संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बड़े भ्रष्ट अफसरों को हासिल हिफाजत सुप्रीम कोर्ट से खत्म
12-Sep-2023 4:02 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बड़े भ्रष्ट अफसरों को हासिल हिफाजत सुप्रीम कोर्ट से खत्म

सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान बेंच ने यह महत्वपूर्ण फैसला दिया है कि केंद्र सरकार के ज्वाइंट सेक्रेटरी या उसके ऊपर के अफसर के खिलाफ कोई जुर्म कायम करने या कार्रवाई करने के लिए उसे सरकार से कोई इजाजत लेने की जरूरत नहीं है। पहले सरकार में बैठे बड़े अफसरों ने अपने-आपको सीधी कानूनी कार्रवाई से बचाने के लिए इस तरह की व्यवस्था करवा रखी थी, और अभी आए इस फैसले में पांच जजों की बेंच ने यह साफ किया है कि 2003 में दिए गए ऐसे आदेश के बाद कार्रवाई से बचे हुए तमाम लोगों पर भी यह अदालती फैसला लागू होगा। इस तरह यह कड़ा फैसला न सिर्फ अफसरों से एक नाजायज हिफाजत छीन रहा है बल्कि सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों के हाथ मजबूत कर रहा है। अफसरों ने सरकार से अपने लिए ऐसी हिफाजत का नियम 2003 में करवा लिया था, वही रद्द कर दिया गया है। 

हम सिर्फ इस फैसले को लेकर लिखना नहीं चाह रहे हैं, बल्कि सरकारों के भीतर अपने पसंदीदा लोगों के भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह का व्यापक और मजबूत बर्दाश्त आम हो चला है, उसके खिलाफ लिखना चाह रहे हैं।  आज चारों तरफ केंद्र से लेकर प्रदेश सरकारों तक, और स्थानीय संस्थाओं से लेकर अद्र्धशासकीय संस्थाओं तक सत्ता के मन में अपने चहेते भ्रष्ट लोगों के लिए इतनी मोहब्बत है जितनी कि अनारकली के लिए सलीम के दिल में भी नहीं थी। जब हजारों में से दो-चार मामले उजागर हो ही जाते हैं, और संसद या विधानसभा में सरकार को मजबूरी में जांच के लिए हामी भरनी पड़ती है, या किसी अदालती आदेश से जांच करवानी पड़ती है, तो सरकारें अपने चहेते भ्रष्ट लोगों को बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने पर आमादा दिखती हैं। यह जगह-जगह देखने में आता है कि जो पूरी तरह भ्रष्ट लोग हैं, उनको बचाने के लिए सरकारें जांच एजेंसियों के साथ मिलकर साजिश करती हैं, मामलों को कमजोर करती हैं, और भ्रष्ट अफसरों को ऊंची से ऊंची कुर्सियों पर बैठाती हैं, और उन्हें रिटायर होने के बाद भी तमाम नियमों को तोड़ते हुए फिर तरह-तरह से कुर्सी पर बनाए रखती है। केंद्र सरकार का काम करने का तरीका राज्यों से कुछ अलग रहता है, वहां पारदर्शिता और कम रहती है, और वहां नीतिगत फैसलों में चुनिंदा लोगों को फायदा पहुंचाने के काम उतनी जल्दी उजागर नहीं होते, जितनी जल्दी राज्यों में सामने आ जाते हैं। शायद भारत सरकार के काम में पारदर्शिता उतनी अधिक नहीं रहती है जितनी राज्यों में रहती है। अभी जिस दर्जे के अफसरों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है, उन्होंने अपने-आपको आम सरकारी कर्मचारियों और अफसरों के ऊपर एक अलग दर्जा बनाकर उसमें हिफाजत से बिठा रखा था, यह सवर्ण किस्म की सोच भी इस फैसले से खत्म होती है।

हमारा तो अनुभव यह भी रहा है कि सरकार के परले दर्जे के संगठित भ्रष्टाचार की साजिश में शामिल मुजरिम अफसरों पर मुकदमे की नौबत जब आ भी जाती है, तब भी सरकार मुकदमे की इजाजत देने से कन्नी काटते रहती हैं, और भ्रष्ट अफसर की जिंदगी पहले खत्म हो जाती है, इजाजत तब तक नहीं आती। यह जनता के पैसों की लूट के अलावा और कुछ नहीं है। न तो सरकार से किसी जांच की इजाजत की जरूरत रहनी चाहिए, और न ही मुकदमा चलाने के लिए। आज ऐसे कई स्तरों पर मामलों को अटकाया जाता है, और सबसे भ्रष्ट लोग सबसे ताकतवर कुर्सियों पर बैठकर राज करते हैं। सुप्रीम कोर्ट का कल का यह फैसला चाहे भारत सरकार के संयुक्त सचिव और ऊपर के अफसरों को लेकर आया हो, लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि इस फैसले की भावना इसके शब्दों से ऊपर जाकर देश भर में सभी सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों पर लागू होती है, और देश भर की अदालतों को इस फैसले को समझना भी चाहिए जहां पर दसियों हजार सरकारी अधिकारी और कर्मचारी तरह-तरह की तकनीकी आड़ लेकर अपने खिलाफ कार्रवाई रूकवाकर बैठे हैं। चूंकि यह संविधान पीठ का फैसला है इसलिए इसे आसानी से चुनौती भी नहीं दी जा सकती, और यह खुद सुप्रीम कोर्ट के अब तक के छोटी बेंचों के दिए गए प्रतिकूल फैसलों पर भी लागू होगा। 

हमारा मानना है कि कई जगहों पर सत्तारूढ़ दल और विपक्ष इन दोनों की मेहरबानी भ्रष्ट लोगों पर रहती है, और दोनों की गिरोहबंदी भ्रष्ट अफसरों को बचाने में लग जाती है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की संभावनाओं को देखकर देश के जनसंगठनों और आरटीआई एक्टिविस्ट को चाहिए कि अपने-अपने इलाके के भ्रष्ट लोगों पर सरकारी मेहरबानियों के खिलाफ सवाल करें, और जनहित याचिका के माध्यम से अदालतों का ध्यान खींचें। नेता और अफसर भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के लिए इस हद तक एक हो गए हैं कि उनकी भागीदारी को तोडऩा बड़ा मुश्किल है। फिर भी इस देश का इतिहास बताता है कि जब कभी कुछ ईमानदार लोगों ने कमरकसी है तो इस गठजोड़ को वे तोड़ भी पाए हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि देश के कई राज्यों में भ्रष्टाचार के मामलों में मुख्यमंत्रियों को भी हटना पड़ा है, और राजनारायण नाम के एक जिद्दी नेता की कोशिशों से इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध करार हुआ था। इसलिए लोगों को हौसला नहीं छोडऩा चाहिए, और भ्रष्टाचार के खिलाफ नेताओं और अफसरों की गिरोहबंदी के खिलाफ अदालतों का इस्तेमाल करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखकर उसकी व्यापक संभावनाओं को टटोलना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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