संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक देश एक चुनाव पर बहुमत के बाहुबल से फैसला करना ठीक नहीं
08-Sep-2023 4:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  एक देश एक चुनाव पर बहुमत के बाहुबल से फैसला करना ठीक नहीं

एक देश एक चुनाव के विवादास्पद मुद्दे पर बिजली की रफ्तार से काम शुरू हो गया है। पिछले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इसके लिए बनाई गई कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है, और कई प्रमुख लोगों को कमेटी में रखा गया है जिसकी पहली बैठक कोविंद के निवास पर हुई है। इसमें अलग-अलग ओहदों पर काम कर चुके कानून के जानकार लोगों को रखा गया है, लेकिन लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस समिति के ढांचे से ही असहमति जताते हुए इसमें रहने से मना कर दिया है। इस तरह अब यह समिति किसी विपक्षी असहमति के दबाव से मुक्त होकर काम करेगी, यह एक अलग बात है कि एक पूर्व राष्ट्रपति को किसी कमेटी में रखे जाने को लेकर लोगों में हैरानी है, और उससे भी अधिक हैरानी लोगों में यह है कि एक विवादास्पद मुद्दे पर विचार करने, और रिपोर्ट देने के काम को एक पूर्व राष्ट्रपति ने मंजूर किया है जिन्हें कि परंपरा के मुताबिक किसी भी काम से परे रहना चाहिए था। लोकतंत्र में हर बार यह तर्क इस्तेमाल नहीं किया जा सकता कि कानून में इसकी कोई मनाही नहीं है। एक स्वस्थ और विकसित लोकतंत्र  न सिर्फ कानूनों के मुताबिक चलता है, बल्कि कई किस्म की गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखता है। एक पिछले मुख्य न्यायाधीश ने बहुत बुरी तरह विवादास्पद कार्यकाल के बाद सरकार को सुहाने वाले फैसले देने के बाद जिस तरह राज्यसभा में सत्ता के भेजे जाना तय किया, उसे भी बहुत बुरी मिसाल माना गया। हमने पहले ही दिन रामनाथ कोविंद के इस चयन, और उनकी इस सहमति, इन दोनों को ही खराब करार दिया था, और आज भी हम उस पर कायम हैं। 

लोकतंत्र बहुमत के बाहुबल का नाम नहीं होता, वह बहुमत और अल्पमत के बीच एक समावेशी व्यवस्था होती है जिसमें सहमति जरूरी न होने पर भी सहमति के लिए कोशिश की जाती है। एक आम सहमति, या व्यापक सहमति किसी फैसले को अधिक लोकतांत्रिक सम्मान दिलाती है, और बेहतर लोकतंत्र हमेशा ही इसकी कोशिश करते हैं। हिन्दुस्तान में या इसके अलग-अलग प्रदेशों में जहां सदनों में अनुपातहीन बहुमत से सत्ता बनती है, वहां किसी भी तरह की सहमति की फिक्र करना अवांछित काम मान लिया जाता है। संसदीय फैसले इस तरह लिए तो जा सकते हैं, लेकिन ऐसे फैसलों को इज्जत नहीं दिलाई जा सकती। एक देश एक चुनाव के लिए बनी कमेटी में रहने से इंकार करना कांग्रेस का सही फैसला है या गलत उस पर हम अभी कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन कई विपक्षी पार्टियों और नेताओं ने ऐसी कमेटी में पूर्व राष्ट्रपति को रखने का विरोध किया है, और वह अपने आपमें इस कमेटी का बहिष्कार करने के लिए पर्याप्त माना जाना चाहिए। 

हमने अपने अखबार में इसी जगह बहुत लंबे समय से एक देश एक चुनाव की वकालत की है। और आज जब मोदी सरकार इसी के लिए एक अभियान चला रही है, और देश के अधिकतर मोदी विरोधी इसके खिलाफ हैं, तो भी हम सैद्धांतिक रूप से इस सोच के साथ हैं। हर बरस कहीं न कहीं होने वाले चुनाव तरह-तरह की सत्तारूढ़ या प्रमुख विपक्षी पार्टियों से कई किस्म के लुभावने वायदे करवाते हैं, और इनसे देश का एक योजनाबद्ध विकास प्रभावित होता है। आदर्श स्थिति यही होगी कि लोकसभा, विधानसभा, और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव एक साथ हों, और लोग वोट डालकर सत्ता पर आने वाली पार्टियों को पांच बरस बिना किसी मतदाता-दबाव के काम करने दें। कई लोगों का ऐसा भी मानना है कि हर बरस कहीं न कहीं होने वाले चुनाव राजनीतिक दलों को मनमानी करने से रोकते हैं, और जनता के प्रति जवाबदेह बनाए रखते हैं। इस तर्क पर हमारा अधिक भरोसा नहीं है क्योंकि जनता के प्रति जवाबदेही सामान्य कार्यकाल में होनी चाहिए, पूरे कार्यकाल में होने चाहिए, और न कि चुनाव के वक्त होनी चाहिए। आम चुनाव, राज्यों के विधानसभा चुनाव, और जगह-जगह होने वाले उपचुनाव, म्युनिसिपल और पंचायतों के चुनाव ये अगर बिखरे रहेंगे, तो पार्टियां गैरजरूरी समझौतों में लगी रहेंगी, और मतदाताओं को रुझाने का काम जनता के पैसों को ही बर्बाद करने की कीमत पर होगा। अब आज देश में मोदी के नाम का जो बोलबाला दिख रहा है, उसे देखते हुए अगर कई पार्टियों को इनसे देश में एक अलग तरह का खतरा दिखता है, तो हम ऐसे व्यक्तिकेन्द्रित विरोध का समर्थन नहीं करते। जब देश के पहले चार चुनाव हुए थे, तो पहले तीन चुनावों में तो जवाहरलाल नेहरू ही देश के सबसे बड़े नेता थे, और उनकी लोकप्रियता की वजह से ऐसा तो हुआ नहीं था कि लोगों ने चुनावों को अलग-अलग करने की मांग की हो। 

हमारा तो यह भी सोचना है कि मोदी की लोकप्रियता से लोकसभा चुनावों में उन्हें बहुमत मिल रहा है, लेकिन कई राज्यों में भाजपा चुनाव हारी भी है। अगर वहां विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हुए रहते, तो हो सकता है कि छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल, कर्नाटक, तमिलनाडु, बंगाल, पंजाब जैसे कई राज्यों में विधानसभा जीतने वाली पार्टियों का असर लोकसभा पर भी हुआ रहता, और हो सकता है कि वहां भाजपा या एनडीए की सीटें घटी होतीं। फिलहाल हमारा इतना ही कहना है कि सरकार को सिर्फ बहुमत से असहमति को नहीं कुचलना चाहिए, और इस मुद्दे पर एक व्यापक बहस होने देना चाहिए। वैसे भी लोगों का यह कहना है कि इसके लिए कई किस्म के संविधान संशोधन लगेंगे, और वे तमाम राज्यों की सहमति के बिना नहीं हो पाएंगे। इसलिए एक देश एक चुनाव से सहमत और असहमत लोगों को सार्वजनिक रूप से भी अपने तर्क लोगों के सामने रखने चाहिए, ताकि आने वाले चुनावों के वक्त लोग ऐसे फैसलों के नफे-नुकसान ध्यान में रखकर वोट डाल सकें।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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