संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भाषा की सेवा पर आमादा यह गजब का पाखंडी देश
14-Sep-2023 3:41 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भाषा की सेवा पर आमादा यह गजब का पाखंडी देश

आज हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है, और लोगों की भावनाएं सोशल मीडिया पर बिखर रही हैं। शायद स्कूल-कॉलेज में इस मौके पर हिन्दी के गुणगान के बहुत से कार्यक्रम होंगे, और अखबारों में पूरे-पूरे पन्ने हिन्दी की सेवा, हिन्दी की महिमा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा जैसी शब्दावली के साथ छपे हैं। भाषा को लेकर साल में एक दिन भावनात्मक होने के बाद अगले दिन से अधिकतर लोग उस भाषा के मनचाहे इस्तेमाल में जुट जाते हैं जिनमें हो सकता है कि भाषा के गर्व के लायक कुछ न हो। सोशल मीडिया पर इसी हिन्दी का इस्तेमाल करके जब महिलाओं का चरित्र हनन किया जाता है, बलात्कार और कत्ल की धमकी दी जाती है, जब क्रिकेट खिलाडिय़ों के बच्चों से बलात्कार की बातें लिखी जाती हैं, जब साम्प्रदायिक नफरत के तमाम बुलबुले हिन्दी में ही बने रहते हैं, और उफनते रहते हैं, तो वह किसी भाषा के मूल्यांकन का अधिक सही मौका रहता है। हिन्दी की सेवा करने वाले लोग सेवा की बात करते हुए अमूमन सरकारी या किसी संस्था के मेवे पर नजर रखते दिखते हैं कि किसी कार्यक्रम में मौका मिल जाए, और भाषा की साख बाकी लोगों की हरकतों से चौपट होती रहती है। 

हिन्दी को मातृभाषा बताने वाले लोग इसकी कितनी सेवा करते हैं यह उन मौकों पर साबित होता है जब वे मां-बहन की गालियां इसी भाषा में देते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि आपकी मातृभाषा वही होती है जो कि आप सडक़ पर गाली बकने की हसरत रहने पर मन के भीतर, या कई बार जुबान से भी, दूसरों को देते हैं। किसी भाषा का गौरव इन दिनों दुनिया की सडक़ और उसका फुटपाथ बने हुए सोशल मीडिया पर तय होते चलता है जहां किसी भाषा में उसे भी सही न लिखने वाले लोग नफरत का सैलाब फैलाते चलते हैं। फिर भाषा का गौरव तय होने की कुछ और जगहें भी रहती हैं। जब कुछ नेताओं, अफसरों, शराब कारोबारी-समाजसेवियों, पत्रकारों के सम्मान और अभिनंदन में एक अनोखी शब्दावली का इस्तेमाल होता है। ऐसे-ऐसे विशेषणों का इस्तेमाल होता है जिन पर खुद सम्मान के पात्र को भरोसा न हो,  खुद उसे लगे कि यह तो कुछ ज्यादा ही हो रहा है, तो भाषा के वैसे इस्तेमाल से भी भाषा का सम्मान तय होता है। तथाकथित पढ़े-लिखे, और तथाकथित जागरूक लोगों की जुबान से जब समाज के कमजोर लोगों, महिलाओं, दलितों और आदिवासियों, आरक्षित वर्ग के लोगों, और वकील न कर पाने वाले जानवरों के लिए अपमान की बातें निकलती हैं, तो उससे भी उनकी भाषा का सम्मान तय होता है। 

इस तरह किसी भाषा का कोई दिन मनाना एक किस्म का पाखंड है, अगर उस भाषा के सम्मान और उसकी सेवा का दावा करने वाले लोग उस भाषा में चल रहे भाषा के अन्याय, और उस भाषा के हिंसक इस्तेमाल के खिलाफ आवाज न उठाएं। किसी भाषा में, सौ फीसदी शुद्धता के साथ मां-बहन की गाली दी जा सकती है, तो क्या उससे भाषा की शुद्धता का सम्मान बढ़ जाता है, किसी भाषा में दूसरी भाषा बोलने वाले लोगों को काटकर फेंक देने के फतवे दिए जा सकते हैं, और उनका व्याकरण सही भी हो सकता है, लेकिन क्या उससे भाषा का सम्मान बढ़ता है? ऐसे हजार सवाल हैं। हमारा यह देखा हुआ है कि हिन्दी भाषा में सैकड़ों बरस से चले आ रहे कहावत-मुहावरों में सामाजिक अन्याय भरा पड़ा है, हिंसा ही हिंसा है, घोर जातिवाद है जो कि मनुवाद के मुताबिक तय किया गया है, लेकिन इसके खिलाफ कोई सोच आंदोलन नहीं बन पाती हैं। आज भी जब लोग इसकी सेवा करने, और इसे मां बताने में लगे हुए हैं, तब भी भाषा को लेकर सामाजिक चेतना और जागरूकता पर कोई चर्चा नहीं होती। जब तक भाषा की हिंसा पर बात नहीं होगी, भाषा में गहरे बैठी हुई सामाजिक असमानता पर बात नहीं होगी, क्या भाषा का कोई सम्मान हो सकता है? ऐसे पढ़े-लिखे लोग भी भला किस काम के जो कि अपनी पसंदीदा भाषा की हिंसा को मानने, और फिर उसे हटाने में दिलचस्पी न रखते हों? ऐसे लोग नवरात्रि के नौ दिनों में देवीपूजा के बाद असल जिंदगी में कन्या भ्रूण हत्या करने वाले लोग सरीखे होते हैं। ऐसे लोगों से तो वे अनपढ़ लोग बेहतर हैं जिन पर किसी भाषा की हिंसा हटाने की जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती। अपने आपको भाषा का सेवक कहने वाले लोग, उस भाषा के प्रेमी, मातृभाषा की संतान बनने वाले लोग अगर उस भाषा में भरे हुए कलंक को हटाने में दिलचस्पी नहीं रखते, तो वे उस भाषा का कोई भला नहीं करते, वे सिर्फ एक सालाना पाखंड करते हैं। 

आज हिन्दुस्तान के तथाकथित हिन्दी प्रेमियों के बीच अंग्रेजी को लेकर सबसे अधिक चिढ़ या जलन दिखती है कि अदालत, सरकार, और उच्च शिक्षा से लेकर कारोबार तक अंग्रेजी का बोलबाला है। अब तो अंग्रेजों को कोसना बंद हो जाना चाहिए क्योंकि आजादी मिले पौन सदी हो चुकी है। इस दौरान अगर हिन्दी भाषा को चाहने वाले लोगों ने अपने आपको दुनिया के मुकाबले तैयार नहीं किया है, तो इसकी कोई तोहमत हिन्दी पर तो डाली नहीं जा सकती। हिन्दी का इस्तेमाल करने वाले लोग इसे बढ़ाने की बात को एक नारे की तरह तो लगाते हैं, लेकिन फिर पूरी दुनिया की संभावनाओं को देखते हुए अंग्रेजी की तरफ बढ़ जाते हैं। सत्ता चला रहे लोगों को यह मालूम है कि आज अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा अंग्रेजी है, कम्प्यूटरों पर काम, विज्ञान और टेक्नालॉजी की भाषा अंग्रेजी है। जिस तरह दुनिया के बहुत से गैरअंग्रेजी देश अपनी भाषाओं में हर काम करने लगे हैं, उस तरह का हिन्दुस्तान में मुमकिन इसलिए नहीं है कि हिन्दी इस देश की ही अकेली भाषा नहीं है। इस देश में हिन्दीभाषियों के मुकाबले गैरहिन्दीभाषी आबादी अधिक कामयाब है, वह कारोबार में, उच्च शिक्षा और विज्ञान में अधिक सफल है। बाहर की दुनिया में जाकर कामयाब होना भी हिन्दी वालों के मुकाबले गैरहिन्दी वालों के लिए अधिक आसान है क्योंकि उनके मन में अंग्रेजी के लिए वैसी कोई नफरत नहीं है जैसी कि बहुत से कट्टर हिन्दीप्रेमियों के मन में रहती है। नतीजा यह निकलता है कि हिन्दीभाषी लोग अपनी भाषा की सीमित संभावना को थामकर बैठे हैं, उसकी शुद्धता के लिए उतने ही कट्टर हुए बैठे हैं जैसी कट्टरता शुद्धता को लेकर हिटलर की थी, और इसीलिए दुनिया में ऐसे शुद्धतावादियों के लिए एक शब्द लिखा जाने लगा है, ग्रामर-नाज़ी। रक्त शुद्धता के दुराग्रही लोगों की तरह लोग भाषा शुद्धता पर भी उतारू रहते हैं, और उन्हें यह समझ ही नहीं पड़ता कि हर बरस दुनिया भर के अलग-अलग भाषाओं के हजारों शब्दों को अपनी डिक्शनरी में मिला लेने वाली अंग्रेजी कहां से कहां पहुंच गई है। 

आज अगर अंतरराष्ट्रीय संबंध और कारोबार, विज्ञान और टेक्नॉलॉजी, उच्च शिक्षा और राजनीति की भाषा अगर अंग्रेजी रह गई है, तो हिन्दी पर टिके रहने की जिद कई पीढिय़ों की संभावनाओं को खत्म कर चुकी है, और करती रहेगी। लोगों को भाषा की सेवा करने की जिद छोड़ देनी चाहिए, भाषा को किसी सेवा की जरूरत नहीं रहती। वह महज एक औजार रहती है, और उसमें लिखी किताब को अगर नोबल पुरस्कार मिलता है, तो उसका सम्मान बढ़ता है, और उसमें लिखी सोशल मीडिया पोस्ट पर अगर मां-बहन की गालियां लिखी जाती हैं, तो ऐसी मातृभाषा का भी सम्मान खत्म होता है। जिनको मातृभाषा की सेवा करने की जिद है, उन्हें अपनी भाषा से हिंसा और बेइंसाफी को खत्म करने के लिए सार्वजनिक रूप से, सोशल मीडिया पर खुलकर सामने आना होगा, वरना मातृभाषा को मां-बहन की गालियां पड़ती रहेंगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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