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‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने से क्या भारत में संवैधानिक संकट खड़ा होगा?
06-Sep-2023 4:27 PM
‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने से क्या  भारत में संवैधानिक संकट खड़ा होगा?

 चंदन कुमार जजवाड़े

लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के पीछे कई तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं। दावा किया जाता है कि इससे देश के विकास कार्यों में तेजी आएगी।

चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है। आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरुआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है और इससे विकास के काम पर असर पड़ता है।

यह भी तर्क दिया जाता है कि एक चुनाव होने से चुनावों पर होने वाले खर्च भी कम होगा। इससे सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ट्यूटी से भी छुटकारा मिलेगा।

भारत में साल 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ ही होते थे। साल 1947 में आजादी के बाद भारत में नए संविधान के तहत देश में पहला आम चुनाव साल 1952 में हुआ था।

उस समय राज्य विधानसभाओं के लिए भी चुनाव साथ ही कराए गए थे, क्योंकि आजादी के बाद विधानसभा के लिए भी पहली बार चुनाव हो रहे थे। उसके बाद साल 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ ही हुए थे।

यह क्रम पहली बार उस वक्त टूटा था जब केरल में साल 1957 के चुनाव में ईएमएस नंबूदरीबाद की वामपंथी सरकार बनी।

इस सरकार को उस वक्त की केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाकर हटा दिया था। केरल में दोबारा साल 1960 में विधानसभा चुनाव कराए गए थे।

संविधान में क्या संशोधन जरूरी होगा

साल 2018 में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त रहे ओपी रावत के मुताबिक साल 1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभा जल्दी भंग हो गई और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, इसके अलावा साल 1972 में होनेवाले लोकसभा चुनाव भा समय से पहले कराए गए थे।

साल 1967 के चुनावों में कांग्रेस को कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल और ओडिशा (उस वक्त उड़ीसा) जैसे कई राज्यों में विरोधी दलों या गठबंधन की सरकार बनी थी। इनमें से कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं और विधानसभा समय से पहले भंग हो गई थी।

इस तरह से साल 1967 के बाद बड़े पैमाने पर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने का सिललिला टूट गया। भारत की मौजूदा केंद्र सरकार इसे दोबारा एक साथ कराना चाहती है।

इसमें समस्या यह है कि अब भारत में कांग्रेस जैसी कोई एक पार्टी नहीं है, जिसकी केंद्र के साथ ही ज़्यादातर राज्यों में अपनी सरकार हो। ऐसे में केंद्र और राज्य से बीच सामंजस्य आसान नहीं होगा।

ओपी रावत साल 2015 में चुनाव आयोग में ही नियुक्त थे। उनके मुताबिक उसी दौरान केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग से पूछा था कि क्या लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना व्यावहारिक है और इसके लिए क्या कदम उठाए जाने जरूरी हैं?

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का क्या कहना है?

ओपी रावत का कहना है, ‘चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को बताया था कि दोनों चुनाव साथ कराना संभव है। इसके लिए सरकार को चार काम करना होगा। इसके लिए सबसे पहले संविधान के 5 अनुच्छेदों में संशोधन जरूरी होगा। इसमें विधानसभाओं के कार्यकाल और राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रावधानों को बदलना होगा।’

इसके अलावा निर्वाचन आयोग ने बताया था कि जन प्रतिनिधित्व कानून और सदन में अविश्वास प्रस्ताव को लाने के नियमों को बदलना होगा। इसके लिए ‘अविश्वास प्रस्ताव’ की जगह ‘रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव’ की व्यवस्था करनी होगी।

यानी अविश्वास प्रस्ताव के साथ यह भी बताना होगा कि किसी सरकार को हटाकर कौन सी नई सरकार बनाई जाए, जिसमें सदन को विश्वास हो, ताकि पुरानी सराकर गिरने के बाद भी नई सरकार के साथ विधानसभा या लोकसभा का कार्यकाल पांच साल तक चल सके।

निर्वाचन आयोग ने इस तरह के चुनाव के लिए कुल 35 लाख ईवीएम की जरूरत बताई थी और इसके लिए नए ईवीएम की खरीदारी की जरूरी है।

भारत में इस्तेमाल होने वाले एक ईवीएम की कीमत करीब 17 हज़ार और एक वीवीपीएटी की भी कीमत करीब इतनी ही है। ऐसे में ‘एक देश एक चुनाव के लिए’ करीब 15 लाख नए ईवीएम और वीवीपीएटी की जरूरत होगी।

ओपी रावत के मुताबिक अगर चुनाव आयोग को आज के हिसाब से करीब बारह लाख़ अतिरिक्त ईवीएम और वीवीपीएटी की जरूरत होगी तो इसे बनवाने में एक साल से ज्यादा का समय लग सकता है।

भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी ने बीबीसी को बताया है कि अगर लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इसके लिए मौजूदा संख्या से तीन गुना ज्यादा ईवीएम की जरूरत पड़ेगी।

केंद्र और राज्य के बीच किस तरह का

टकराव हो सकता है?

लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान के जानकार पीडीटी आचारी के मुताबिक एक देश एक चुनाव का मुद्दा व्यवहारिक है ही नहीं। इसके लिए एक आधार यह होना चाहिए कि देश की सारी विधानसभाएं एक साथ भंग हों, जो कि संभव नहीं है।

पीडीटी आचारी कहते हैं, ‘राज्य की विधानसभा समय से पहले भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है, केंद्र के पास नहीं। केंद्र ऐसा तभी कर सकता है, जब किसी वजह से किस राज्य में अशांति हो या ऐसी वजह मौजूद हो कि राज्य की विधानसभा को केंद्र भंग कर सके और ऐसा सभी राज्यों में एक साथ नहीं हो सकता।’

उनका कहना है कि किसी भी राज्य की विधानसभा को कार्यकाल पूरा किए बिना भंग करने से एक संवैधानिक संकट खड़ा हो जाएगा। यह संघीय ढांचे के खिलाफ होगा। यह संविधान के मूलभूत ढांचे के खिलाफ होगा, जिसे छेडऩे का अधिकार संसद के पास नहीं है।

भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी का मानना है कि चुनाव एक साथ कराने का मतलब है कि आपको स्थानीय निकायों के चुनाव भी एक साथ कराने होंगे। ऐसे में जनता एक बार में एक बटन दबाए या तीन दबाए, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है।

उनका कहना है कि सभी चुनावों में मतदाता, मतदान केंद्र, ईवीएम, सुरक्षा जैसी चीजें तो समान होती हैं, लेकिन ग्राम पंचायत या नगरपालिका/नगर निगम के चुनाव कराना राज्य निर्वाचन आयोग का काम है, जो केंद्र से बिल्कुल अलग है।

ऐसी स्थिति में भी केंद्र और राज्य के बीच अधिकारों को लेकर बहस छिड़ सकती है और यह भी एक संवैधानिक संकट खड़ा कर सकता है। इस तरह से संविधान संशोधन के मुद्दे पर राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच टकराव हो सकता है।

इसके अलावा किसी राज्य में चुनाव के बाद किसी एक दल या गठबंधन को बहुमत न मिले तो ऐसी स्थिति राजनीतिक अस्थिरता खड़ी कर सकती है।

भारत में चुनाव कराना कितना महंगा है?

‘एक देश एक चुनाव’ के पीछे बड़े चुनावी खर्च की दलील भी कई बार दी जाती है। लेकिन इसकी सच्चाई आम धारणा से थोड़ी अलग है।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत के मुताबिक भारत का चुनाव दुनियाभर में सबसे सस्ता चुनाव है। भारत में चुनावों में एक अमेरिकी डॉलर प्रति वोटर के हिसाब से खर्च होता है। इसमें चुनाव की व्यवस्था, सुरक्षा, कर्मचारियों का तैनाती, ईवीएम सब कुछ शामिल है।

वहीं जिन देशों के चुनावी खर्च के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनमें कीनिया में यह खर्च 25 डॉलर प्रति वोटर होता है, जो दुनिया में सबसे महंगे चुनाव में से शामिल है। भारत के ही पड़ोसी देश पाकिस्तान में पिछले आम चुनाव में करीब 1.75 डॉलर प्रति वोटर खर्च हुआ था।

भारत के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं, ‘भारत में चुनाव कराने में करीब चार हजार करोड़ का खर्च होता है, जो कि बहुत बड़ा नहीं है। जहाँ तक राजनीतिक दलों के करीब 60 हजार करोड़ के खर्च की बात है तो यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है। इससे नेताओं और राजनीतिक दलों के पैसे गरीबों के पास पहुंचते हैं।’

कितना बड़ा हो सकता है राजनीतिक विरोध

चुनावों के दौरान बैनर-पोस्टर और प्रचार सामग्री बनाने, चिपकाने वालों से लेकर ऑटो और रिक्शेवाले तक को काम मिलता है। कुरैशी के मुताबिक यह एक मात्र मौका होता है जब आम लोगों को महत्व दिया जाता है और नेता, जनता के पास जाते हैं। इससे आम लोगों को भी अच्छा लगता है और वो तो चाहेंगे कि ऐसा बार-बार हो।

एसवाई कुरैशी याद करते हैं, ‘एक बार मैं किसी कार्यक्रम में गया था वहाँ किसी ने एक नारा लगाया ‘जब-जब चुनाव आता है, गरीब के पेट में पुलाव आता है’। यह गरीबों के लिए चुनाव के महत्व को बताता है।’

चुनाव आचार संहिता के दौरान आमतौर पर करीब डेढ़ महीने तक सरकार कुछ भी नया नहीं कर सकती है। हालांकि पहले से चल रही योजना पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। वहीं राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान चुनावी राज्यों को छोडक़र बाकी राज्यों के काम पर आचार संहिता का कोई असर नहीं होता है।

भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव को दोबारा एक साथ कराने का मुद्दा साल 1983 में भी उठा था, लेकिन उस वक्त केंद्र की इंदिरा गांधी की सरकार ने इसे कोई महत्व नहीं दिया था।

उसके बाद साल 1999 में भारत में ‘लॉ कमीशन’ ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था। उस वक्त केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही थी।

साल 2014 में बीजेपी ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया था। अब केंद्र सरकार ने इसके लिए पहल की है, लेकिन विपक्षी दल सरकार पर हमलावर हैं।

केंद्र सरकार की कमिटी में शामिल किए गए लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कमिटी से अपना नाम वापस ले लिया है। वहीं राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता ग़ुलाम नबी आजाद को कमिटी में जगह देने और मौजूदा नेता मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम न होने पर विपक्ष ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं।

एक बड़ा सवाल यह भी है कि एक साथ चुनाव होने पर अगर किसी राज्य में किसी दल या गठबंधन को बहुमत न मिले तो क्या होगा?

विपक्षी दलों के नेता इस तरह के कई सवालों को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं। इसमें भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिमी राज्यों तक के नेता शामिल हैं।

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने ट्वीट कर लिखा है, ‘भारत राज्यों का एक संघ है। ‘एक देश एक चुनाव’ का विचार संघ और इसके सभी राज्यों पर हमला है।’

बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का आरोप है कि आज एक चुनाव की बात हो रही है; उसके बाद ‘एक नेता’, ‘एक दल’ और ‘एक धर्म’ जैसी बात की जाएगी। तेजस्वी यादव का कहना है कि पहले ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की जगह ‘वन नेशन वन इंकम’ की बात होनी चाहिए। वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि बीजेपी वालों ने नया शिगुफा छोड़ा है, वन नेशन वल इलेक्शन से आम लोगों को क्या मिलेगा। देश में ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ और ‘वन नेशन वन इलाज’ होना चाहिए।

मौजूदा केंद्र सरकार के पास लोकसभा में बड़ा बहुमत है। इसके अलावा उसने दिल्ली सर्विस बिल को भी राज्यसभा में आसानी से पास करा लिया था। लेकिन ‘वन नेशल वन इलेक्शन’ पूरी तरह से अलग मुद्दा है। दूसरी तरफ संविधान के जानकारों के मुताबिक यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंच सकता है और सरकार के लिए ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की राह आसान नहीं होगी। (bbc.com/hindi)

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