विचार / लेख
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- डॉ. आर.के.पालीवाल
अभी तक किसी पूर्व राष्ट्रपति को सरकार द्वारा गठित किसी समिति का अध्यक्ष नियुक्त करने की परिपाटी नहीं थी। पहले की किसी सरकार ने राष्ट्र के किसी भूतपूर्व प्रथम नागरिक को कोई ऐसी जिम्मेदारी सौंपने की कोशिश भी नहीं की थी जो राष्ट्रपति पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है। किसी पूर्व राष्ट्रपति ने पदमुक्त होने के बाद राजनीतिक सक्रियता भी नहीं दिखाई थी। इस मामले में कुछ साल पहले निवृतमान राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब ने पदमुक्त होकर स्कूल, कॉलेज और तकनीकी संस्थाओं आदि के विद्यार्थियों से संवाद की एक अत्यन्त शालीन परंपरा की शुरुआत की थी। उसके बरक्स पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद ने सरकार द्वारा गठित वन नेशन वन इलेक्शन समिति का अध्यक्ष पद स्वीकार कर एक नई परिपाटी शुरु की है जिसकी बौद्धिक जगत में आलोचना हो रही है। जो राष्ट्रपति केंद्र सरकार और सरकार के मंत्रियों को नियुक्त करता है उसे निवृतमान होने के बाद सरकार नियुक्त करे यह तथ्य ही राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद से मुक्त हुई विभूति की गरिमा के अनुरूप नहीं लगता। इसका एक कारण यह भी है कि यह सरकार की एकतरफा कार्यवाही है जिस पर राजनीतिक विवाद अवश्यंभावी था और जो अधीर रंजन चौधरी के इस समिति की सदस्यता ग्रहण करने से इंकार करने से शुरु भी हो गया है । इस दृष्टि से पूर्व राष्ट्रपति का राजनीतिक विवाद में फंसना उचित नहीं लगता। यदि लोकसभा और राज्यसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले सभी राजनीतिक दलों द्वारा सर्व सहमति से पूर्व राष्ट्रपति का नाम सुझाया जाता तब एकबारगी यह कहा जा सकता था कि यह पूर्व राष्ट्रपति की गरिमा के अनुरूप है लेकिन वर्तमान सरकार भले ही सबका साथ सबका विकास का नारा देती है लेकिन इधर सर्वसहमति जैसी आदर्श परंपराएं उसकी डिक्शनरी में दिखाई नहीं देती।
आनन-फानन में बिना गंभीर विचार-विमर्श किए बनाई गई इस उच्च स्तरीय समिति की सबसे बडी कमी इसमें किसी पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को शामिल नहीं किया जाना है। बेहतर होता यदि एक से अधिक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्तों को इस समिती में शामिल किया जाता तो उनके सघन अनुभवों का लाभ समिति को मिलता। पूर्व चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में कार्य करने वालों को एक साथ चुनाव कराने के लाभ और चुनौतियों का सबसे अच्छा अनुभव होता है। सरकार से समिति के गठन में यह बड़ी चूक लगती है जिसे तत्काल सुधारा जाना चाहिए। यह कार्य समिति को यह अधिकार देकर भी किया जा सकता है कि समिति सर्व सहमति से कुछ सदस्य समिति में शामिल कर सकती है।
वर्तमान सरकार की यह आदत सी हो गई है कि वह परंपराओं को तोडक़र नए नए प्रयोग करती है। नए प्रयोग करना अच्छी बात है लेकिन यह तभी सही है जब हमारे प्रयोगों की दिशा और प्रयोजन सकारात्मक हों और प्रयोग स्वस्थ मानसिकता से व्यापक विचार-विमर्श के बाद शरू हुए हों। जहां तक पूरे देश में एक साथ चुनाव का मसला है यह बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए इस पर व्यापक चर्चा करना उचित है लेकिन जिस तरह से सरकार ने आनन फानन में पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में समिति गठित की है उसकी आलोचना स्वाभाविक है। बेहतर होता इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद के पिछले सत्र में लंबी चर्चा होती और सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के विचार जानने के बाद कोई उच्च स्तरीय समिति गठित की जाती। इसके विपरीत इस समिति के गठन की घोषणा भी अचानक नोटबंदी की घोषणा की तरह हुई है। किसी को यह उम्मीद भी नहीं थी कि इसके अध्यक्ष निवर्तमान राष्ट्रपति को बनाया जाएगा! ऐसे में सरकार की मंशा पर प्रश्न चिन्ह खड़े होना स्वाभाविक है।