संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनाव तो आ गए, जमीनी मुद्दे, और उनसे उपजने वाले सवाल कौन उठाएंगे?
09-Sep-2023 4:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनाव तो आ गए, जमीनी मुद्दे, और उनसे उपजने वाले सवाल कौन उठाएंगे?

देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव पर दिल्ली में चल रहे जी-20 सम्मेलन का कुछ साया पड़ा हुआ है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसी में लगे हुए हैं, और इन राज्यों में भाजपा उम्मीदवार तय नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन कुल मिलाकर तमाम पार्टियां इन पांचों राज्यों में चुनाव की तैयारियों में लगी हैं, और वक्त रहते सबके उम्मीदवार आ भी जाएंगे। छत्तीसगढ़ में बसपा और आम आदमी पार्टी ने 9-9 सीटों पर, और भाजपा ने 21 सीटों पर नाम घोषित कर दिए हैं, और कांग्रेस भी इसकी बैठकों में लगी हुई है। लेकिन इन सबके बीच जनता, जनहित, और जनचेतना कहां हैं? 

आज हालत यह हो गई है कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, और राजस्थान जैसे राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच तथ्यों और तर्कों पर बातचीत खत्म हो चुकी है, और सिर्फ भावनात्मक, भडक़ाऊ, धार्मिक, और साम्प्रदायिक जुबान में बातें चल रही हैं। गरीबी के ग पर बात होने के बजाय इन पार्टियों के बीच बहस गाय, गोबर, गणेश, गोमूत्र जैसी बातों पर टिकी हुई है। ऐसे में कुछ जनसंगठनों की जरूरत है जो कि पार्टियों और नेताओं के नारों से परे उनकी हकीकत का विश्लेषण करें, और जनता के सवाल तैयार करें। बहुत से मुद्दों पर हम देखते हैं कि भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े ऐसे मामले हैं जो पिछली दूसरी पार्टी की सरकार के वक्त से चले आ रहे हैं, और जिन्हें मौजूदा सरकारों ने पांच बरस में छुआ भी नहीं है। ऐसा लगता है कि दोनों ही पार्टियों के बीच कुछ चुनिंदा भ्रष्ट लोगों के लिए एक अघोषित आम सहमति बन जाती है, और फिर उनका कुछ नहीं बिगड़ता। जो बहुत छोटी पार्टियां हैं उनसे जरूर उम्मीद की जाती है कि बड़ी पार्टियों की ऐसी अघोषित गिरोहबंदी के खिलाफ वे अलग रहकर भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करेंगी, लेकिन उनकी अपनी क्षमता बहुत सीमित रहती है, और वे भी इस काम को नहीं कर पातीं। देश में ऐसे संगठन जरूर हैं जो कि पूरे ही समय यह विश्लेषण करते रहते हैं कि किस राज्य के चुनाव में किस पार्टी के कितने मुजरिम किन-किन जुर्मों वाले हैं, उनकी संपत्ति कितनी है, और विधानसभा या संसद में कितने करोड़पति या अरबपति पहुंच रहे हैं, महिलाओं को कितनी जगह मिल रही है। लेकिन ऐसे एक-दो संगठन सिर्फ चुनावी घोषणा पत्रों का विश्लेषण करके ऐसे निष्कर्ष सामने रखते हैं, लेकिन आयोग में दाखिल ऐसे तथ्यों से परे वे जनमुद्दों को नहीं उठा पाते। इसके लिए जमीन पर काम करने वाले जनसंगठनों की जरूरत है, और उसके बिना लोकतांत्रिक जनचेतना की कोई संभावना नहीं दिखती। 

एक किस्म से खबरदार-मतदाता, या खबरदार-नागरिक जैसे कुछ संगठन रहने चाहिए जो किसी भी तरह की राजनीतिक प्रतिबद्धता से परे हों, और जो प्रदेश स्तर पर या चुनाव क्षेत्र के स्तर पर नेताओं और पार्टियों से सवाल करें। कायदे से तो यह काम मीडिया का होना चाहिए, लेकिन मीडिया चुनाव के वक्त जिस तरह प्रायोजित परिशिष्टों से लदा रहता है, और चुनाव में चर्चित पैकेज की ताक में रहता है, उससे अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। मीडिया अगर कुछ पार्टियों और नेताओं के खिलाफ कुछ छापते या दिखाते दिखता भी है, तो यह मानकर चलना चाहिए कि वह असली नुकसान पहुंचाने वाला मसाला नहीं रहता, बस सतही चोट पहुंचाने, और अपनी साख बचाने का नाटक अधिक रहता है। ये पांच चुनाव भी आ चुके हैं, और ये निकल भी जाएंगे, लेकिन पार्टियों और नेताओं से जो खरे सवाल किए जाने चाहिए, शायद उन्हें न तो विरोधी पार्टियां करेंगी, और न ही मीडिया करेगा। इसलिए लोकतंत्र में तथाकथित स्वघोषित चौथे स्तंभ से परे एक ऐसे जनमंच की जरूरत है जिसके लोग पूरे पांच बरस रिसर्च करते रहें, अध्ययन और विश्लेषण करते रहें, और चुनाव के पर्याप्त पहले वोटरों के सामने वे मुद्दे और सवाल रखें जो उन्हें आने वाले नेताओं और उनकी पार्टियों से पूछने चाहिए। बिना ऐसी जनचेतना के जो चुनाव होंगे वे सिर्फ चुनाव आयोग की तकनीकी औपचारिकता पूरी करने वाले, और पार्टियों और नेताओं से उपकृत होने वाले मतदाताओं के जलसे सरीखे होंगे, उनसे किसी तरह का ईमानदार लोकतांत्रिक चयन नहीं हो सकेगा। 

लोकतंत्र एक तंत्र के रूप में ऐसा झांसा देता है कि वह लोक से चलने वाला तंत्र है, जबकि हकीकत यह है कि यह तंत्र के शिकंजे में फंसे हुए लोगों की व्यवस्था हो गई है। लोग इस बात को लेकर खुश रहते हैं कि वे सरकार बनाते हैं, जबकि सरकार और विपक्ष दोनों मिलकर उन्हें एक किस्म से बेवकूफ बनाते हैं। ये दोनों ही अपने गलत कामों को छुपाते हैं, तरह-तरह के गलत लोगों को उम्मीदवार बनाते हैं, और असुविधा खड़ी करने वाले सवालों को न खड़े होने देने के लिए मीडिया को गोद में भी बिठाते हैं। अगर इस देश में लोकतंत्र को जिंदा रखना है, तो इसके तीन घोषित स्तंभों, और चौथे अघोषित स्तंभ मीडिया से परे जनसंगठनों की जरूरत है जो कि किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता के बिना सिर्फ जनहित में मुद्दे उठाने और सवाल पूछने का काम करें। अब जब मीडिया का बहुत सारा हिस्सा उसी तरह से सवाल पूछता है जिस तरह कई बरस पहले संसद में सवाल पूछने के लिए सांसदों को खरीदा गया था, इसलिए अब सवाल तो कहीं और से ही आ सकते हैं, उन लोगों से ही आ सकते हैं जो कि प्रायोजित परिशिष्टों से लदे हुए नहीं हैं, चुनावी पैकेज पाए हुए नहीं हैं। आज स्वतंत्र मीडिया के कुछ लोग भी ऐसे हो सकते हैं जो अपने कारोबार की जरूरतों से मुक्त हों, बहुत कम लागत से मीडिया का काम कर रहे हों, और जनता के बीच भरोसा पैदा करके अपनी पहुंच बना चुके हों। आज वेबसाइट, यूट्यूब, सोशल मीडिया के दूसरे प्लेटफॉर्म पर बहुत से ऐसे स्वतंत्र पत्रकार काम कर रहे हैं, जो कि किसी कारोबारी दबाव से मुक्त हैं, और राजनीतिक खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध नहीं हैं। जनता के राजनीतिक शिक्षण और जनचेतना के विकास का रास्ता ऐसे ही लोगों से निकलेगा। सरकार और कारोबार इन दोनों का गठजोड़ सरोकार को सिर नहीं उठाने देता, इसलिए सरोकारी लोगों और जनसंगठनों को लगातार काम करना चाहिए, यह काम सिर्फ चुनाव के पहले नहीं किया जा सकता, इसके लिए पूरे पांच बरस तैयारी करनी होगी, और चुनावों के वक्त मतदाता को सोचने पर मजबूर करने वाले तथ्य, तर्क, और सवाल सामने रखने होंगे। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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