक दबाव की नौबत भी बदलनी होगी, और जिस समाज में जो सुधार की बात करने वाले लोग हैं, उन्हें लड़कियों के कानूनी हक की बात भी उठानी चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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