संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वर्तमान और पूर्व राष्ट्रपति का ऐसा अनोखा इस्तेमाल
02-Sep-2023 3:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वर्तमान और पूर्व राष्ट्रपति  का ऐसा अनोखा इस्तेमाल

देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने के लिए मोदी सरकार ने जो कमेटी बनाई है उसके अध्यक्ष रामनाथ कोविंद होंगे। देश में शायद यह पहला ही मौका होगा कि एक भूतपूर्व राष्ट्रपति को कोई काम दिया जा रहा है। भारतीय लोकतंत्र की हमारी बहुत मामूली सी समझ यह कहती है कि राष्ट्रपति बनते ही लोग अपनी पार्टी से परे के, गैरराजनीतिक व्यक्ति हो जाते हैं, और कार्यकाल खत्म होने के बाद तो वे पूरी तरह से रिटायर्ड जिंदगी जीते हैं, जिसका खर्च सरकार उठाती है। किसी भूतपूर्व राष्ट्रपति की कोई ऐसी जिंदगी इसके पहले की ऐसी याद नहीं पड़ती है जिसमें उन्होंने सरकार के लिए कोई काम किया हो। लेकिन रामनाथ कोविंद को एक देश एक चुनाव की तैयारी के लिए बनाई गई कमेटी का अध्यक्ष बनाकर मोदी सरकार ने विपक्षी दलों के सामने भी शिष्टाचार की एक दिक्कत खड़ी कर दी है कि एक भूतपूर्व और दलित राष्ट्रपति से कितनी असहमति जाहिर की जाएगी, कितना विरोध किया जाएगा। दिलचस्प बात यह है कि रामनाथ कोविंद के एक बयान की चर्चा की जा रही है कि उन्होंने संसद के एक संयुक्त सत्र में एक देश एक चुनाव की वकालत की थी। अब यह बात बड़ी बुनियादी समझ की है कि राष्ट्रपति के तमाम औपचारिक भाषण केन्द्रीय मंत्रिमंडल से मंजूर होते हैं। और संसद में उनके दिए गए भाषण केन्द्र सरकार द्वारा लिखे गए रहते हैं, जिन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल पास करके राष्ट्रपति को भेजता है। राष्ट्रपति के पास बस इतनी आजादी रहती है कि उस भाषण के किसी पैरा को पढऩा वे छोड़ सकते हैं, लेकिन वह भी लिखित भाषण में तो बंटता ही है। इसलिए संसद में उन्होंने जो भाषण दिया था वह सरकार का ही लिखा हुआ था, और अब उसे उनके विचार बताकर उन्हें ऐसी किसी कमेटी का मुखिया बनाना, यह सब कुछ बड़ा सोचा-समझा लगता है। रामनाथ कोविंद में जाने क्या सोचकर अपनी रिटायर्ड जिंदगी में यह विवाद मोल लिया है, और इसने संविधान के जानकार लोगों को बड़ा निराश भी किया है। 

लेकिन केन्द्र सरकार ने एक और राष्ट्रपति का इसी तरह का इस्तेमाल अभी किया है। मौजूदा आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू छत्तीसगढ़ से लगे हुए ओडिशा की हैं, और छत्तीसगढ़ अभी चुनाव से गुजर रहा है। यहां के आदिवासी इलाकों में आदिवासियों के ईसाई बनने का मुद्दा बहुत बड़ा है, और उसका हिन्दूवादी संगठन जमकर विरोध भी कर रहे हैं। ऐसे में राष्ट्रपति का छत्तीसगढ़ आना, और यहां एक के बाद दूसरे मंदिर में जाना, और एक तथाकथित आध्यात्मिक संगठन में जाना जो कि हिन्दू धर्म से ही जुड़ा हुआ है। दो दिनों में उनके इन तमाम कार्यक्रमों को देखें तो ऐसा लगता है कि वे अपने आदिवासी होने के साथ-साथ अपने हिन्दू होने की बात को भी स्थापित कर रही हैं। यह पूरा कार्यक्रम केन्द्र सरकार की सहमति से बनता है, और इससे आदिवासियों के बीच आदिवासियों के हिन्दू होने की एक बात बिना कहे हुए ही चली जाती है। छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी हिस्से ओडिशा से लगे हुए हैं, और द्रौपदी मुर्मू का नाम वहां पर उनके राष्ट्रपति बनने के वक्त से ही अच्छी तरह जाना-माना है। तमाम आदिवासियों के बीच द्रौपदी मुर्मू के मंदिरों में जाने की तस्वीरें, उसके वीडियो पहुंचे हैं, और उनका जो भी असर हो सकता है, वह हो रहा है। 

देश के अलग-अलग राज्यों में मतदान के दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी नेपाल के मंदिरों का दौरा करते रहते हैं, तो कभी बांग्लादेश के मठ-मंदिरों का। भारत में तो चुनाव कानूनों की वजह से उन राज्यों में किसी तरह का चुनाव प्रचार नहीं हो सकता, लेकिन मोदी के ऐसे मंदिर भ्रमण हिन्दुस्तानी टीवी चैनलों पर दिनभर छाए रहे, और चुनावी भाषण बिना भी उन्होंने चलते मतदान के बीच चुनाव प्रचार का काम किया। अब मुम्बई में विपक्षी गठबंधन, इंडिया, की बैठक के बीच जिस तरह से संसद के विशेष सत्र की घोषणा हुई, उससे इस गठबंधन की पार्टियों के बीच बात आगे बढऩे के बजाय इन मुद्दों पर चर्चा शुरू हो गई जो कि संसद के विशेष सत्र में सरकार ला सकती है। जिस तरह से मीडिया में चार-पांच गिने हुए मुद्दे एक साथ छा गए, और सरकार की कोई घोषणा तक नहीं हुई है, उससे ऐसा लगता है कि सरकार की तरफ से ही किसी ने ऐसे संभावित मुद्दों की जानकारी मीडिया तक दी जिससे विपक्षी गठबंधन के बीच खलबली मचे। यह बात जाहिर है कि महिला आरक्षण, या महिला सीटों को बढ़ाना, एक देश-एक चुनाव करवाना जैसे मुद्दों पर विपक्षी गठबंधन की पार्टियां बहुत मजबूती से एकजुट नहीं रह पाएंगी। उनके  बीच सैद्धांतिक मतभेद भी होंगे, और क्षेत्रीय पार्टियों की अपनी क्षेत्रीय मजबूरियां भी होती हैं। इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि बिना कोई एजेंडा घोषित किए संसद के इस विशेष सत्र की घोषणा से, और इसके संभवित एजेंडा की उठ खड़ी हुई चर्चा से खबरें गठबंधन से हट गईं, और संसद के होने वाले सत्र पर जा टिकीं। 

इन तमाम बातों को मिलाकर देखने की जरूरत है कि एक दलित पूर्व राष्ट्रपति को उसके एक ऐसे भाषण के हवाले से एक कमेटी का मुखिया बनाने का अभूतपूर्व काम किया गया, जो भाषण खुद केन्द्र सरकार का लिखा हुआ था। एक आदिवासी राष्ट्रपति को चुनावी राज्य छत्तीसगढ़ में हिन्दू मंदिरों के दौरे पर भेज दिया गया, और इस राज्य में एक तिहाई आबादी आदिवासियों की हैं। विपक्षी गठबंधन की बैठक के बीच संसद के विशेष सत्र की घोषणा कर दी गई, और किसी एजेंडा की घोषणा के बिना देश का मीडिया इस विशेष सत्र को मास्टर स्ट्रोक और सर्जिकल स्ट्राईक लिखने लगा है। इन तमाम बातों के पीछे मोदी सरकार का एक विशाल जनधारणा प्रबंधन दिखता है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में शायद ही किसी प्रधानमंत्री और सरकार ने खुद ऐसे अवसर गढ़े, और उनका भरपूर दोहन भी किया। विपक्षी गठबंधन को अगर मोदी से पार पाना है, तो मोदी के परसेप्शन मैनेजमेंट का अध्ययन करने के लिए उसे अपनी एक अघोषित कमेटी बनानी चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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