संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मुजरिमों के चुनाव लडऩे पर रोक सिर्फ कुछ बरस क्यों? ताउम्र क्यों नहीं?
15-Sep-2023 4:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   मुजरिमों के चुनाव लडऩे पर रोक सिर्फ कुछ बरस  क्यों? ताउम्र क्यों नहीं?

दोषी सांसदों और विधायकों के चुनाव लडऩे पर रोक की एक अपील पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है, और उसके नियुक्त किए गए न्यायमित्र वकील विजय हंसारिया ने कोर्ट को सुझाया है कि अदालत से सजा पाने पर सिर्फ एक सीमित समय के लिए चुनावी रोक को ताउम्र करना चाहिए। उन्होंने अदालत को कहा है कि चुनाव लडऩे की अयोग्यता को सीमित करने का कानून संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत दिए गए समानता के अधिकार के खिलाफ है। अदालत में यह जनहित याचिका ऐसे बहुत से दूसरे मामले दायर करने वाले एक चर्चित वकील अश्वनी उपाध्याय ने लगाई हुई है, इस याचिका में एमपी-एमएलए के आपराधिक मुकदमों की जल्द सुनवाई की मांग भी की गई है। अदालत ने अपनी मदद के लिए एक सीनियर वकील विजय हंसारिया को न्यायमित्र बनाया है जो कि इस मामले में जजों को अपनी राय देते रहते हैं, उनके माध्यम से जजों को इस मुद्दे को बेहतर समझने में आसानी होती है। वे इस मामले में डेढ़ दर्जन से ज्यादा रिपोर्ट दे चुके हैं, और अभी उन्होंने देश भर में एमपी-एमएलए अदालतों में चल रहे मामलों का अध्ययन करके बताया है कि इन मामलों में होने वाली प्रगति की रिपोर्ट हर महीने हाईकोर्ट में जमा होनी चाहिए, और हाईकोर्ट यह निगरानी करें कि सुनवाई तेजी से हो। आज इस वक्त सुप्रीम में इस मामले की सुनवाई चल रही होगी, लेकिन हम अदालत के रूख को जाने बिना इस मुद्दे पर अपनी राय लिख रहे हैं। 

हिन्दुस्तान की राजनीति जुर्म से इस बुरी तरह लदी हुई है कि सांसदों-विधायकों के जुर्म पर अगर कोई कड़ी रोक लगाई जाए तो उसका समर्थन करना चाहिए। अब इस रोक को लगाते हुए यह भी याद रखना होगा कि कुछ लोगों को यह सांसदों और विधायकों के संवैधानिक या लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ लगेगा। हमारा यह मानना है कि भ्रष्टाचार या किसी संगीन जुर्म के मामलों में तो जिंदगी भर की रोक लगाने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर किसी सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान कोई जुर्म दर्ज होता है, या कि राहुल गांधी किस्म के किसी मानहानि मामले में कोई सजा होती है, तो उसमें जिंदगी भर चुनाव लडऩे पर रोक जायज नहीं होगी। हत्या, बलात्कार, संगठित व्यापक भ्रष्टाचार, सरकारी ओहदे का बेजा इस्तेमाल, मनी लॉंड्रिंग जैसे मामलों में जिंदगी भर की रोक लगाना नाजायज नहीं होगा। अगर भारतीय लोकतंत्र से मुजरिमों को कम करना है, तो कड़ी कार्रवाई के बिना यह मुमकिन नहीं है। आज तो यह जाहिर तौर पर दिखता है कि जो बलात्कारी दिख रहे हैं, उनका भी देश की विधानसभाओं और संसद में सम्मान होता है, और वे आज भी एक सांसद के विशेषाधिकार भंग होने के हक के हकदार बने हुए हैं। 

संगीन जुर्म के मुजरिमों पर अगर जिंदगी भर चुनाव लडऩे पर रोक लगती है, तो उससे भी वे अपनी पार्टी के नेता तो बने ही रह सकते हैं। अभी तक ऐसी कोई कानूनी रोक नहीं है कि सजायाफ्ता लोग राजनीतिक दलों में न रहें। यह पार्टियों की अपनी पसंद है कि वे कितने मुजरिम अपने पर लादना चाहती है, अपनी गोद और अपने सिर पर बिठाना चाहती है। अभी इस समाचार को हम देख रहे हैं तो न्यायमित्र ने अदालत को बताया है कि बलात्कार, ड्रग्स, या आतंकी गतिविधियों या भ्रष्टाचार के मामलों में भी सजा होने पर चुनाव लडऩे पर रोक रिहाई के बाद कुल 6 साल के लिए है। ऐसे मामलों की शिनाख्त की जानी चाहिए, जुर्म की कुछ धाराओं को तय करना चाहिए, और गंभीरता के आधार पर इस रोक को आजीवन किया जाना चाहिए। किसी व्यक्ति के पास ऐसे संगीन जुर्म के बाद चुनाव लडऩे से परे और भी बहुत काम हो सकते हैं, और पार्टियों के पास भी अपने चहेते और पसंदीदा मुजरिमों के अलावा और बहुत से लोग चुनाव लडऩे लायक हो सकते हैं। हर पार्टी को अपने गैरमुजरिमों को मौका देना चाहिए, क्योंकि पार्टी के नेताओं और सदस्यों में से चुनाव लडऩे के मौके तो गिने-चुने लोगों को ही मिल पाते हैं। जिस व्यक्ति को एक बार कोई संगीन जुर्म करने की फुर्सत रहती है, उसे चुनाव न लड़ाकर कुछ और वक्त देना चाहिए ताकि वे लोग दूसरे काम कर सकें, और चाहें तो कोई और जुर्म भी कर सकें। इस बात को पार्टियों से परे मुजरिमों की निजी जिंदगी तक भी ले जाना चाहिए कि वे निर्दलीय उम्मीदवार होकर भी चुनाव न लड़ सकें। 

अभी अदालत में चल रही इस याचिका की सारी संभावनाएं हमें ठीक से नहीं मालूम है, लेकिन राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन के नियम भी ऐसे बनाने चाहिए कि ऐसे सजायाफ्ता लोग उसके ओहदों पर न रह सकें। अभी शायद ऐसी रोक नहीं है। सजायाफ्ता मुजरिमों पर रोक बढऩी चाहिए। और अगर वे आर्थिक रूप से सक्षम हैं, तो ऐसी सजा के बाद उन्हें संसद या विधानसभाओं से मिलने वाली पेंशन भी बंद होनी चाहिए, क्योंकि जुर्म की कमाई अगर उनकी बाकी जिंदगी के लिए काफी है, तो जनता का पैसा उन पर क्यों बर्बाद किया जाए। हमने देश के अलग-अलग हिस्सों से, खासकर उत्तर भारत से ऐसे गैंगस्टरों के मामले अभी देखे हैं जो अलग-अलग कई पार्टियों से चुनाव लडक़र संसद और विधानसभाओं में पहुंचते रहे। उनका जुर्म का साम्राज्य देखकर लगता है कि उन्हें मुम्बई में दाऊद के मुकाबले कोई गिरोह चलाना था। लेकिन ऐसे लोग अलग-अलग पार्टियों से अलग-अलग वक्त पर सांसद और विधायक बनते रहे हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। राजनीति का आपराधिकरण बढ़ते-बढ़ते अपराध का राजनीतिकरण हो चुका है। अधिकतर पार्टियों को अपने ताकतवर, जीतने वाले, और इलाकों में दबदबा रखने वाले मुजरिमों से कोई परहेज नहीं दिखता। इसलिए अदालत को ही दखल देकर चुनावी पात्रता, और पार्टियों में ओहदों पर रोक लगानी होगी। यह किस तरह के जुर्म पर किस सीमा तक लगे, यह आगे बहस के लायक है, और यह जाहिर भी है कि अदालत में तमाम पहलू सामने आएंगे, हमने तो आज इस मुद्दे पर सिर्फ अपनी मामूली समझ सामने रखी है, जो कि अब तक की जानकारी पर आधारित है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news