विचार / लेख

-नासिरुद्दीन
होंठों पर चूमा ही तो है। कुछ और तो नहीं किया। इस पर इतना हंगामा क्यों बरपा है? भारत और दूसरे कई मुल्कों के मर्दाना समाज और ख़ासकर मर्दों को यह समझ में नहीं आ रहा है। समझ में आ ही जाता तो जो हो रहा है, वह न होता। या ऐसी बात कोई न कहता।ठीक उसी तरह जैसे कोई कह सकता है, पीठ ही तो थपथपाया/ सहलाया है, कुछ और तो नहीं किया। वैसे, यहाँ बात अपने देश की नहीं हो रही है।
रुबियालेस ने क्या किया?
जी, होठों पर चूमने की एक घटना पर इन दिनों एक दूर देश में हंगामा बरपा है।
विश्व कप महिला फुटबॉल प्रतियोगिता का ख़िताब पहली बार जीतने वाली स्पेन की टीम की एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी हैं, जेनी हर्मोसो।
जीत के जश्न के दौरान स्पेन फ़ुटबॉल संघ के तत्कालीन अध्यक्ष लुईस रुबियालेस ने हर्मोसो को बाँहों में भरा। उनका सिर पकड़ा और होंठों को चूम लिया। होंठ चूमने की तस्वीर और वीडियो वायरल होने लगी। रुबियालेस की आलोचना हुई कि उन्होंने ज़बरदस्ती चूमा। यह यौनिक व्यवहार है। ग़लत है। उन्हें माफ़ी माँगनी चाहिए। अपने पद से इस्तीफ़ा देना चाहिए।
रुबियालेस और स्पेन के फुटबॉल संघ ने पहले इस आरोप को नकारा। इनका कहना था कि यह सब सहमति से हुआ। वे फज़ऱ्ी नारीवादियों के सामने नहीं झुकेंगे।
और रुबियालेस को निलंबित किया गया लेकिन स्पेन की सरकार ने भी उनके इस बर्ताव की आलोचना की। फिर स्पेन की जनता सडक़ों पर उतर आई। तब रुबियालेस के ख़िलाफ़ जाँच का एलान हुआ।
हंगामे के बाद स्पेन के फुटबॉल संघ को भी झुकना पड़ा और उसे अपने अध्यक्ष को इस्तीफ़े के लिए कहना पड़ा। इस बीच, अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल महासंघ (फ़ीफ़ा) ने लुईस रुबियालेस को उनके पद से निलंबित कर दिया।
जब हर्मोसो ने चुप्पी तोड़ी
जब यह सब शुरू हुआ तो हर्मोसो चुप थीं। लेकिन जब रुबियालेस की तरफ़ से यह बात बार-बार आई कि यह सब सहमति से हुआ था और उन्होंने चूमने से पहले पूछा था, तब हर्मोसो ने अपनी चुप्पी तोड़ी।
ट्विटर (एक्स) पर उनकी तरफ़ से लम्बा बयान आया। उन पर इस बात का काफ़ी दबाव था कि वे कह दें कि यह सब सहमति से हुआ था। वे झुकी नहीं।
हर्मोसो के बयान का लब्बोलुबाब है- ‘वे पूरी तरह झूठ बोल रहे हैं। बातों को तोड़मरोड़ कर अपने पक्ष में पेश कर रहे हैं। वे जिस बातचीत का हवाला दे रहे हैं, वह कभी हुई ही नहीं। वह घटना मुझे पसंद नहीं आई। मैं उस वक़्त कुछ कर पाने की हालत में नहीं थी। मैं यौनिक व्यवहार का शिकार हुई।’
‘मेरी तरफ़ से इस तरह की कोई सहमति नहीं दी गई थी। उन्होंने कहा कि इस तरह की संस्कृति काफ़ी लंबे समय से चल रही है। अब बहुत हुआ। यह मेरी इच्छा के खिलाफ़ हुआ। मेरी सहमति से नहीं हुआ। यह मेरे सम्मान के ख़िलाफ़ है। मुझे चूमना अच्छा नहीं लगा। यह नाक़ाबिले बर्दाश्त है।’
यही नहीं, हर्मोसो समेत 81 खिलाडिय़ों ने यह भी कहा कि अगर रुबियालेस पद पर बने रहेंगे तो वे राष्ट्रीय टीम के साथ नहीं खेलेंगी। इतना सब होने के बाद रुबियालेस ने अपनी हरकत के लिए माफ़ी माँगी है। उन्होंने कहा कि जीत के जश्न में यह हो गया। लेकिन रुबियालेस के इस व्यवहार ने जिस मुद्दे की तरफ़ हमारा ध्यान खींचा है, वह है स्त्री-पुरुष रिश्ते या जेंडर सम्बंधों में सहमति का मुद्दा और मर्दों का व्यवहार।
सहमति या रज़ामंदी क्या है?
दो जेंडर के बीच आपसी और यौनिक रिश्ते में सहमति या रज़ामंदी या कंसेंट एक बहुत अहम और नाज़ुक शब्द है। या यूं कहा जाए कि रिश्ते की बुनियाद ही इस शब्द पर टिकी है।
किसी बात से सहमत होना, किसी बात के लिए स्वीकृति या इजाज़त देना, अनुमति देना, जिस बात से प्रसन्नता हो या ख़ुशी से मानी गई हो, किसी बात के लिए तैयार होना- यह सब सहमति या कंसेंट है।
अगर सहमति में ख़ुशी नहीं है तो वह सहमति नहीं है। यानी सहमति के लिए तैयार होना और तैयार करना- दो चीज़ें हैं। सहमति में आज़ादी है। ख़ुद फ़ैसला लेने की ताक़त शामिल है। बिना किसी दबाव के स्वीकृति देना शामिल है। यही नहीं, उस व्यक्ति में सहमति देने की सलाहियत हो। वह बिना किसी दबाव के सहमति देने की हालत में हो।
इसमें ख़ुद की इच्छा शामिल है। सहमति हासिल करने के लिए किसी भी तरह के पद या हैसियत की सत्ता का इस्तेमाल शामिल नहीं हो। अगर माना जा रहा है कि सहमति है और इन सबके बिना है, तो वह सहमति नहीं है। फ़ैसला वही ले सकता है, जो हर तरह से आज़ाद है। ख़ासतौर से दिमाग़ से आज़ाद है। किसी भी तरह की सत्ता के क़ाबू में नहीं है। प्रेम की सत्ता के क़ाबू में भी नहीं है।
सहमति या रज़ामंदी क्यों ज़रूरी है?
इसका जवाब एक सवाल से ही दिया जा सकता है। हमें सहमति की परवाह कब नहीं रहती है? जब हम किसी से ख़ुद को श्रेष्ठ मानते हैं। बड़ा मानते हैं। ताक़तवर मानते हैं। अपने सामने वाले को कुछ नहीं मानते-समझते। अपने पास अनेक तरह की सत्ता महसूस करते हैं। तब हमें लगता है कि हम जो कर रहे हैं, वह हमारा हक़ है। यही सहमति है। इसके लिए हमें किसी से पूछने की क्या ज़रूरत है। यह सत्ता लिंग की हो सकती है। धर्म की हो सकती है। जाति की हो सकती है। वर्ग या पैसे की हो सकती है। जेंडर की हो सकती है।
हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहाँ हम हर तरह के भेदभाव और ग़ैर-बराबरी ख़त्म करने की बात करते हैं। वहाँ हर क्षण सहमति या रज़ामंदी की ज़रूरत है। सहमति किसी के वजूद को मानना है। किसी को इंसान मानना है। उस इंसान को ख़ुद के बराबर का इंसान मानना है। यानी उसकी इच्छा और सहमति के बिना कुछ नहीं, यानी कुछ नहीं करना है। रुबियालेस ने हार्मोस के साथ जो किया वह ऐसा नहीं था।
सहमति की संस्कृति और दायरा
कुछ सहमति हम मान लेते हैं। इसका रिश्ता बहुत हद तक स्थानीय संस्कृति से भी है। स्पेन में गाल पर चूमना वहाँ की संस्कृति का हिस्सा हो सकती है। भारत में नहीं है। लेकिन गाल पर चूमना और होंठों पर चूमना एक ही बात नहीं है। यहाँ उस दायरे का उल्लंघन है, जो वहाँ की संस्कृति से तय है।
हमारे यहाँ होली के मौक़े पर सांस्कृतिक तौर पर हँसी-मज़ाक और शरीर से खेलने का रिवाज है। अक्सर इसकी आड़ में बिना सहमति के दायरे का इसी तरह उल्लंघन होता है।
इसलिए सहमति में दायरा समझना निहायत ज़रूरी है।
मर्दों को यह सहमति आसानी से क्यों नहीं समझ में आती?
मर्दों को यह सहमति आसानी से समझ में नहीं आती। उन्हें बताया गया है कि वे लड़कियों और स्त्रियों से श्रेष्ठ हैं। वे ख़ुद को मान भी लेते हैं। यही नहीं, वे यह भी सीखते हैं कि लड़कियाँ या स्त्रियाँ उनके लिए हैं। यानी उनकी सेवा के लिए हैं।
यानी वे उनके मन बहालने का ज़रिया हैं। उनका वजूद ही इसलिए है कि वे लडक़ों/ मर्दों की ख़्वाहिश पूरी करें। जब संस्कार ऐसे दिए जाएँगे तो सहमति का हाल क्या होगा? सहमति की परवाह ही नहीं की जाएगी। जैसे रुबियालेस ने नहीं की। जैसे कुछ और लोगों ने नहीं किया।
किसी लडक़ी से सट कर खड़े होते वक़्त, उसके कंधे या पीठ पर हाथ रखने या गले या कमर में हाथ डालने से पहले कितने लडक़े पूछते हैं या इजाज़त लेते हैं या इजाज़त का इंतज़ार करते हैं? या बस झट से हाथ यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ रख देते हैं? या गले पड़ जाते हैं? ये मर्दाना व्यवहार हैं। ग़लत हैं।
यह कहने से काम नहीं चल सकता है कि हमारी नीयत साफ़ थी। नीयत महत्वपूर्ण है। लेकिन उससे काफ़ी महत्वपूर्ण है, सामने वाला हमारे व्यवहार को कैसे समझता या लेता है। कई बार हम हम अनजाने में भी दायरे का उल्लंघन करते हैं। इसलिए व्यवहार में लगातार सचेत रहना बेहद ज़रूरी है।
एक और बात है। मर्दवादी नज़रिया है कि लड़कियों/ महिलाओं में ख़ुद सोचने-समझने की ताक़त नहीं होती। इसलिए उनमें सहमति देने की भी सलाहियत नहीं होती। इसीलिए उनकी सहमति लेना अहम नहीं है। यही नहीं, कुछ ख़ास तरह के व्यवहार को ही सहमति मान लिया जाता है। सहमति का मतलब साफ़ सहमति ही होनी चाहिए।
लड़कियों को भी खुलकर ‘न’ कहना सीखना होगा
पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों को भी अपने लिहाज़ से सिखाता है। ढालता है। सिखाता है कि वे ‘हाँ’ की स्थिति में भी ‘न’ कहें। क्योंकि एक ‘अच्छी लडक़ी’ कभी ‘हाँ’ नहीं कहती है। उसे न तो कभी ‘हाँ’ कहना चाहिए और न ही कभी पहल करनी चाहिए। ऐसा करने वाली लड़कियाँ बुरी होती हैं। इसी के बरअक्स सीख लडक़ों और मर्दों को दी जाती है। यानी अगर कोई लडक़ी ‘न’ कहे तो उसे ‘हाँ’ ही मानो। लडक़ी कभी ‘हाँ’ नहीं कहती है/ कहेगी। लडक़ी कभी पहल नहीं करती, इसलिए तुम पहल करो। आक्रामक पहल करो।
मर्द ऐसा ही करते हैं। लडक़ों और मर्दों के दिमाग़ में भी बैठाया गया है, ‘हाँ’ कहने और पहल करने वाली लड़कियाँ अच्छी नहीं होतीं। ये सीख लडक़ों के बड़े काम की है। लड़कियाँ सचमुच में ‘न’ कहती रहती हैं, वे उसे ‘हाँ’ समझते रहते हैं। लड़कियाँ जितनी शिद्दत से ‘न’ कहती हैं, वे उतनी शिद्दत से उसे ‘हाँ’ मानकर आक्रामक बढ़त लेते हैं। हमला करते हैं।
सहमति या रज़ामंदी एक बार ही काफ़ी नहीं है
सहमति के साथ एक और बहुत गंभीर बात है। सहमति अभी है। इसका क़तई मतलब नहीं कि सहमति ताउम्र के लिए है। सुबह किसी चीज़ के लिए सहमति है तो शाम में नहीं हो सकती है।
स्त्री की तरफ़ से इच्छा और सहमति बार-बार और हर बार पता चलनी ज़रूरी है। यही नहीं, कोई रिश्ता किसी स्त्री से ताउम्र सहमति हासिल कर लेने का सर्टिफिक़ेट भी नहीं है। चाहे वह रिश्ता दोस्ती का हो या प्रेमी-प्रेमिका का या फिर पति-पत्नी या पार्टनर का। ‘न’ इन सब रिश्ते में भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना किसी और जगह या रिश्ते में। ‘न’ का मतलब हमेशा ‘न’ ही माना जाए। ‘हाँ’ मानने की परम्परा तोड़ी और छोड़ी जाए। किसी के लिए भी किसी के ‘न’ का सम्मान और अपनी ‘हाँ’ पर नियंत्रण निहायत ज़रूरी है।
रूबियालेस और हर्मोसो के बीच जो हुआ, वह सम्मानजनक नहीं था। कुछ दिनों पहले हमारे देश में भी अनेक महिला खिलाड़ी सडक़ पर थीं। उस वक्त भी सवाल कुछ ऐसे ही थे। हर्मोसो के साथ वहाँ की जनता और सरकार खड़ी है।
हमलोग यहाँ का हाल देख चुके हैं। एक सभ्य समाज आपसी रिश्ते में सहमति और इच्छा पर ही टिका रह सकता है।जहाँ दूसरों पर अपनी इच्छा और मर्जी थोपी जाए यानी किसी न किसी रूप में ज़बरदस्ती की जाए, उस समाज का सभ्य होना अभी बाक़ी है।
(bbc.com/hindi)