संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक देश, एक चुनाव की सोच कितनी सही, कितनी गलत...
01-Sep-2023 3:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   एक देश, एक चुनाव की सोच कितनी सही, कितनी गलत...

मोदी सरकार ने 18 सितंबर से संसद का पांच दिनों का एक विशेष सत्र आयोजित किया है जिसके बारे में अभी कोई जानकारी नहीं दी गई है लेकिन लोगों का अंदाज है कि सरकार की तरफ से कुछ बड़े फेरबदल वाले संसदीय काम इस सत्र में करवाए जा सकते हैं। इसके लिए विशेष कानून बनाना हो, या मौजूदा कानून में कोई फेरबदल करना हो तो वह सब इन पांच दिनों में हो सकता है। सत्तारूढ़ गठबंधन का जो बाहुबल है, उसके चलते लोकसभा में उसे विपक्ष के किसी समर्थन की कोई जरूरत नहीं है। दूसरी तरफ राज्यसभा में उसका समर्थन करने के लिए कुछ गैरएनडीए, गैर-इंडिया पार्टियां मौजूद हैं, और सरकार को संसदीय बहुमत जुटाने में वहां भी कोई दिक्कत नहीं होगी। दिल्ली के जानकार राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि देश में सारे चुनाव एक साथ करवाने का एक विधेयक लाया जा सकता है, और इसकी बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो बरसों से करते ही आए हैं। उनके पहले से भी यह बात कई दूसरे लोग भी बोल चुके हैं कि संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए। इसके अलावा म्युनिसिपल और पंचायतों के चुनाव भी इन्हीं के साथ करवाए जा सकते हैं, ताकि चुनाव का खर्च घटे, और वोटर पांच बरस में एक बार वोट डालने जाए। देश में आजादी के बाद चार आम चुनाव ऐसे थे जिनमें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हुए। उसके बाद राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने का सिलसिला चला, और वहां राष्ट्रपति शासन खत्म होने के बाद जब दुबारा चुनाव हुए तो उन सदनों का पांच बरस का कार्यकाल दूसरे राज्यों से अलग हो गया। अब देश में हर बरस कुछ राज्यों में चुनाव चलते ही रहते हैं। इसलिए पहले भी यह मांग उठी थी, बहुत अलग-अलग पार्टियों के बहुत से लोग इसके पक्ष में थे, और हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने भी इसी जगह पर देश में एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया था। 

इसकी कई वजहें हैं, जो कि आज मोदी की आक्रामक छवि और उनकी अभूतपूर्व लोकप्रियता के सामने दब जाती हैं। आज जब मोदी यह बात करते हैं तो लगता है कि वो पूरे देश के चुनावों को प्रभावित करने के लिए अपना चेहरा पोस्टरों पर रखना चाहते हैं, फिर चाहे वह संसद का चुनाव हो, या विधानसभा का। लेकिन लोकतंत्र में सिद्धांत और कानून किसी व्यक्ति को देखकर तय करना ठीक नहीं है। यह बात सही है कि आज मोदी बाकी पार्टियों के नेताओं के मुकाबले वोटरों के बड़े तबके में अधिक लोकप्रिय हैं, लेकिन देश की संवैधानिक व्यवस्थाएं नेताओं के चले जाने के बाद भी कायम रहती हैं। नेहरू सबसे लोकप्रिय थे, लेकिन 1964 में वे भी चले गए थे, और  उनके बाद भी लोकसभा-विधानसभा के चुनाव साथ में हुए। इंदिरा गांधी द्वारा विधानसभाओं को भंग करने की वजह से यह सिलसिला टूटा। फिर जिन लोगों को यह डर लगता है कि मोदी की तस्वीर राज्यों से भी बाकी पार्टियों को बेदखल करने में कामयाब हो जाएगी, उन्हें याद रखना चाहिए कि देश में कई ऐसे चुनाव हुए जिसमें एक दिन एक मतदान केन्द्र पर लोगों को दो बैलेट दिए गए, उन्होंने राज्य के लिए एक पार्टी को चुना, और केन्द्र के लिए किसी दूसरी पार्टी को। गैरभाजपाई पार्टियों को यह भी सोचना चाहिए कि आज जिन राज्यों में भाजपा हारी थी, वहां भी लोकसभा चुनाव में मोदी का एकतरफा बोलबाल था। ऐसे में अगर साथ में चुनाव होते, तो हो सकता है कि राज्य में लोकप्रिय पार्टी का कुछ असर लोकसभा चुनाव पर भी पड़ता। 

लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने से खर्च में कटौती तो एक बात है, राजनीतिक दलों पर से मतदाताओं को खुश करने का दबाव भी इससे घटेगा, और उससे भी लुभावने राजनीतिक कार्यक्रमों को सरकारी खर्च से पूरा करने का सिलसिला थमेगा। आज चुनाव तो पांच राज्यों में विधानसभा के होने हैं, लेकिन केन्द्र सरकार ने वोटरों को लुभाने के लिए चाहे-अनचाहे रसोई गैस के दाम घटाए। ऐसे और भी कई कार्यक्रमों, कई रियायतों की घोषणा अभी हो सकती है, और हर बरस के किसी न किसी चुनाव को देखते हुए देश भर में ऐसी कई रियायतें दी जाती हैं। रियायतों से जनकल्याण होने की बात तक तो ठीक है, लेकिन अगर उन्हें सिर्फ लुभाने के लिए दिया जा रहा है, तो इससे देश की आर्थिक योजना प्रभावित होती है। एक साथ चुनावों से देश और प्रदेशों की सरकारें लंबे पांच बरसों के कार्यकाल के लिए अपनी प्राथमिकताएं तय कर सकेंगी, उन पर अधिक गंभीरता से अमल कर सकेंगी। 

अगर लोकसभा में, राज्यसभा में विचार-विमर्श और बहस का माहौल रहेगा, तो इस बारे में भी वहां बहस होगी, और अलग-अलग पार्टियों के तर्क भी सामने आएंगे। यह एक दिलचस्प मामला है। और केन्द्र सरकार के एक फैसले ने इसे और दिलचस्प बना दिया है। मोदी सरकार की तरफ से खबर आई है कि उसने एक देश एक चुनाव पर एक कमेटी बनाई है जिसके अध्यक्ष पिछले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद होंगे। यह कुछ हैरानी की बात है। हमारी मोटी समझ यह कहती है कि राष्ट्रपति रिटायर होने के बाद एक सम्माननीय नागरिक होकर रह जाते हैं, उनके किसी तरह के सरकारी या संवैधानिक काम नहीं हो सकते। ऐसे में उन्हें ऐसी किसी कमेटी का अध्यक्ष बनाना कुछ हैरान करता है, क्योंकि इस कमेटी में कई राजनीतिक दलों और दूसरे तबकों की असहमति भी आ सकती है, वहां पर गर्मागर्म बहस भी हो सकती है जो कि किसी भूतपूर्व राष्ट्रपति के लिए शायद शोभनीय न हो। फिर भी केन्द्र सरकार ने अगर ऐसा किया है तो उसकी सोच को जानना भी दिलचस्प होगा। 

एक देश एक चुनाव का पहला असर यह देखने मिल सकता है कि पांच राज्यों के चुनावों के साथ लोकसभा के चुनाव समय के पहले हो जाएं, या फिर विधानसभाओं के चुनाव कुछ देर से हों। ऐसी चर्चा है कि मोदी का जादू घट रहा है, और वह एक सीमा से अधिक घट जाए, उसके पहले भाजपा अगला चुनाव चाहती है। हो सकता है ऐसी भी कोई नीयत ऐसे किसी संविधान संशोधन, या नए कानून के पीछे हो। इसके साथ-साथ कुछ और मामलों पर भी इस सत्र में चर्चा होने की संभावना बताई जा रही है, जिनमें संसद की सीटें बढ़ाकर उन्हें महिलाओं के लिए आरक्षित करने की भी बात सुनाई पड़ रही है, लेकिन उस बारे में एक लंबी चर्चा अलग से। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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